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आज तो आजिज हैं सब गरीब! - मृण्‍ााल पांडे

दु:ख, असहायता और राज-समाज के उत्पीड़न से भारतीय गरीबों का इतनी सदियों से रिश्ता रहा है कि वे अक्सर उसे खामोशी से सहते रहते हैं। पर हमारे यहां जनता की अनसुनी मूक व्यथा को स्वर देने वाले जनकवियों की वाल्मीकि से लेकर बाबा नागार्जुन तक एक लंबी परंपरा भी है, जिसमें नज़ीर अकबराबादी भी आते हैं। मध्यकाल में जब दिल्ली की बादशाहत उजड़ रही थी और जनता जाट, रुहेले, मराठा छापामारों और अंग्रेजों की दबंगई तले छटपटा रही थी, शहर आगरा पर मशहूर 'नज़ीर ने 'शहरे आशोब (शहर के दु:ख) के शीर्षक से एक लंबी नज़्म लिखी थी : 'मारे हैं हाथ हाथ पे सब यां के दस्तकार। और जितने पेशेवर हैं सब रोते हैं ज़ार ज़ार। कूटे है तन लोहार तो पीटे है सर सुनार। कुछ एक दो के ही काम का रोना नहीं है यार। क्या छोटे कामवाले वो क्या पेशेवर नजीब, रोज़ी के आज हाथ से आज़िज़ हैं सब गरीब।

 

 

नज़ीर की कविता का मर्म आगरा फोर्ट में बैठे अंग्रेज साहिब लोग पहले शायद नहीं समझे थे। कविता, वह भी देसी भाषा की, वे कहां पढ़ते? पर जब 1857 में जनता के विद्रोह की आग भड़की, तो जनभाषा का महत्व उनकी समझ में आया। 2016 में घट-घटव्यापी मीडिया की कृपा से सरकारी नोटबंदी पर लेखकों, मीडिया तथा बुद्धिजीवियों द्वारा एकाधिक भाषाओं में की गई टिप्पणियों से हुक्मरान परिचित तो हैं, लेकिन सही आलोचना से सबक लेने की बजाय वे सारे बुद्धिजीवी वर्ग पर बरस रहे हैं। टीवी और अखबारों में लिखने-बोलने वालों को कई अभद्र विशेषणों से नवाजते हुए वे रोज कहते हैं कि देश को गतिशील बनाने के लिए जबरन दिया यह सरकारी धक्का जायज है और देशद्रोहियों को ही नापसंद हो सकता है। आम लोग तो शांति से कतारों में खड़े हैं और जो सीमित कैश मिल रहा है, उससे काम चला ले रहे हैं। यानी जनमत सरकार के साथ है। क्या ऐसी लुंज-पुंज सरकार अच्छी थी, वे पूछते हैं, जिसके तले भ्रष्टाचारी सार्वभौम और काबीना के सरगना खामोश तथा महत्वहीन थे? जनकवि का जवाब है निश्चय ही नहीं, पर उस सरकार ने चुनाव में करारी हार के रूप में इसका भारी खामियाजा भुगत लिया है। हम चाहते हैं अब आप भी चौकन्‍ने रहें। खामोशी गरीब की सहमति नहीं, अक्सर उसकी लाचारी का लक्षण होती है।

 

दरअसल भारत में नेति नेति यानी यह भी नहीं, यह भी नहीं, के रास्ते से सचाई तक पहुंचने की परंपरा है। लिहाजा स्थिति को स्पष्ट करने के लिए चंद सवाल पूछे जा सकते हैं। माना पुरानी सरकारें नाकारा थीं, पर क्या ऐसी एकछत्र केंद्रीय सरकार अच्छी कही जा सकती है, जिसमें जनता को काबीना के सदस्य मुनीम-गुमाश्ते नजर आने लगे हों, दल के क्षेत्रीय नेताओं की कोई आवाज न हो, सारे अहम फैसले गुप्त रूप से सर्वोच्च स्तर पर ही लिए जाते हों और सारा तंत्र फैसलों के ईमानदार विवेचन की बजाय अहो रूपं अहो ध्वनि, करने लगा हो? जिस देश का 90 फीसदी कमासुत वर्ग (जिसमें ग्रामीण किसान व शहरी वेतनभोगी सब शामिल हैं) पूरी तरह नकदी पर निर्भर असंगठित क्षेत्र के बूते जीता हो, जहां डिजिटल साक्षरता बेहद सीमित हो और नियमित बिजली, ब्रॉडबैंड, एटीएम और बैंकिंग सरीखी सुविधाएं दो-तिहाई आबादी के लिए दुर्लभ हों, वहां का अर्थतंत्र रातोंरात 100% कैशलेस कैसे बन सकता है? नकद भुगतान असंभव बन जाने से प्रवासी मजदूर गांव वापस जाने को बाध्य हो रहा हो, गांव में नकदीविहीन बना किसान फसल बोने में असमर्थ हो और चेक से मासिक वेतन पाने वाले शहरी बाबूलोग भी अपनी ही तनख्वाहें बैंक से न निकलवा सकें, तब भी नेतृत्व को परदु:ख कातर और राज्यतंत्र जनकल्याणी किस तरह बताया जा सकेगा? ऐसे बैंकिंग तंत्र पर, जिसने अचानक एक रात अपने ही जारी किए नोटों पर लिखित आश्वासन को बिना धारकों को भरोसे में लिए तोड़ डाला और 80 फीसदी मुद्रा को अचानक अमान्य बना ग्राहकों का अपनी जमापूंजी का इच्छित अंश निकाल पाना असंभव बना दिया हो, आगे कौन धारक अटूट भरोसा रखेगा? यदि बैंकतंत्र की बाबत पुष्ट खबरें निकलें कि उससे हवाला वालों, वकीलों तथा चार्टर्ड अकाउंटेंटों की गहरी मिलीभगत है व जनता के लिए छापी गई नई मुद्रा की हेराफेरी कर उससे अमीरों की काली कमाई सफेद बनाने का धंधा चल रहा है, तब राज्य किस मुंह से संदिग्ध बैंक खातों की जांच कराने की धमकी दे सकता है?

