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कृषि | खरपतवार के साथ प्राकृतिक खेती -बाबा मायाराम
खरपतवार के साथ प्राकृतिक खेती -बाबा मायाराम

खरपतवार के साथ प्राकृतिक खेती -बाबा मायाराम

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published Published on Mar 12, 2020   modified Modified on Mar 12, 2020


मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से कुछ ही दूरी पर है टाइटस फार्म। होशंगाबाद भोपाल सड़क मार्ग पर नर्मदा नदी के तट पर स्थित इस इलाके में प्राकृतिक खेती होती है जोकि जमीन की जुताई किए बगैर की जाती है। इस इलाके में फसल के अवशेषों को जलाने के बजाय उससे भूमि ढकाव करते हैं, जिससे खेत में नमी रहती है और जल संचय होता है। उसमें पनपने वाले केंचुए और कई सूक्ष्म जीवाणु मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं और जैविक खाद बनती है।

हाल ही में 4 मार्च को मधु टाइटस के फार्म पर मेरी यात्रा के दौरान मुझे यह देखने का मौका मिला। इसके पहले भी कई बार मैं इस फार्म पर गया हूं, लेकिन इस बार की यात्रा के दौरान मुझे पता चला कि प्राकृतिक खेती करने वाले राजू टाइटस का कुछ समय पहले ही निधन हो गया है। अब यह काम उनकी पत्नी शालिनी टाइटस, बेटी रानू व बेटे मधु टाइटस के साथ करती हैं। टाइटस परिवार प्राकृतिक खेती लगभग 35 सालों से निरंतर कर रहा है। 

टाइटस फार्म उन किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत है जो रासायनिक खेती से निजात पाना चाहते हैं और पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाते हुए प्राकृतिक खेती करना चाहते हैं। इस खेती की शुरूआत 70-80 के दशक में होशंगाबाद में ही फ्रेंडस रूरल सेंटर, रसूलिया से हुई थी। बाद में राजू टाइटस ने इसे उनके जीवन का मिशन बना लिया और अंतिम समय तक प्राकृतिक खेती करते रहे। अब उनके परिजन इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। 

इस फार्म को देखने के लिए दूर दूर से किसान आते हैं, यहां तक विदेशों से भी लोग आते हैं। प्राकृतिक खेती के सूत्रधार जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मोसानोबू फुकूओका स्वयं भी फार्म पर आ चुके हैं। वे वर्ष 1988 में टाइटस फार्म पर आए थे। उन्होंने राजू टाइटस की खेती को न केवल अच्छा बताया बल्कि कांस जैसे लंबी जड़ों वाले घास को खत्म करने के लिए उनकी सराहना की थी। क्योंकि उस समय कांस किसानों और खेती के लिए एक बड़ी समस्या बना हुआ था, और उसे समूल रूप से नष्ट करने की कोशिशें चल रही थीं।

राजू टाइटस ने यह खेती फुकूओका की किताब एक तिनके से आई क्रांति (वन स्ट्रा रिवोल्यूशन) से प्रभावित होकर ही शुरू की थी। फुकूओका ने खुद जापान में उनके खेत में प्राकृतिक खेती के प्रयोग किए थे, जो बाद में दुनिया भर में फैल गए।

इस समय किसान गेहूं या धान के खेतों को साफ करने के लिए नरवाई या पराली जला रहे हैं, प्रदूषण का और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। जबकि मासानोबू फुकूओका का मानना था कि प्राकृतिक खेती में ठंडल (नरवाई) या पुआल ही खेती का आधार है। हर एक तिनके को बचाना जरूरी है। उनकी लोकप्रिय किताब वन स्ट्रा रिवोल्यूशन (एक तिनके से आई क्रांति) का नाम भी इसी थ्योरी से निकला था, यानी फसलों के अवशेष से बनी जैविक खाद से फसलों का अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।  

प्राकृतिक खेती के सिद्धांत हैं-
1.    खेतों की जुताई न करना। अंग्रेजी में इसे नो टिलिंग कहते हैं यानी बिना जुताई की खेती।
2.    किसी भी तरह की तैयार खाद व रासायनिकों को इस्तेमाल न करना।
3.    निंदाई- गुड़ाई न करना। 
4.    और किसी भी तरह के रासायनिकों पर निर्भर नहीं रहना।

रानू और मधु टाइटस ने बताया कि खेत को पुआल से ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, कीड़े मकोड़े पैदा जाते हैं। ये सड़कर जैव खाद बनाते हैं। इसमें केंचुआ, सूक्ष्म जीवाणु होते हैं और वे जमीन को निस्वार्थ भाव से बखरते रहते हैं। जमीन को छिद्रित, पोला व पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं जिससे फसल अच्छी होती है। कुदरती खेती में जलस्तर बढ़ता है, क्योंकि धरती पानी सोखती है। यह खेती कीट प्रकोप से भी बचाती है क्योंकि भूमि ढकाव के नीचे अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग ही नहीं लगते। खरपतवारों और बीमारी के कीड़ों की समस्या भी खत्म हो जाती है। उत्पादन व गुणवत्ता में निरंतर सुधार होता है। 

