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कृषि | पर्यावरण रक्षक खेती है बारहनाजा - बाबा मायाराम
पर्यावरण रक्षक खेती है बारहनाजा  - बाबा मायाराम

पर्यावरण रक्षक खेती है बारहनाजा - बाबा मायाराम

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published Published on Feb 18, 2021   modified Modified on Mar 15, 2021

इन दिनों दिल्ली में किसान आंदोलन चल रहा है। खेती-किसानी की चर्चा चल रही है। इस समय तीन नए कृषि कानून व न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा खेती के व्यापक पहलुओं पर भी बात करना भी जरूरी है। मिट्टी- पानी, जैव विविधता व पर्यावरण रक्षक खेती की चर्चा भी जरूरी है। इनमें से एक है उत्तराखंड की पारंपरिक कृषि पद्धति है, जो मिट्टी-पानी व जैव विविधता का संरक्षण करते हुए खाद्य सुरक्षा के लिए भी उपयोगी है।

उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल के जड़धार गांव के एक किसान हैं विजय जड़धारी, जो एक जमाने में चिपको आंदोलन के कार्यकर्ता रह चुके है। उन्होंने 80 के दशक में देसी बीज बचाने के लिए बीज बचाओ आंदोलन शुरूआत की थी।  जो पारंपरिक देसी बीज, हरित क्रांति के संकर बीज आऩे के बाद लुप्त हो रहे थे, उन्हें न केवल दूर-दूर गांवों में जाकर में तलाश किया, संग्रहीत किया, बल्कि खुद खेतों में उगाया, उनकी खेती की।

बारहनाजा का शाब्दिक अर्थ बारह अनाज है,पर इसके अंतर्गत बारह अनाज ही नहीं, बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा शामिल हैं। इसमें 20-22 प्रकार के अनाज होते हैं। इन अनाजों में कोदा (मंडुवा), मारसा ( रामदाना), ओगल ( कुट्टू), जोन्याला ( ज्वार), मक्का, राजमा, गहथ ( कुलथ), भट्ट ( पारंपरिक सोयाबीन), रैयास ( नौरंगी), उड़द, सुंटा, रगड़वांस, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, सण ( सन), काखड़ी इत्यादि।

विजय जड़धारी बताते हैं कि मंडुवा बारहनाजा परिवार का मुखिया कहलाता है। असिंचित व कम पानी में यह अच्छा होता है। पहले मडुंवा की रोटी ही लोग खाते थे, जब गेहूं नहीं था। पोषण की दृष्टि से यह भी बहुत पौष्टिक है।

जड़धारी जी बताते हैं कि शुरूआत में हमें देसी बीज ढूंढ़ने में दिक्कतें आईँ। दूर-दूर के गांवों में जाकर देसी बीज एकत्र किए। चूंकि खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं, इसलिए उन्हें इस काम से जोड़ा। इस पूरे आंदोलन में महिलाओं को प्राथमिकता दी।

वे आगे बताते हैं कि बारहनाजा मिश्रित फसल पद्धति है, जिसमें खरीफ की फसलें होती हैं। इस पद्धति में मिट्टी के साथ रिश्ता है। इस पद्धति में मिट्टी की सेवा भी होती है। मंडुवा, रामदाना, कुट्टू मिट्टी से ज्यादा ताकत लेते हैं। इसलिए दलहन की फसलें लगाई जाती हैं। यह मिट्टी को उपजाऊ बनाने का काम करती हैं। दालों से नत्रजन मिलता है। यह सब किसानों ने अपने अनुभव से सीखा है।

इसकी फसलें अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे की सहायक हैं। रामदाना, मंडुवा, ज्वार ऊपर की तरफ ऊंची बढ़ती हैं। बेलवाली दालें उससे लिपट जाती हैं। एक दूसरे को सहारा देती हैं। नियंत्रित करती हैं और उन्हें बढ़ाने में सहायक होती हैं।

