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चर्चा में.... | क्या एम.एस.पी की मांग सिर्फ एक चुनावी नाटक है ?
क्या एम.एस.पी की मांग सिर्फ एक चुनावी नाटक है ?

क्या एम.एस.पी की मांग सिर्फ एक चुनावी नाटक है ?

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published Published on Feb 27, 2024   modified Modified on Feb 29, 2024

वर्ष 2020 में केंद्र सरकार ने किसानों से जुड़े मसलों पर तीन कानून बनाएँ। जिसका किसानों ने भारी विरोध किया। दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाला। करीब 13 महीनों की रस्सा-कशी के बाद समाधान का रास्ता निकला। केंद्र सरकार ने तीनों कानूनों को निरस्त कर दिया। किसानों ने धरना/आन्दोलन ख़त्म कर दिया। किसान अपने-अपने घरों की ओर लौट गए। करीब दो वर्ष बाद, एक बार फिर किसान दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं। किसानों की प्रमुख मांग यह है कि एम.एस.पी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को क़ानूनी रूप दिया जाएँ।
जहाँ एक ओर किसान एम.एस.पी के लिए हुंकार भर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ कई लोग इसका विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों में सरकार के कई नुमाइंदे और कुछ कृषि विशेषज्ञ भी शामिल हैं। विरोध करने वालों का पक्ष है कि क़ानूनी गारंटी देना अर्थव्यवस्था के नज़रिए से नुकसानदायी सौदा साबित होगा, सरकारी खजाने के ऊपर अधिक बोझ पड़ेगा। तो वहीं आंदोलनरत किसानों का कहना है कि उन्हें बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ा जाएँ। इस लेख में एम.एस.पी से जुड़े विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश की है-


एम.एस.पी लाने के पीछे सरकार का मंसूबा क्या था ?


क्या आप जानते हैं एम.एस.पी का प्रावधान उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए लाया गया था। आज भी भारत में कृषि नीतियाँ उपभोक्ताओं को ध्यान में रखते हुए बनाई जाती हैं। इस बात को कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी भी अपने लेख में रेखांकित करते हैं। वर्तमान में एम.एस.पी को किसानों के ऊपर किए गए उपकार के तौर पर पेश किया जा रहा है। और साथ में यह भी बताया जाता है कि एम.एस.पी के कारण भारत सरकार के खजाने पर कितना बोझ पड़ रहा है। लेकिन, वास्तविकता कुछ और है।

एम.एस.पी की नींव कैसे पड़ी ? इस सवाल का उत्तर जानने के लिए आज़ादी के बाद की परिस्थतियों को समझना होगा। करीब 200 वर्षों की गुलामी से जब हिंदुस्तान आज़ाद हुआ तब आज़ादी के साथ-साथ विभाजन को भी झेलना पड़ा। इस विभाजन के कारण करोड़ों लोग पलायन का शिकार हुए। इनके पास खाने को अन्न नहीं था। देश में अनाजों की कुल उपज मांग को पूरा नहीं कर पा रही थी। ऐसे में भारत सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी देशवासियों की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करना।

आज़ादी के बाद देश की जनसंख्या भी तेजी से बढ़ रही थी। लेकिन अनाजों की उपज उस गति से नहीं बढ़ रही थी। अनाजों की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने हरित क्रांति की तरफ कदम बढ़ाने शुरू किए। इस हरित क्रांति में सरकार गेहूँ और चावल की खास किस्मों को बढ़ावा देना चाहती थी। (क्योंकि अन्य फसलों की तुलना इनकी उत्पादकत अधिक थी।) इसके लिए किसानों को विश्वास में लेना जरूरी था ताकि वो चावल और गेहूँ के इन बीजों की खेती करें। यानी किसानों को विश्वास में लेने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का विचार सामने आया।


एक और पहलु है जिस पर ध्यान देना उतना ही जरूरी है। आज़ादी के बाद, कुछ वर्षों में, कुछेक राज्य उत्पादन अधिशेष की अवस्था में आ गये थे। यानी मांग की तुलना में आपूर्ति अधिक। जिसका फायदा व्यापारी वर्ग उठाने लगा। अधिशेष की स्थिति वाले राज्यों से सस्ते दामों में अनाज खरीदकर, कमी वाले राज्यों में ऊँचे दाम पर बेचने लगा। परिणामस्वरूप बाज़ार में सट्टेबाजी और निजी व्यापारियों की मनमानी बढ़ गई। सरकार ने इस पर लगाम लगाने के लिए किसानों की उपज का उच्चतम और निम्नतम मूल्य तय करने का प्रस्ताव लाया।


