Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]woman-gender/tribal-women-of-Kerala-are-becoming-self-reliant.html"/> महिला/जेंडर | आत्मनिर्भर बन रही हैं केरल की आदिवासी महिलाएँ | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

आत्मनिर्भर बन रही हैं केरल की आदिवासी महिलाएँ

बाबा मायाराम, पालक्काड़


“हम जल, जंगल और जंगली जानवरों का संरक्षण करने के साथ-साथ आदिवासियों की आजीविका को भी बचाने की कर रहे हैं। जंगल से हम उतना ही लेते हैं, जितनी जरूरत होती है। जंगली जानवरों के लिये को उनके पसंद के फल, फूल, पत्ते और कंद छोड़ देते हैं; जिससे वे भी जिये और जंगल की जैव-विविधता भी बनी रहे।” यह मंजू वासुदेवन थीं, केरल के त्रिचूर जिले में ‘फॉरेस्ट पोस्ट संस्
था’
के साथ काम करती हैं।
पश्चिमी घाट की पहाड़ियों से घिरा यह इलाका प्राकृतिक रूप से सम्पन्न है। यहां के जंगल हरे-भरे व विपुल वन संपदा से भरपूर हैं। हाल ही में (3 से 6 नवंबर के बीच) मेरा इस इलाके में जाना हुआ। मैं विकल्प संगम समूह की बैठक में गया था, जो पालक्कड जिले के शोरनूर में हुई थी। बैठक के अंतिम दिन हम त्रिचूर जिले में गए थे, जहां हमें काडर आदिवासियों की उद्यमी पहल को देखने का मौका मिला था। इस दौरान मंजू वासुदेवन ने इस पूरी पहल के बारे में विस्तार से बताया था।


शोरनूर से चालकुडी नदी तक का पूरा रास्ता जंगल का था। सुबह का समय था; आसमान साफ था। पक्की सड़क पर बस दौड़ रही थी, पर मेरी आँखें हरियाली पर टिकी थीं। कभी हरियाली के बीच से छनकर धूप आ रही थी, कभी ऊंचे पेड़ों की छाया खिड़की पर आ रही थी।  हरे-भरे पेड़, रबर और पाम के बगीचे, सड़कों के किनारे सुंदर घर, किचिन गार्डन, धान के खेत और छोटे-छोट कल-कल, छल-छल बहते झरने, नदी नाले सभी चलचित्र की तरह साथ चल रहे थे। नारियल व केले के पेड़ बहुत ही मनमोहक थे। पारंपरिक पोशाकों में स्री-पुरुष थे। ऐसा लग रहा था मानो पूरा त्रिचूर का जंगल मेरी खिड़की पर था।
कुछ देर बाद हमारी बस रुकी और हम फॉरेस्ट पोस्ट संस्था के कार्यालय में दाखिल हुए। कार्यालय क्या था, वन उत्पादों की सुगंध से भरा एक छोटा कमरा था। हम करीब 25 लोग थे। हमारी मौजूदगी से कमरे में गरमी और उमस बढ़ गई थी। संस्था की मंजू वासुदेवन ने अभिवादन कर हमारा स्वागत किया और संस्था के कामों का विवरण दिया।

 

तसवीर में- साबुन बनाती हुई महिलाएँ


पर्यावरणविद् मंजू वासुदेवन ने बतलाया कि फॉरेस्ट पोस्ट संस्था की शुरूआत वर्ष 2021 में हुई। वे रिवर रिसर्च सेन्टर से भी जुड़ी हैं। इस इलाके के आदिवासियों को वन अधिकार कानून (2006) के तह्त वर्ष 2014 में 40 हजार हेक्टेयर का सामुदायिक वन अधिकार (सी.एफ.आर.) मिला है। उनकी संस्था ने आदिवासियों की आय संवर्धन व टिकाऊ रोजगार की दिशा में पहल की है।  आदिवासियों के जीवन स्तर को आर्थिक रूप से बेहतर बनाने की कोशिश की है। त्रिचूर व एर्नाकुलम जिले के गांवों में महिला समूहों के बीच यह काम किया जा रहा है।  
वे आगे बतलाती हैं कि जंगल आदिवासियों का घर है और वे उसे बहुत प्यार करते हैं। जंगल और नदी पर ही उनका जीवन निर्भर है। वे जंगल की निगरानी भी करते हैं। हालांकि वे पारंपरिक रूप से भी फल-सब्जियां और जड़ी-बूटियां बेचकर गुजारा करते हैं पर हमने उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए आर्थिक आमदनी बढ़ाने पर जोर दिया। गांवों में घूमते हुए हमारी सोच बनी कि जंगल के गांवों में रहकर ही उनकी आमदनी बढ़ाने के लिए कुछ करना चाहिए। इसके लिए महिला समूहों का गठन कर वनोपज से कुछ उत्पाद बनाना शुरू किया है।
पर्यावरणविद् मंजू वासुदेवन बतलाती हैं कि काडर, मलयार और मुथुवर आदिवासी सालों से केरल के चालकुडी और करुवन्नूर नदी के आसपास रहते हैं। उन्होंने शुरूआत में रिवर रिसर्च संस्था से जुड़कर काम किया, फिर यहीं की होकर रह गईँ और अब आदिवासियों की आमदनी बढ़ाने के लिए वनोपज से उत्पाद बनाने के उद्यम में जुटी हैं। फारेस्ट पोस्ट नामक संस्था के माध्यम से यह काम किया जा रहा है।
उन्होंने बताया कि आदिवासी महिलाएँ शतावरी का अचार, शहद, अचार, मोम का साबुन और बांस की टोकरियाँ बनाने इत्यादि का काम रही हैं। शतावरी के अचार को लोग बहुत पसंद कर रहे हैं। इससे उनकी आमदनी बढ़ रही हैं। बांस की टोकरियाँ व साज-सज्जा के सामानों की मांग बढ़ गई है। शहद व पारंपरिक केश तेल के भी उत्पाद बनाए जा रहे हैं। 