जड़धारी बताते हैं कि बारहनाजा की फसलें मई-जून में बोई जाती हैं और सितंबर-अक्टूबर में उनकी कटाई हो जाती है। इससे समय समय पर लोगों को काम भी मिलता है। 4 महीने खेत खाली रहते हैं। यानी इस बीच खेतों की छुट्टी होती है, इससे खरपतवार का नियंत्रण होती है, मिट्टी फिर से उपजाऊ बनती है, यह जांचा परखा तरीका है।

वे कहते हैं अब हमारे भोजन से विविधता गायब है। चावल और गेहूं में ही भोजन सिमट गया है। जबकि पहले बहुत अनाज होते थे। उन्होंने कहा भोजन पकाने के लिए चूल्हा कैसा होना चाहिए, पकाने के बर्तन कैसे होने चाहिए, यह भी गांववाले तय करते हैं। उन्होंने पूछा क्या किसी कांदा ( कंद) को गैस चूल्हे में भूना जा सकता है।

यह खेती लगभग बिना लागतवाली है। बीज खुद किसानों का होता है, जिसे वे घर के बिजुड़े ( पारंपरिक भंडार) से ले लेते हैं। पशुओं व फसलों के अवशेष से जैविक खाद मिल जाती है, जिसे वे अपने खेतों में डाल देते हैं। परिवार के सदस्यों की मेहनत से फसलों की बुआई, निंदाई-गुड़ाई, देखरेख व कटाई सब हो जाती है। इसके अलावा, निंदाई-गुड़ाई के लिए कुदाल, दरांती, गैंती, फावड़ा आदि की लकड़ी भी पास के जंगल से मिल जाती है। गांव के लोग ही खेती के औजार बनाते हैं। जड़धारी जी कहते हैं कि हमारी खेती समावेशी खेती है। उससे मनुष्य का भोजन भी मिलता है और पशुओं का भी। वे पालतू पशुओं को पशुधन कहते हैं। यह किसानी की रीढ़ है। लम्बे ठंडल वाली फसलों से जो भूसा तैयार होता था, उसे पशुओं को खिलाया जाता था। जंगल में भी चारा बहुतायत में मिलता था। पशुओं के गोबर व मूत्र से जैव खाद तैयार होती थी जिससे जमीन उपजाऊ बनी रहती थी।

बारहनाजा के बीज सभी किसान रखते हैं। खाज खाणु अर बीज धरनु ( खाने वाला अनाज खाओ किन्तु बीज जरूर रखो)। बिना बीज के अगली फसल नहीं होगी। बीजों को सुरक्षित रखने के लिए तोमड़ी ( लौकी की तरह ही) का इस्तेमाल किया जाता था।

जलवायु परिवर्तन हो रहा है, यह असलियत है। लेकिन बारहनाजा में इसका मुकाबला करने की क्षमता है, ऐसा अनुभव रहा है। जैसे अगर ज्यादा बारिश होती है, सूखा होता है या जंगली जानवर का आक्रमण होता है तो अगर कुछ फसलों का नुकसान होता है लेकिन उसकी पूर्ति दूसरी फसलें हो जाती है।

उन्होंने बताया कि जंगली भालू मंडुवा को बहुत पसंद करता है और खाता है पर दूसरी फसलों को नहीं खाता। इसी प्रकार, बंदर चौलाई को नहीं छेड़ते यानी नहीं खाते। बारहनाजा जैसी मिश्रित पद्धतियों का फायदा यह है कि किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में किसान को कुछ न कुछ मिल जाता है। जबकि एकल फसलों में पूरी की पूरी फसल का नुकसान हो जाता है, और किसान के हाथ कुछ नहीं लगता है।

टिहरी गढ़वाल जिले के दोनी गांव के अवतार नेगी नवप्रभात नेगी बताते हैं कि बारहनाजा की फसलों की एक समस्या बाजार की है। इसके लिए उनकी संस्था ने महिलाओं की एक सहकारिता समिति बनाई है जो प्रोसेसिंग करके कुछ उत्पाद बनाते हैं और बेचते हैं। उमंग स्वायत्त सहकारिता समिति से 5 सौ से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हैं। इस सहकारी समिति के माध्यम से मंडुवा के बिस्किट बनाए जाते हैं। चौलाई के लड्डू और आंवला का अचार, जूस आदि की बिक्री की जाती है। स्थानीय बाजार के साथ देहरादून, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा भी इन्हें बेचा जाता है, जिससे कुछ हद तक बाजार की समस्या हल हुई है।