गौरतलब है कि आज़ादी से पहले की सरकार (औपनिवेशिक सरकार) ने अधिकतम क़ीमतों का प्रावधान कर दिया था। यह नीति आज़ादी के बाद भी यथावत लागू रही थी। 
किसानों की उपज का मूल्य (उच्चतम और निम्नतम) तय करने के लिए सरकार ने सन् 1964 में लक्ष्मीकांत झा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसी समिति ने अपनी रिपोर्ट में न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश की।

 

 

सीमित फसलों के लिए ही न्यूनतम समर्थन मूल्य, ऐसा क्यों ?
लेख के ऊपर हिस्से में हमने समझा कि सरकार के द्वारा एम.एस.पी लाने के पीछे का मंतव्य क्या था। संक्षिप्त में कहें तो उपभोक्ताओं के लिए खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करना। 
कुछ समय बीत जाने के बाद, न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिये की जाने वाली खरीददारी सार्वजानिक वितरण प्रणाली का पर्याय बन गई। यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर सरकार केवल उन्हीं फसलों की खरीददारी करने लगी जिसे राशन की दुकानों पर जनता को देना था-- चावल और गेहूँ।

 
गौरतलब है कि सन् 1964 में लक्ष्मीकांत झा समिति का गठन भी चावल और गेहूँ के दामों को तय करने के लिए किया था। (हालाँकि, बाद में इस समिति को पोषक (मोटे) अनाजों की कीमतें निर्धारित करने का काम भी सौंपा था।


जब झा समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो उसमें यह उल्लेख किया था कि कृषि मूल्य आयोग अग्रलिखित फसलों की कीमतों के बारें में सरकार को सलाह दें- चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का, दालें, गन्ना, तिलहन, कपास और जूट। यानी 1965 के बाद प्रत्येक वर्ष चावल और गेहूँ के साथ-साथ पोषक अनाजों के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश की जाती रही है। समय के साथ कई और फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषण की जाने लगी। वर्तमान में सरकार 22+1 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा करती है। लेकिन, सरकार चावल और गेहूँ को छोड़कर अन्य फसलों की खरीददारी बड़े पैमाने पर नहीं करती है। (क्योंकि बाध्यकारी नहीं है।)

उदाहरण के लिए वर्ष 2020 के आँकड़ों को देखते हैं। वर्ष 2019-20 में चावल का उत्पादन 1184.30 लाख मेट्रिक टन हुआ था, उसमें से सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर खरीददारी केवल 511.40 लाख मेट्रिक टन की ही की। ऐसे ही गेहूँ की कुल उपज 1075.90 लाख मेट्रिक टन की थी, जिसमें से सरकार ने केवल 390 लाख मेट्रिक टन ही ख़रीदा।
पोषक अनाजों की कुल उपज 453.90 लाख मेट्रिक टन थी, जिसमें से सरकार ने केवल चार लाख मेट्रिक टन ही ख़रीदा

स्रोत- यहाँ क्लिक करें.


आज जरूरत है एम.एस.पी की फ़ेहरिस्त में नई फसलों को शामिल करने की और गेहूँ-चावल से इतर अन्य फसलों को खरीदने की। ताकि किसान पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों (चावल और गेहूँ) को छोड़कर अन्य फसलों की खेतीबाड़ी कर सके। 
 

तस्वीर- स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट से.


एम.एस.पी कैसे तय की जाती है ?


लक्ष्मीकांत झा समिति की सिफारिश पर कृषि मूल्य आयोग का गठन किया था; जिसे आज कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के नाम से जाना जाता है। यह आयोग वर्ष में दो बार न्यूनतम समर्थन मूल्यों की सिफारिश करता है। जिस पर आर्थिक मामलों से जुड़ी कैबिनेट समिति निर्णय लेती है।
यह आयोग सिफारिश करते समय संदर्भ शर्तों (Terms of Reference) को मध्यनज़र रखता है। ताकि निर्णय लेते समय अर्थव्यवस्था के अन्य पहलुओं को भी ध्यान में रखा जा सके। समय के साथ-साथ संदर्भ शर्तों को संशोधित किया जाता रहा है। 

संदर्भ शर्तें

तस्वीर में- संदर्भ शर्तें, झा समिति रिपोर्ट में.

तस्वीर में- संदर्भ शर्तें.