 

तसवीर में- चटाई बनाती हुई महिलाएँ

इसके अलावा- पारंपरिक इलाज के लिए जड़ी-बूटियाँ, तेल, पेड़ों की छाल, शहद, आंवला, कटहल, मोम और कई तरह के फल व कंद-मूल भी जंगल में मिलते हैं। यह अनोखे स्वाद, सुगंध व मोहित करने वाले रंगों के होते हैं। उत्पाद बनाने के लिए महिलाओं को प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इसके लिए समय-समय पर प्रशिक्षण शिविर भी लगाए जाते हैं।
वे बतलाती हैं कि यहां विशेष साबुन जिसे दालचीनी, गुलाब की पंखुडियों व चमेली जैसी सामग्री का उपयोग कर बनाया जाता है; नीम और जड़ी-बूटियों से तेल व नारियल तेल का भी इस्तेमाल किया जाता है। कन्नडिपाया, जिसे छोटी चटाई व टोकरियां बांस से बनाई जाती हैं। काली मिर्च, बांस करील, शतावरी और आम, अदरक से अचार व जंगली खाद्य तैयार किए जाते हैं। 
बिक्री के बारे में मंजू वासुदेवन ने बताया कि स्थानीय स्तर पर, मेलों व प्रदर्शनियों में स्टॉल लगाए जाते हैं। इसके साथ ही ऑनलाइन आर्डर लिए जाते हैं और उत्पादों को देशभर में पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं,जिसमें अब तक आंशिक सफलता भी मिली है।
मंजू वासुदेवन ने बतलाया कि उनकी संस्था जंगलों से अत्य़धिक दोहन के खिलाफ है। जो वन उत्पाद दुर्लभ व सीमित हैं,उन्हें इस्तेमाल न करने का निर्णय लिया गया है। क्वीन सागा इनमें से एक है। इसे बेचने से अच्छी आमदनी होती है, पर हमने जंगल से इसे निकलने पर रोक लगाई है, जिससे इसका संरक्षण किया जा सके। इस पूरी पहल से 9 गांवों की महिलाएं जुड़ी हुई हैं। 
सामुदायिक वन अधिकार के बारे में मंजू वासुदेवन बताती हैं कि सीएफआर मिल चुका है पर  इसमें पैरवी की जरूरत है, जिससे लोग उनके अधिकारों को हासिल कर सकें। इसमें रिवर रिसर्च सेन्टर संस्था मदद कर रही है। इसलिए हमने महिला समूहों के साथ मिलकर वनोपज से उत्पाद बनाने और बेचने का उद्यमी काम शुरू किया है।

वाजाचल गांव की मुखिया गीता ने बताया कि वे काडर आदिवासी समुदाय से हैं, जिसका अर्थ जंगल में रहनेवाले आदिवासी होता है। उनका गांव परम्बिकुलम टाईगर रिजर्व की सीमा पर है। 

उन्होंने बताया कि चालकुडी नदी पर अथिराप्पिल्ली पनबिजली परियोजना प्रस्तावित है, जिसका प्रबल विरोध हुआ है, जिसके चलते फिलहाल यह स्थगित हो गई है। उन्होंने कहा कि जंगल और नदी उनका जीवन है, इसलिए ऐसी परियोजना का विरोध करते हैं। यह जंगलों को नष्ट कर देगी। यहां भूस्खलन का खतरा भी हो जाएगा, जंगलों से बारह महीनों बहनेवाले झरने सूख जाएंगे। 

गीता बतलाती हैं कि अब हमें इस जंगल का सामुदायिक वन अधिकार मिल चुका है। जिसमें स्पष्ट प्रावधान है कि वन संसाधन समुदाय के हैं,और उन्हें वे ले सकते हैं। जैसे ईंधन, कंद-मूल, मछली इत्यादि। लेकिन गांव की बैठक में हम चर्चा कर तय करते हैं कि कहां से कितने संसाधन लेने चाहिए। हम यह ध्यान रखते हैं कि जंगल में पेड़-पौधों की कौन सी दुर्लभ प्रजातियां हैं, जिससे उनका अत्यधिक दोहन रोका जा सके।
सोयलायार गांव की बुजुर्ग चंद्रिका जंगल की कई जड़ी-बूटियों की पहचान व उपयोग बताती हैं। वे कई तरह के कंद, फल, फूल व पत्तियां एकत्र करती हैं, जो उनकी खाद्य सुरक्षा होती है। वाजाचल के रमन व जयन सुबह जाते हैं और कंद खोदकर लाते हैं, जो उनके पूरे परिवार की एक सप्ताह की भोजन की जरूरतों को पूरा कर देते हैं। 
कुल मिलाकर, यह पूरी पहल से पर्यावरण संरक्षण के साथ आजीविका की रक्षा हो रही है। महिलाएं आत्मनिर्भर बन रही हैं और उनका सशक्तीकरण हो रहा है। आदिवासियों की जंगल की विरासत और उनके परंपरागत ज्ञान को सहेजा जा रहा है। मौखिक ज्ञान जो कहानियों व गीतों में मौजूद है, उसे आगे बढ़ाया जा रहा है। इससे यह भी पता चलता है अगर आदिवासियों को प्राकृतिक संसाधन के संरक्षण व प्रबंधन का मौका मिले तो वह इसमें सक्षम हैं। यह पूरी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।