जड़धार गांव के उत्तमसिंह नेगी बताते हैं कि बारहनाजा खेती की पद्धति ही नहीं, एक जीवन पद्धति है। यह पर्वतीय क्षेत्र के लिए उपयुक्त पद्धति है। क्योंकि यहां पहाड़ी छोटे छोटे खेत हैं। ज्यादातर खेतों का काम खुद हाथ से करना होता है। हम खेती में एक दूसरे की मदद भी करते हैं। मोहल्ले की लोग बारी बारी से एक दूसरे के खेतों में काम करते हैं,जिससे सबका काम हो जाए और ज्यादा बोझ भी किसी एक पर न पड़े।

बारहनाजा की खेती का लागत व खर्च के हिसाब के बारे में माउंटवेली डेवलपमेंट एसोसिएशन नामक संस्था के नवप्रभात ने बताया कि इस पद्धति में खर्च बहुत ही कम है। उत्पादन से लोगों को साल भर भोजन मिलता है और वे अतिरिक्त अनाज बेच लेते हैं।

विजय जड़धारी, जिन्होंने बारहनाजा पद्धति को फिर से लोकप्रिय बनाया, कहते हैं कि अब किसानों को बारहनाजा की फसलों से अच्छी आमदनी भी हो रही है। डाक्टर कई बीमारियों के लिए मंडुवा व सांवा खाने की सलाह देते हैं। इससे इनके दाम बाजार से ज्यादा भी मिलते हैं। रामदाना तो सबसे अच्छा पहाड़ का ही होता है, इस कारण बाजार में इसके अच्छे दाम मिलते हैं। उत्तराखंड सरकार ने पौष्टिक अनाजों को खरीदने के लिए खरीद केन्द्र बनाएं हैं। मूल्य निर्धारण भी किया है, और उनकी खरीदी की जा रही है। बल्कि इन पर बोनस भी दिया जा रहा है।

वरिष्ठ पत्रकार भारत डोगरा, पर्यावरणविद् बारहनाजा को बहुत उपयुक्त बताया है। भारत डोगरा ने हेंवलघाटी के संघर्ष नामक किताब में लिखा है कि परंपरागत बीज बचाने का यह प्रयास बहुत सफल माना जाएगा क्योंकि थोड़े से साधनविहीन आंदोलनकारियों ने ही एक तेजी से लुप्प हो रही अमूल्य संपदा को बचाने की ओर उत्तराखंड स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है।

यानी बारहनाजा की फसलों से प्रकृति को बिना नुकसान पहुचाएं पैदावार बढ़ाई जा सकती है, जो पर्यावरण व मित्र जीवों की रक्षा की जा सकती है, पशुपालन व कृषि का समन्वय किया जा सकता है, इसमें खेती का खर्च न्यूनतम है। इसके साथ पर्यावरण रक्षा करते हुए उत्पादन वृद्धि को टिकाऊ रूप दिया जाता है। गांवों में स्थाई, टिकाऊ खेती से आजीविका व भोजन सुरक्षा की जा सकती है। साथ ही दीर्घकालीन दृष्टि रखकर मिट्टी, पानी का संरक्षण भी किया जा सकता है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बारहनाजा जैसी पद्धतियां सूखा में भी उपयोगी हैं और उसमें खाद्य सुरक्षा भी संभव है। बारहनाजा जैसी कई और मिश्रित पद्धतियां हैं, जो अलग-अलग जगह अलग-अलग नाम से प्रचलित है। ये सभी स्थानीय हवा,पानी, मिट्टी और जलवायु के अनुकूल हैं। ऐसी स्वावलंबी पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है।

 

फोटो क्रेडिट- बिपिन जड़धारी
 


बाबा मायाराम


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