प्राकृतिक खेती में जुताई, खाद और कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाता है। जंगलों की तरह पेड़ों, झाड़ियों और भूमि ढकाव की वनस्पतियों को बचाया जाता है। जिससे हरियाली बनी रहे। पेड़ों की जड़ों में जल संचय होता है। गहरी जड़ों वाले पेड़ पौधे बारिश के पानी को जमीन में ले जाते हैं और जब पानी की जरूरत होती है तब वे कुदरती तौर पर सिंचाई करते हैं। आदिवासी अंचलों में आदिवासी भी यही करते हैं। वे हजारों सालों से जंगल बचाते हैं और उनकी आजीविका भी बचाते हैं।

प्राकृतिक खेती की इस विधि के अनुसार बारिश में उगे खरपतवार को काटकर बिछा दिया जाता है। उससे पहले छिड़क विधि से ठंड की फसलों के बीज बिखेरे जाते हैं। कुछ दलहनी फसलों को मिट्टी की हल्की परत चढ़ा दी जाती है। गेहूं, सरसों, मसूर, चना इत्यादि की बुआई भी बिना जुताई के होती है। उसके ऊपर कटी हुई खरपतवार घास, पुआल इत्यादि को जालीदार बिछा दिया जाता है जिसमें कई तरह के सूक्ष्म जीवाणु व केंचुआ होते हैं जो जमीन को उपजाऊ बनाते हैं। 

टाइटस फार्म 13.5 एकड़ में फैला हुआ है, जिसमें 12 एकड़ में खेती की जाती है। इस 12 एकड़ जमीन में से 11 एकड़ में सुबबूल (आस्ट्रेलियन अगेसिया) का घना जंगल है, जोकि पशु चारे की एक प्रजाति है। इसे पशुओं के लिए चारा व ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती है। इतना ही नहीं, सुबबूल के पेड़ नाइट्रोजन की पूर्ति भी करते हैं। टाइटस परिवार इन लकड़ियों को सस्ते दामों में बेच देता है। टाइटस परिवार के मुताबिक वे हर साल करीब दो से ढाई लाख तक लकड़ियां बेचे लेते हैं। उनके पास बकरियां भी हैं जिन्हें सुबबूल का चारा खिलाया जाता है। मुनाफे के हिसाब से टाइटस परिवार बकरियों की भी खरीद-फरोत जारी रखता है। 

टाइटस परिवार सिर्फ एक एकड़ में खेती करता है, जिससे उनकी भोजन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। पिछले वर्ष प्रति एकड़ 12 क्विंटल गेहूं का उत्पादन हुआ था। इस वर्ष गेहूं के साथ सरसों लगाया गया है। इसके अलावा, टाइटस फार्म में आम, अमरूद, नींबू, बेर, सीताफल, इमली, कबीट, बेल, मुनगा के फलदार वृक्ष हैं। दो कुएं हैं, जिनमें भूजल का स्तर उथला है और पानी पर्याप्त है। घरेलू इस्तेमाल वाली सब्जियां भी खेतों में होती हैं- जैसे टमाटर, बैंगन, मैथी, मटर, गिलकी इत्यादि। 

इस खेती को ऋषि खेती भी कहते हैं। वैदिक काल में ऋषि मुनि धरती को माता के रूप में देखते थे। ऐसा माना जाता था कि जुताई मिट्टी को नुकसान पहुंचाएगी और वह रेत में बदल जाएगी यानी बंजर हो जाएगी। ऋषि सोचते थे कि मनुष्य के लिए उपयुक्त आहार फल, कंद-मूल और दूध है। इसे जंगली खेती या कुदरती खेती भी कहते हैं।

प्राकृतिक खेती एक जीवन पद्धति है, और यह प्रकृति के साथ सहभाग की खेती है। उसे बिना किसी तरह का नुकसान पहुंचाए खेती की जाती है। जलवायु परिवर्तन के भीषण दौर में यह और भी प्रासंगिक हो गई है। जब मौसम की, बारिश की अनिश्चितता है, अगर यह खेती देसी बीजों के साथ की जाए तो काफी उपयोगी होगी। क्योंकि देसी बीजों में प्रतिकूल मौसम में भी फसल तैयार करने की क्षमता होती है। इतना ही नहीं, मशीनों के उपयोग से प्रदूषण का खतरा भी है, लेकिन यह खेती पूरी तरह प्राकृतिक है। टाइटस फार्म के इस प्रयोग से नरवाई या ठंडल जलाने से जो प्रदूषण व गर्म वातावरण होता है, उससे निजात भी मिलती है और ठंडलों व पुआल से अच्छी जैविक खाद बनती है सो अलग। कुल मिलाकर, यह खेती मिट्टी और पानी के संरक्षण के साथ जैविक विविधता और पर्यावरण का संरक्षण भी करती है। 

   
 


बाबा मायाराम


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