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सशक्तीकरण | उषा से आशा...

उषा से आशा...

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published Published on Jan 15, 2013   modified Modified on Jun 4, 2014

राजस्थान के अलवर में रहने वाली ऊषा चाउमार ने अपने साथ सैकड़ों स्त्रियों को सिर पर मैला ढोने की प्रथा से छुटकारा दिलाया. विकास कुमार की रिपोर्ट.

ऊषा पहले तो बात करने में खुलती ही नहीं. बेहद औपचारिक तरीके से दुआ-सलाम और फिर इधर-उधर की बातें करती हैं. लेकिन बार-बार अपने बारे में बताने का आग्रह करने पर जब वे अनौपचारिक होती हैं तो फिर बोलती ही जाती हैं. ढेरों बातें एक ही सांस में बता देना चाहती हैं. वे बताती हैं, ‘मेरा पूरा नाम ऊषा चाउमार है. राजस्थान में भरतपुर के पास डीह गांव में पैदा हुई. हम सात भाई-बहन हैं. दो भाई और पांच बहनें. मुझे अब भी वो दिन अच्छी तरह से याद है, जब मैं करीब सात साल की थी और मेरी मां ने मुझे भी काम पर ले जाना शुरू कर दिया था. मां अपने एक हाथ में राख से भरी लोहे की परात रखती थी, दूसरे हाथ में झाड़ू. घर से निकलने के पहले चेहरे को पूरी तरह घूंघट से ढक लेती थी. मैं अबोध बच्ची, बहुत कुछ समझ नहीं पाती थी लेकिन उनके साथ हो जाती. बहुत दिनों तक बहुत कुछ समझ ही नहीं सकी और जब तक इस काम को समझ पाती, तब तक मैं खुद ही मां की तरह परात और झाड़ू लेकर काम पर निकलने लगी थी. दस साल की उम्र में मैं भी वही काम करने लगी थी. जान चुकी थी कि मेरी मां गांव के सामंतों का पैखाना-पेशाब और गंदगी साफ करने जाती थी और मैं भी वही कर रही हूं.’ वे आगे कहती हैं, ‘मां के साथ जाते-जाते ही मैं यह भी समझ गई थी कि ठाकुर-ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं और हम अछूत हैं.’

ऊषा चाउमार यह सब बताते-बताते कई बार भावुक होती हैं, लेकिन रुकती नहीं. अतीत भले ही छूट चुका हो लेकिन उसकी भयावहता अब भी उनके मन में ठहरी हुई है. वे कहती हैं, ‘गर्मी के दिनों में भरी दोपहरी में मैं अपनी बहनों के साथ काम करती थी. प्यास लग जाए तो पानी के लिए किसी के घर के बाहर से ही चिल्लाना पड़ता था. प्यास से तड़पने के बावजूद हम घर के भीतर नहीं जा सकते थे. कोई पानी लेकर निकलता और ऊपर से डालता तो हम चुल्लू में लेकर जानवरों की तरह पीते.’

वे थोड़ा संभल जाएं, इसके लिए हम विषय थोड़ा बदलने की कोशिश करते हैं. लेकिन ऊषा रुकती नहीं. कहती हैं, ‘अब आगे की जिंदगी भी जान ही लीजिए.’ 10 साल की उम्र में ही ऊषा की शादी हो गई. चार साल बाद वे अलवर स्थित अपनी ससुराल आईं. वहां भी वही काम इंतजार कर रहा था. ऊषा बताती हैं, ‘सोचा था कि ससुराल में थोड़े दिन तो राहत मिलेगी लेकिन घर तो बदला, काम नहीं.’

ऊषा और उनके साथ काम करने वाली कई नई बहुरियों को इस पेशे से नफरत थी, लेकिन परिवार चलाने के लिए, दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए कोई और रास्ता भी नहीं था, सो करना पड़ा वह काम.
तो फिर कैसे बदली जिंदगी, यह पूछने पर ऊषा के चेहरे पर पहली बार खुशी का भाव आता है. वे बताती हैं, ‘हर दिन की तरह काम पर निकली थी. मोहल्ले में एक रोज एक गाड़ी आकर लगी. उस गाड़ी में सामाजिक कार्यकर्ता एवं सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वरी पाठक थे. जब पाठक ने ऊषा और उनके साथ काम कर रही महिलाओं को बुलाया तो इन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि गाड़ी में बैठा हुआ कोई आदमी उन्हें बुला सकता है. ऊषा बताती हैं, ‘विश्वास हुआ भी तो हिम्मत ही नहीं हो पाई जाने की. मैं ही किसी तरह हिम्मत कर गई और गाड़ी से कुछ दूर पहले ही घूंघट ताने खड़ी रही. उन्होंने पूछा कि यह काम क्यों करती हो. छोड़ दो, गंदा काम है. मुझे बहुत गुस्सा आया कि यह कार वाला साहब भी मजाक करने आया है. मैंने कहा कि हमारा घर इसी से चलता है तो क्या करूं?’

