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कृषि | छत्तीसगढ़ की परंपरागत उतेरा खेती -बाबा मायाराम
छत्तीसगढ़ की परंपरागत उतेरा खेती -बाबा मायाराम

छत्तीसगढ़ की परंपरागत उतेरा खेती -बाबा मायाराम

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published Published on Mar 11, 2020   modified Modified on Mar 11, 2020

छत्तीसगढ़ के कोटा विकासखंड का गांव सेमरिया। इस गांव के किसान फेंकूराम गंधर्व और संतोषी बाई ने उतेरा खेती विधि से फसल उगाई है। अभी उनके खेत में बटरी की फसल लहलहा रही है।

फेंकूराम और संतोषी की तरह ही दानोखार, फुलवारीपारा, करहीकछार, सेमरिया के किसान भी फसल उगाने के लिए उतेरा खेती विधि का प्रयोग करते हैं. उतेरा खेती विधि में एक फसल कटने से पहले दूसरी फसल को बोया जाता है। यानी दूसरी फसलों की बुआई पहली फसल कटने के पहले ही कर दी जाती है, जिसके चलते पहली फसल के ठंडल खेत में जैविक खाद में तब्दील हो जाते हैं और फसल के अवशेष प्राकृतिक या जैविक खाद का कार्य करते हैं. खेती करने की इस विधि से छत्तीसगढ़ के कई गांव में फसलें उगाई जाती हैं।

धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल होने के कारण इस राज्य को धान का कटोरा कहा जाता है। धान की फसल की बिजाई करने के बाद जब यह बड़ी हो जाती है और इसमें धान की बालियां फूटने लगती हैं और लगभग 50 प्रतिशत बालियां आ जाती हैं, तब इसमें दूसरी फसलों की बिजाई कर दी जाती है। ऐसा अक्टूबर के आखिरी दिनों में या नवंबर के पहले हफ्ते में किया जाता है।

किसान बताते हैं कि बारिश या सिचांई की नमी में धान की फसल के बीच तिवड़ा (खेसारी दाल), बटरी, अलसी, उड़द, सरसों व चने के बीज छिड़क दिए जाते हैं। ऐसा करते वक्त सावधानी रखनी होती है कि खेत का पानी सूख जाए तभी बीजों का छिड़काव किया जाता है। इन फसलों को अलग-अलग नमी के हिसाब से छिड़कते हैं, या बोते हैं, एक साथ नहीं। सही देखरेख, सही समयावधि के भीतर बीजों के छिड़काव के बाद बीज धीरे- धीरे अंकुरित होने लगते हैं।

जब धान पककर तैयार हो जाता है तो बड़ी सावधानी से इसकी कटाई की जाती है, जिससे नई अंकुरित फसल को नुकसान न पहुंचे। किसान बताते हैं कि खेत में धान के डंठलों के बीच से तिवड़ा उग जाता है, जिसके बड़े होने में धान की ठंडलों से भी मदद मिलती है। 
दूसरी फसलें मार्च के आसपास तैयार हो जाती हैं और फिर काट ली जाती हैं। यानी बारिश की नमी में ही दूसरी फसलें भी पक जाती हैं। यह छत्तीसगढ़ के किसानों का परंपरागत जाना माना तरीका है। जिसमें बारिश की नमी का सही उपयोग होता है और दो फसलें भी मिल जाती हैं।

इसी प्रकार, यहां किसान खेतों की मेड़ पर भी अरहर, तिली, गजा मूंग, अमाड़ी, भिंडी, बरबटी, झुनगा (बरबटी की तरह), चुटचुटिया (ग्वारफली) आदि लगाते हैं। यानी खेत में धान, उतेरा में तिवड़ा, अलसी, बटरी, सरसों, उड़द, चना आदि लगाते हैं और मेड़ पर भी अरहर, तिली, हरी सब्जियां लगाते हैं।

एक खेत में धान यानी चावल, दलहन व तिलहन सब कुछ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के खान-पान की संस्कृति, तीज-त्यौहार खेती से जुड़े हुए हैं। यहां का प्रमुख भोजन चावल है, यानी भात, दाल और सब्जियां। सब कुछ किसान खेतों में उगा लेते हैं। अतिरिक्त फसलें होने से आर्थिक लाभ भी होता है। भोजन में भी पोषण मिलता है। यह मिश्रित फसलों का परंपरागत तरीका है। 

पशुपालन भी इससे जुड़ा है। धान का पैरा या पराली (ठंडल) मवेशियों को चराने के काम आता है। बैल खेतों में जुताई करते थे। यह सब एक दूसरे से जुड़ा है। फसलों की कटाई हाथ से हंसिए से की जाती है। ठंडल बहुत छोटे होते हैं और उन्हें जलाने की जरूरत नहीं पड़ती। और जो गाय-बैल का गोबर होता है, उसे खेतों में डालते हैं जिससे मिट्टी उपजाऊ बनती है। यह मवेशियों व मनुष्य में आपसी समझौता होता है। पशुओं को खेतों से चारा मिलेगा और वे खेतों को गोबर खाद देंगे। 

परंपरागत खेती में आत्मनिर्भरता होती है। किसानों का खुद का देसी बीज, गोबर खाद और खुद हाथ की मेहनत होती है। और इसमें पीढ़ियों के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग होता है। यह स्वावलंबी होती है। जबकि रासायनिक आधुनिक खेती में बीज, खाद और कीटनाशक सभी कुछ बाजार से खरीदा जाता है। इसमें किसान की लागत बढ़ती है, किसान परावलंबी होता है। 

लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें कमी आई है। अब बैलों की जगह ट्रैक्टर से जुताई व फसलों की कटाई हारवेस्टर से होने लगी है। इसमें ठंडल बड़े होते हैं और इसे दूसरी फसल बोने के लिए किसान ठंडलों को जलाते हैं। इससे प्रदूषण होगा और गरमी की धान की फसल बोने से भूजल में कमी आएगी।

कुल मिलाकर, उतेरा विधि से बोई जाने वाली फसल बहुत ही उपयोगी है। इससे किसानों को धान के साथ दलहन, तिलहन और अतिरिक्त उपज मिल जाती है। बारिश की नमी का उपयोग भी हो जाता है। दलहन व फली वाली फसलों से खेतों को नाइट्रोजन भी मिलती है। भोजन के लिए चावल, दाल और सब्जियां मिल जाती हैं, जो छत्तीसगढ़ की खान-पान की संस्कृति भी है। इस विधि से खेती करने से मिट्टी और पानी को नुकसान नहीं पहुंचता और जैव-विविधता व पर्यावरण का संरक्षण भी इससे होता है। इतना ही नहीं, इस विधि से खेती करने से फसलों के ठंडल व पुआल जलाने की जरूरत नहीं पड़ती।


बाबा मायाराम
 

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