एम.एस.पी ज्ञात करने के कई सूत्र हैं। जिनमें से एक है- A2+FL

A2+FL और C2


किसान जब खेती करता है तब उसे कई तरह का निवेश करना पड़ता है। निवेश की इन लागतों को ध्यान में रखकर एम.एस.पी तय की जाती है।
A1 लागत = किसान द्वारा वस्तु या मुद्रा के रूप में खर्च की लागत। इसे स्पष्ट लागत (Explicit Cost) भी कहते हैं।
जब A1 लागत के साथ किराये पर ली गई जमीन का किराया भी जोड़ दें तो वो A2 लागत कहलाती है।
जब के साथ परिवार के लोगों द्वारा किये गए श्रम की मजदुर भी जोड़ दें तो वो A2+FL लागत कहा जाता है।
गौरतलब है कि A2+FL लागत में किसान के द्वारा निवेश की गई राशि का ब्याज शामिल नहीं होता है और ना ही किसान की भूमि के लिए चुकाया जाने वाले लगान। जब इनको शामिल कर दिया जाता है तो उसे C2 लागतहा जाता है। 
वर्तमान में एम.एस.पी तय करने के लिए कृषि लागत एवं मूल्य आयोग A2+FL सूत्र का इस्तेमाल करता है। 
आज किसान C2 लागत पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की मांग कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर C2 लागत पर एम.एस.पी तय की जाती है, तो एम.एस.पी 25-30 प्रतिशत तक बढ़ जाएँगा। वहीं दूसरी तरफ कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि वर्तमान में जिस सूत्र पर एम.एस.पी तय की जा रही है वो C2 लागत की तुलना में अधिक है। लेकिन, वो कुछ ही राज्यों (जैसे पंजाब और मध्यप्रदेश) और कुछ ही फसलों (जैसे गेहूँ) तक सीमित है।


C2 लागत पर एम.एस.पी की मांग का विरोध करने वालों का कहना है कि लागत पर लागू करने से सरकारी खजाने पर भार बढ़ जाएँगा; सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ जाएँगा (एक अनुमान के अनुसार करीब 10 लाख करोड़ की जरूरत होगी।)


यह 10 लाख करोड़ का आँकड़ा कहाँ से आया ? सच्चाई क्या है ? 10 लाख करोड़ के इस आँकड़े के पीछे की गणित यह है कि 22+1 फसलों का जितना उत्पादन किया जाएँगा वो सब सरकार खरीदेगी। एम.एस.पी को क़ानूनी गारंटी देने का यह कतई मतलब नहीं है कि सारी उपज सरकार को ही खरीदनी होगी। सरकार सिर्फ तभी खरीदेगी जब बाजार में किसान की उपज का दाम लागत की तुलना में कम होगा। इससे किसान बाज़ार के जोखिम से मुक्त हो जाएँगा। यही बात योगेन्द्र यादव अपने लेख में लिखते हैं-

"जब भी बाजार में उपज का मूल्य एमएसपी से नीचे जाये तो सरकार तुरंत और कारगर ढंग से हस्तक्षेप करे. इसके लिए जरुरी होगा कि MARKFED और NAFED जैसी एजेंसियों के संचालन का दायरा बढ़ाया जाय और इसके लिए उन्हें ज्यादा धन दिया जाये, उनकी भंडारण और विपणन की क्षमता में विस्तार किया जाये. इन एजेंसियों को फसल का कुछ ही हिस्सा(10 से 20 प्रतिशत) खरीदना होगा. बस इतने भर से बाजार में किसान की फसल की कीमत बढ़ जायेगी. ऐसी योजना मौजूद तो है लेकिन इस योजना के मद में दी जाने वाली राशि में बहुत ज्यादा इजाफा करने की जरुरत है."

 कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा का कहना है कि यह राशि करीब 1.5 से 2 लाख  करोड़ के आस पास रहेगी। तो वहीं क्रिसिल नामक रिसर्च संस्थान के अनुमान में यह राशि 21,000 करोड़ रुपये के आस-पास ठहरती है।

 

किसानों को क़ानूनी गारंटी क्यों चाहिए ? 
कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी अपने लेख में लिखते हैं कि किसानों के इस आन्दोलन के पीछे की मूल वजह है अपनी आय में बढ़ोतरी करवाना। जैसा कि हर कोई चाहता है। इसकी मांग 2020 के आन्दोलन के समय जोरों-शोरों से उठने लगी। चूँकि 2020 में लाए गए तीन कृषि कानूनों में से एक कानून अनुबंधित कृषि से जुड़ा हुआ था। तब किसानों को यह लगा कि मंडी व्यवस्था ख़त्म हो जाएंगी और किसानों को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाएँगा। इसी आशंका का नतीजा है क़ानूनी गारंटी की मांगइस मांग को बाजार में मिल रहे कम दामों ने बढ़ावा दिया है। 

