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Rural Focus | क्या हरित क्रांति भारत के गरीबों की अनदेखी पर टिकी है

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क्या हरित क्रांति भारत के गरीबों की अनदेखी पर टिकी है

हरित क्रांति बनाम बनाम मॉनसून आधारित खेती

खास बात- दिन बीतने के साथ हिन्दुस्तान के लिए कभी लगभग वरदान मान ली गई हरित क्रांति कठोर आलोचनों के घेरे में आई है। विकासपरक मुद्दों के कई चिन्तक मानते हैं कि जिन किसानों की खेत पहले से ही सिंचाई सुविधा संपन्न थे, हरित क्रांति के जरिए उन किसानों को लाभ पहुंचाने की गरज से कृषिनीति बनायी गई। इस क्रांति के बारे में बुनियादी आलोचना यह है कि देश की खेतिहर जमीन का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा सिंचाई के बारिश पर निर्भर है और इस हिस्से के लिए हरित क्रांति एक दम अप्रसांगिक है। मॉनसून आधारित खेती को नीतिगत स्तर पर कोई खास समर्थन हासिल नहीं है जबकि तथ्य यह है कि इसी मॉनसूनी खेती से देश के तेलहन उत्पादन का 90 फीसदी, खाद्यान्न उत्पादन का 42 फीसदी और दलहन उत्पादन का 81 फीसदी हासिल होता है।

इसमें कोई शक नहीं कि हरित क्रांति ने देश को उस वक्त खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जब एक नव-स्वतंत्र मुल्क के रुप में भारत परंपरागत खेती और तेजी से बढ़ती आबादी के पाटों के बीच पीसते हुए खाद्यान्न उत्पादन की बढोत्तरी के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहा था।यह भारत के लिए बड़े कड़वे अनुभव और एक तरह से अपमान का वक्त था क्योंकि भारत को अमेरिका से पब्लिक लॉ 480 नामक प्रोग्राम के तहत बातचीत के बाद कुछ मदद मिली। अमेरिका ने अपने अधिशेष खाद्यान्न को स्थानीय मुद्रा में बेचने की अनुमति दी, अकाल के लिए दान भी भारत को लेना पडा।इस वक्त लगातार सूखा पड़ रहा था और भारत के सामने उस समय सबसे ज्यादा जरुरत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनने की ही थी। हरित क्रांति के फलस्वरुप खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बने भारत में उसी वक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विशाल तंत्र की नींव पड़ी।
 
इस तरह देखें तो हरित क्रांति ने चुनौतियों से निपटने में बड़ी भूमिका निभायी।बहरहाल इस सब के साथ एक समस्या यह आन पड़ी कि देश की कृषिनीति महज वृद्धि के मानको के बीच स्थिर रही और देश में एक बड़ा भूभाग सिंचाई की सुविधा से हीन उपेक्षित पडा रहा। इस हिसाब से देखें तो हरित क्रांति के दौर में चली कृषिनीति में उन इलाकों में आजीविका की उपेक्षा और बदहाली हुई जहां देश के तकरीबन 80 फीसदी गरीब रहते हैं।आज हम कह सकते हैं कि दशकों से भारत में नीति निर्माताओं ने हरित क्रांति के रास्ते से अलग कोई विकल्प तलाशने से हाथ खींच रखा है। यह एक तथ्य है कि भारत में मोटहन की कई किस्मे मौजूद हैं और ये फसलें कम पानी में भी भरपूर उपज देने में सक्षम हैं।इनको उपजाने में खर्चा भी कम लगता है। जरुरत इन फसलों की खेती को बढ़ावा देने और सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मध्याह्न भोजन, और भोजन के अधिकार के जरिए लोगों तक पहुंचाने की है।

हरित क्रांति की सफलता के पीछे उन फसलों का हाथ है जो बुवाई-रोपाई के साथ ही अधिकतम खाद-पानी-कीटनाशक की मांग करते हैं। इन फसलों के कारण बहुफसली खेती की जगह एकफसली खेती ने ले ली है और भू-जल के स्तर में कमी तथा उपजाऊ मिट्टी का नाश हुआ है सो अलग।वर्षा-आधारित खेती पर केंद्रित एक राष्ट्रीय-कार्यशाला की रिपोर्ट(सितंबर, 2007) के मुताबिक एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में पर्याप्त सिंचाई करने पर 1 लाख 30 हजार रुपये का खर्चा बैठता है। इस खर्चे में उर्वरकों को दी गई सब्सिडी तथा बिजली के मद मंे राज्य सरकारो