 

 

भारत अब पलटी खाकर पुरानी अर्थव्यवस्था पर लौट जाए, यह मुमकिन नहीं है, और निश्चय ही जनता के नैतिकता विषयक सवालों के सही जवाब देने की बजाय कराधान बढ़ोतरी और विकास योजनाओं के सुनहरे आर्थिक गणित पर चतुर घुमाऊ जुमले बोलकर उनका उपहास करना भी संभव है। फिर भी सरकारी आश्वासन कि बस 30 दिसंबर तक सारा काला धन मिट जाएगा, करदाता स्वच्छ फरिश्ते बनकर नियमित तौर से कर चुकाएंगे और उस राशि तथा विदेश व्यापार की मदद से यह मरियल बैलगाड़ी पंख लगाकर उड़ चलेगी, बहुत अविश्वसनीय हो उठे हैं? लिहाजा महीने भर तक लाइन में लगा जो आदमी कहता था कि वह देश के लिए कुर्बानी देने को राजी है ताकि भ्रष्टाचार और काली पूंजी को जड़ से मिटाया जा सके, अब कुछ अटक कर बोलने लगा है : तंगी तो भैया बहुत है, चार-चार पांच-पांच घंटा लाइन में लगते रहे तो दिहाड़ी का क्या होगा? हां, जो फैसला है, सो सही है। पर अब जनवरी से काले को गुलाबी करने कराने वाले सब लोग पकड़े जाएं और हमें बैंक से जरूरी मात्रा में नई नकदी मिलने लगे, तभी हम मानेंगे कि हमारा कष्ट सकारथ रहा।

 

 

जो रातोंरात काली कमाई सफेद बनाकर खाते में डाल आए हैं, उन सबको चोर साबित करना टेढ़ी खीर है। गणना के बाद रिजर्व बैंक ने भी मान लिया है कि या तो उससे अनुमान लगाने में गलती हुई है या करचोर कहीं अधिक शातिर निकले, सो करीब चालू नकदी का 81 फीसदी इस सारी कवायद के बाद बैंक में जमा है। और 30 दिसंबर तक उस बहुचर्चित आवारा काली पूंजी का बहुत नन्हा अंश ही सरकार के हाथ लगेगा। उधर स्टिंग ऑपरेशन दिखा रहे हैं कि काली नकदी की धुलाई के शीर्ष पर सभी दलों के नेता हैं। ऐसे में पुरानी आमधारणा और भी पुष्ट होगी कि दिल्ली में कोई नया अति गोपनीय प्लान बने भी, तो उसके लागू होते ही काश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्वदलीय मिलीभगतवाला वह नया सवर्णतंत्र उस पर हावी हो जाता है जो तमाम संस्थाओं को अपनी जेब में रखता है। इस तंत्र की जकड़ से आज सहकारी बैंक श्रीहीन खड़े हैं, ग्रामीण एटीएम पर ताले झूल रहे हैं, और 'नकदी तो चुक गई, कहकर आम जनता को टरकाने वाले बैंककर्मी विशिष्टजनों को भीतर बुला उन्हें गुलाबी नोटों की रेवड़ियां बांट रहे हैं। गरीब को शनै:-शनै: समझ आ चला है कि हर दल का असल लक्ष्य जनसेवा या भ्रष्टाचार मिटाना नहीं, जनता को छल कर, काली कमाई से चुनाव जीतना ही है। यह गहराती अनास्था लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं।

 

 

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)