चालू सीजन में मक्के का एम.एस.पी 1,850 रुपये प्रति क्विंटल है, लेकिन पिछले तीन महीनों में किसानों को इसे 1100 रुपये से 1350 रुपये प्रति क्विंटल के बीच बेचना पड़ा। पोषक अनाज बाजरे की हालत देखिये। सबसे बड़ा उत्पादक राज्य राजस्थान है। यहाँ  जनवरी में इसकी औसत कीमत 1340 रुपये प्रति क्विंटल रही, जबकि आधिकारिक एम.एस.पी 2,150 रुपये है।


दूसरा कारण यह है कि वर्तमान में सरकार के लिए यह बाध्यकारी नहीं है कि वो 22 फसलों की उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदे। जिसके कारण किसानों को निजी व्यापारियों या यूँ कहें बाज़ार के भरोसे रहना पड़ता है।

पिछले काफ़ी समय से किसानों की आय में निरंतर गिरावट आ रही है। समाज में विभिन्न तबकों के बीच आर्थिक असमानता बढ़ रही है; ग्रामीण संकट बढ़ रहा है। यह भी एक प्रमुख कारण है।
  
कई लोग यह तर्क देते हैं कि एम.एस.पी गारंटी पर एक ऐसा कानून बनाया जा सकता है जिसमें निजी व्यापारी को न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीददारी करने की अनुमति ना हो। वर्ष 2011 में तत्कालीन गुजरात मुख्यमंत्री और वर्तमान देश के प्रधानमंत्री ने ऐसी ही सिफारिश अपनी एक रिपोर्ट में दी थी। लेकिन, कृषि विशेषज्ञ योगेन्द्र यादव का कहना है कि इसका किसानों पर उल्टा असर पड़ेगा। निजी व्यापारी किसानों से उपज खरीदना बंद कर देंगे।

भले ही चुनाव हो जाएँ, पर यह संकट इतनी आसानी से टलने वाला नहीं। ना ही किसानों की यह मांग। क्योंकि सरकार को अन्तर्राष्ट्रीय अनुबंधों की पालना करते हुए कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी कम करना होगा। और किसान बाज़ार के ऊपर निर्भर नहीं होना चाहते हैं। तब सवाल यह उठता है कि आगे कौनसा रास्ता अपनाया जाएँ। 

भारत सरकार द्वारा एम.एस.पी नीति की समीक्षा करने के लिए वर्ष 2013 में एक समिति का गठन किया था। जिसकी अध्यक्षता रमेश चंद कर रहे थे। वर्ष 2015 में सौंपी रिपोर्ट में कई सिफारिशें दीं। जिसमें क्षतिपूर्ति योजना को अपनाने की सिफारिश की थी। मध्यप्रदेश में चल रही भावान्तर योजना उसी का एक उदाहरण है। केंद्र सरकार के द्वारा भी पीएम आशा योजना के अंतर्गत एक योजना की शुरुआत की थी लेकिन सफल नहीं हुई। सरकार इस पर विचार कर सकती है। इसमें सरकार को खरीददारी नहीं करनी होगी।

       

संदर्भ--

Farmers protest in Delhi: Key players, why is it happening, demands, all the details, By Business Today Desk, Please click here.

Farmers’ protest: The financial cost of legalising MSP for Business Today by Pushan Sharma, Please Click here.
Can India actually afford MSP for farmers? It’s a question of political will By Yogendra Yadav and Kiran Vissa, Please Click here.
Farmers' protest: MSP guarantee to cost additional Rs 10 lakh cr, almost equal to infra spending by Business Today Desk, Please Click here.
Instead-of-msp-why-we-have-to-think-about-how-msp, By Rural Voice, Please Click here.

Ashok Gulati writes on farmers’ protest: Policies favour the consumer, not the producer Please Click here.
The jeera lesson: How Modi government can give farmer MSP, and fulfil its goals, by Harish Damodaran Please Click here.
History Headline | The ‘foreign hand’ behind MSP for crops, by Harish Damodaran Please Click here.
What Swaminathan panel said on MSP, where its ideas echoed scrapped farm laws,by Harikishan Sharma, Please Click here.
Explained: What are MSPs, and how are they decided? by Udit Misra, Please Click here.
CACP की वेबसाइट पर जाने के लिए Please Click here.
For agmarknet Please Click here. PRS के लिए यहाँ.
Can India actually afford MSP for farmers? It’s a question of political will  Please Click here.


मुख्य तस्वीर साभार गाँव सवेरा


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