Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
खेतिहर संकट | पलायन (माइग्रेशन)
पलायन (माइग्रेशन)

पलायन (माइग्रेशन)

Share this article Share this article

What's Inside

खास बात

किसी प्रांत से उसी प्रांत में और किसी एक प्रांत से दूसरे प्रांत में पलायन करने वालों की संख्या पिछले एक दशक में ९ करोड़ ८० लाख तक जा पहुंची है। इसमें ६ करोड़ १० लाख लोगों ने ग्रामीण से ग्रामीण इलाकों में और ३ करोड़ ६० लाख लोगों ने गावों से शहरों की ओर पलायन किया। #

पिछले एक दशक को आधार मानकर अगर इस बात की गणना करें कि किसी वासस्थान को छोड़कर कितने लोग दूसरी जगह रहने गए और कितने लोग उस वासस्थान में रहने के लिए आये तो महाराष्ट्र इस लिहाज से सबसे आगे दिखेगा। महाराष्ट्र में आने वालों की तादाद महाराष्ट्र से जाने वालों की तादाद से २० लाख ३० हजार ज्यादा है। इसके बाद आता है दिल्ली (१० लाख ७० हजार), गुजरात(.६८ लाख) और हरियाणा(.६७ लाख) का नंबर।#

उत्तरप्रदेश से जाने वालों की तादाद वहां आने वालों की तादाद से २० लाख ६० हजार ज्यादा है और बिहार से जाने वाली की तादाद बिहार आने वालों की तादाद से १० लाख ७० हजार ज्यादा है।#

भारत में साल १९९१ से २००१ के बीच ७ करोड़ ३० लाख ग्रामीणों ने पलायन किया। इसमें ५ करोड़ ३० लाख एख गांव छोड़कर दूसरे गांव में रहने के लिए गए और लगभग २ करोड़ लोग शहरी इलाकों में गए। शहरों की तरफ जाने वालों में ज्यादातर काम की तलाश करने वाले थे।*

अगर पिछले निवास-स्थान को आधार माने तो साल १९९१ से २००१ के बीच ३० करोड़ ९० हजार

लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा जो देश की जनसंख्या का ३० फीसदी है।*

तीन दशकों(१९७१-२००१) के बीच शहरों से शहरों की तरफ पलायन में १३.फीसदी से बढञकर १४.फीसदी हो गया है। *

साल १९९१ से २००१ के बीच एक गांव से दूसरे गांव में पलायन करने वालों की संख्या कुल पलायन का ५४.फीसदी है।*

भारत में आप्रवासी मजदूरों की कुल संख्या साल १९९९-२००० में १० करोड़ २७ हजार थी। मौसमी पलायन करने वालों की संख्या २ करोड़ से ज्यादा हो सकती है। **

# भारत सरकार की जनगणना, http://censusindia.gov.in/Census_And_You/migrations.aspx

* मैनेजिंग द एक्जोडस-ग्राऊंडिंग माइग्रेशन इन इंडिया-अमेरिकन इंडिया फाऊंडेशन द्वारा प्रस्तुत

** ११ वीं पंचवर्षीय योजना, भारत सरकार

एक नजर

जब ठट्ट के ठट्ट लोग पलायन कर रहे हों तो उसकी गिनती का हिसाब रख बड़ा मुश्किल हो जाता है। हालत ये है कि भारत सरकार के जणगणना से संबंधित आंकड़े भी पलायन की ठीक-ठीक तस्वीर बयान नहीं कर पाते। कोई सरकारी एजेंसी इधर खेतिहर संकट या फिर मौसमी पलायन को पहचानने और दर्ज करने के लिए कागज-कलम संभाल रही होती है उधर लोग रोपाई-बुआई का समय जानकर या तो दोबारा अपनी जगह पर लौट आ चुके होते हैं या फिर कहीं और जाने की तैयारी में होते हैं। गन्ने की खेती या फिर ईंट भठ्टा उद्योग में रोजगार के लिए मजदूरों का सामूहिक पलायन अब एक सुनिश्चित बात है। अगर जीविका की संकट के दशा में कोई पलायन करता है या फिर मान लें कि मौसमी पलायन ही कर रहा है तो इसका असर पलायन करने वाले परिवार के बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है, परिवार के बालिग सदस्य चुनाव के वक्त वोट डालने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर पाते और जन्मस्थान पर हों या फिर उस जगह पर जहां रोजगार के लिए जाना पडा हो, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को जो सुविधाएं मिली हैं वह भी हासिल करने से ऐसे परिवार वंचित रहते हैं।

पलायन मौसमी तर्ज पर हो या फिर जीविका की संकट की स्थिति में सबसे गहरी चोट दलितों और आदिवासीयों पर पड़ती है जो गरीबों के बीच सबसे गरीब की श्रेणी में आते हैं और जिनके पास भौतिक या मानवीय संसाधन नाममात्र को होते हैं। यह बात खास तौर से आंध्रप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, और महाराष्ट्र के सर्वाधिक पिछड़े और सिंचाई के लिए मुख्यतः वर्षा पर आधारित जिलों पर लागू होती है। पलायन के सूरते हाल में महिला का खेतिहर मजदूर के रुप में और पुरुषों का असंगठित क्षेत्र में रोजदारी का कोई काम खोजना एक आम बात है।

अगर पलायन जीविका के परंपरागत स्रोत पर संकट आने के कारण हो रहा है तो इससे असंगठित क्षेत्र में उद्योगों के पनपने को बढ़ावा मिलता है और शहरों में बड़ी बेतरतीबी से झुग्गीबस्तियों का विस्तार होता है। छोटी और असंगठित क्षेत्र में पनपी फैक्ट्रियों के मालिक पलायन करके आये मजदूरों से खास लगाव रखते हैं क्योंकि एक तो ऐसे मजदूर कम मेहनताने पर काम करने को तैयार रहते हैं दूसरे छोटी-मोटी बातों को आधार बनाकर इनके काम से गैर हाजिर रहने की भी संभावना कम होती है। ऐसे मजदूर ठेकेदार के कहने में होते हैं और स्थानीय मजदूरों की तुलना में मोलभाव करने की इनकी ताकत भी कम होती है। मजदूरों की यह कमजोरी और कम मेहनताना भले ही कुछ समय के लिए उद्योगों के फायदे में हो लेकिन आगे चलकर देश की बढ़ोतरी की कथा में ऐसे मजदूरों की भागीदारी नहीं हो पाती क्योंकि उनके पास खरीदने की तकात कम होती है और इसलिए उपभोग की ताकत भी जबकि बाजार बढ़ते हुए उपभोग से ही बढता है। इसी कारण अकसर यह तर्क दिया जाता है कि गांवों से शहरों की तरफ पलायन तभी समृद्धि की राह खोल सकता है जब मजदूरों के लिए ज्यादा मेहनताना पाने का आकर्षण हो और दूसरी तरफ गांवों से खदेड़ने वाली गरीबी हो।   

साल 1991 से 2001 के बीच 7 करोड़ 30 लाख ग्रामीण अपने मूल वास स्थान से कहीं और जाने के लिए विवश हुए। इसमें से अधिकतर(5 करोड़ 30 लाख) किसी अन्य गांव में गए जबकि एक तिहाई से भी कम यानी 2 करोड़ शहरों में पहुंचे। शहरों में पहुंचने वाले ज्यादातर रोजगार की तलाश में आये।मौसमी तौर पर पलायन करने वालों की संख्या लगभग 2 करोड़ है लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि वास्तविक संख्या आधिकारिक आंकड़े से 10 गुना ज्यादा हो सकती है।



Rural Expert
 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close