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‘शिक्षा’ की ‘व्यवस्था’ से अनबन भला क्यों?- मदन कलाल

भास्कर ब्लॉग. . मैं इन दिनों शिक्षा और व्यवस्था के फेर में बुरी तरह उलझा हुआ हूं। समझ नहीं आता शिक्षा की मेरी सोच गलत है या शिक्षा व्यवस्था की उनकी यानी स्कूलों की सोच। मेरे हिसाब से शिक्षा और व्यवस्था दो भिन्न और यहां तक कि विपरीत चीजें हैं।

शिक्षा यानी हर दिन, हर पल, हर गुजरते क्षण से कुछ नया सीखना और व्यवस्था यानी बनी-बनाई लीक, र्ढे पर चलना। शिक्षित होना यानी खुद को पहचानना, आस-पास को जानना, समाज के हित में सोचना, भला करने की सामथ्र्य जुटाना और बुरे का विरोध करने की हिम्मत करना। वहीं व्यवस्था यानी बने-बनाए र्ढे को चलाए रखने के लिए पढ़े-लिखे मशीनी पुर्जे तैयार करना, क्लर्क, अधिकारी, बैंकर, इंजीनियर की लाइन खड़ी करना।

मैंने खुद तो बचपन में ही शिक्षा व्यवस्था स्वीकार कर ली थी, जस की तस। यानी, किताबों का रट्टा मारो और पास हो जाओ। स्कूल भी खुश, घर भी खुश। लेकिन अब ऐसा नहीं है। नई पीढ़ी इस व्यवस्था को मानने को राजी नहीं है। मेरे बेटे को ही लें।

स्कूल से आए दिन उलाहनाएं, शिकायतें। कई बार तो स्कूल प्रबंधन ने बाकायदा बुलाकर वॉर्निग तक दे दी। शिकायत यह कि वह वैसा नहीं करता, जैसा बाकी बच्चे चुपचाप करते हैं। यानी, जैसा कहा जाए, ठीक वैसा। जब मैंने बेटे से पूछा तो उसका सवाल मुझे निरुत्तर कर गया। उसने पूछा, जो मुझे आता है, वह बार-बार क्यों पढूं, आप पढ़ते हो क्या?

मजे की बात यह कि जब भी स्कूल में कोई नई गतिविधि, नया पाठ होता है, उसकी शिकायतें हवा हो जाती हैं। लेकिन दो या तीन दिनों तक ही। जब वही जानकारियां दो, तीन, चार और फिर बार-बार रटाई जाने लगती हैं, अक्सर उसकी मर्जी के खिलाफ तो वह बगावत पर उतर आता है। कक्षा में उत्पात शुरू कर देता है।

दूसरे बच्चे जो चुपचाप ‘शिक्षा की व्यवस्था’ चला रहे होते हैं, उसके निशाने पर होते हैं। वह उनकी कॉपियां फाड़ देता है, किताबें फेंक देता हैं। विरोध जताने के और भी तमाम तरीकों पर अमल कर गुजरता है। अब तो स्कूल से आखिरी चेतावनी मिल चुकी है कि बच्चे को ‘सुधार’ लें या किसी और स्कूल की राह लें। मेरी चिंता यह है कि बच्चे को ‘सुधार’ कर उसे रटंत विद्या वाली शिक्षा व्यवस्था का पुर्जा बनने के लिए झोंक दूं या शिक्षा हासिल करने के लिए मुक्त रहने दूं?

उसे सितारों की सैर की कहानी सुनना बेहद पसंद है। समुद्र की गहराइयों में क्या-क्या मिलता है, यह जानने में वह कभी बोर नहीं होता। पृथ्वी कब बनी, आदमी कैसे इस पर आया, ज्वालामुखी जमीन के अंदर से बाहर कैसे निकलता है, ग्रहण कैसे लगते हैं, ये उसकी जिज्ञासाओं के विषय हैं। ऐसे में जब स्कूल प्रबंधन कहे कि वह ए फॉर एप्पल और बी फॉर बैलून बार-बार नहीं लिखता तो चाहकर भी मैं दोष बेटे में नहीं निकाल पाता। शायद ऐसी ही है शिक्षा की यह व्यवस्था।

क्या कभी यह व्यवस्था ऐसी होगी, जो बच्चों की जरूरत और रुचि के मुताबिक बने? जो बच्चों को सामाजिक सरोकारों, नैतिक मूल्यों और देश की जरूरतों से जोड़े, उन्हें डाक्टर, इंजीनियर, अफसर से पहले संवेदनशील और प्रबुद्ध इंसान बनाए? उनका बचपन भी बना रहे और उनमें देश के जिम्मेदार नागरिक की नींव भी पड़ जाए? जब लॉर्ड मैकाले ने हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था बदली थी, तब उनका मानना था कि अंग्रेजी नहीं जानने वाले, अनपढ़ भारतीय अंग्रेजी साम्राज्य के लिए खतरा बन सकते हैं। वहीं अंग्रेजी जानने वाले भारतीयों से उन्हें कोई खतरा नहीं होगा।

क्या आज भी शिक्षा व्यवस्था के पैरोकार कुछ ऐसा ही नहीं सोचते कि उनकी व्यवस्था में शिक्षा नहीं हासिल करने वाले उनकी व्यवस्था के लिए खतरा बन सकते हैं? बहरहाल, मैं तो इन दिनों अपने बेटे के लिए एक अदद ऐसे स्कूल की खोज में हूं, जहां व्यवस्था भले न हो, पर वह ‘शिक्षा’ जरूर देता हो।