ऊषा आगे बताती हैं, ‘उन्होंने कहा कि आप मुझे अपने घरवालों से मिलवाओ, मैं यह काम भी छुड़वा दूंगा और घर-परिवार चलाने का रास्ता भी बताऊंगा.’ ऊषा ने ऐसा ही किया. बात सुनते ही उनकी सास भड़क गईं.  ऊषा कहती हैं, ‘उन्होंने कहा कि पागल हो गई हो जो किसी के कहने पर पुश्तैनी पेशा छोड़ रही हो!’

ऊषा बताती हैं कि उनके मन में भी दुविधा हुई कि क्या होगा, क्या नहीं. लेकिन वे भंगी के पेशे से छुटकारा चाहती थीं इसलिए आखिर में उन्होंने तय किया कि एक बार कोशिश करके देखते हैं. कुछ हुआ तो जिंदगी बदल जाएगी. नहीं तो मैला साफ करने वाला यह काम तो बचपन से आता है, फिर करने लगेंगी. ऊषा ने साहस दिखाया. मन की बात पति को बताई और जब पति तैयार हो गए तो वे दिल्ली आकर सुलभ से जुड़ गईं.  यहीं उन्हें अहसास हुआ कि जीविका चलाने के लिए  जरूरी नहीं कि मैला ढोया जाए. और भी बहुत से काम हैं जिन्हें करके सम्मानित जीवन जीने के साथ-साथ अच्छा पैसा भी कमाया जा सकता है. अपने इस सफर के बारे में ऊषा बताती हैं, ‘मुश्किल था अलवर से दिल्ली पहुंचना. लेकिन मेरे मरद ने हिम्मत दी. और मैं यहां पहुंच गई. यहां आकर मुझे पता चला कि रोजगार के दूसरे बहुत से साधन है जिनमें इज्जत भी है और पैसा भी. जैसे अगरबत्ती बनाना, पापड़ बनाना, सिलाई करना, ब्यूटी पार्लर चलाना. यह सब जानने और सीखने के बाद मैं अलवर लौटना चाहती थी ताकि वहां की दूसरी महिलाओं को भी यह सब बता और समझा सकूं.’

कुछ दिन दिल्ली में गुजारने के बाद उषा फिर से अलवर लौटीं. कुछ नए सपनों और उन सपनों को हकीकत में बदलने के तरीकों के साथ अलवर पहुंचकर ऊषा ने अपने साथ की कुछ महिलाओं से बात की. उन्हें इस बात के लिए तैयार करना शुरू किया कि वे उन पर थोपे गए एक घिनौने पारंपरिक पेशे को छोड़कर एक नई राह चलने की सोचें. ऊषा बताती हैं, ‘कुछेक महिलाओं को छोड़कर किसी ने ज्यादा एतराज नहीं किया.’ जल्द ही उनके साथ दस महिलाएं जुड़ गईं. इसके बाद ऊषा ने अपने इलाके में एक ट्रेनिंग सेंटर खोला.

इस पूरी कवायद के बारे में ऊषा हंसते हुए बताती हैं, ‘हां, कुछ महिलाओं ने मुझे पागल जरूर कहा. कुछ ने कहा कि दिल्ली से आई है तो इतरा रही है. जल्द ही जमीन पर आ जाएगी लेकिन ज्यादातर महिलाओं ने मेरा कहा माना और मेरे साथ जुड़ गईं. इससे मुझे हिम्मत मिली. फिर सुलभ की सहायता से अलवर में ट्रेनिंग सेंटर भी शुरू हो गया.’

इसके बाद तो देखते ही देखते पूरे अलवर के भंगी समाज की महिलाओं ने अपना पुराना पेशा छोड़ दिया और ऊषा की मुहिम के साथ जुड़ती चली गईं. आज नतीजा यह है कि ऊषा 600 से अधिक महिलाओं को इस नारकीय पेशे से निकाल चुकी हैं. वे कहती हैं, ‘उस समय मैं बहुत दुविधा में रहती तो आज यह दिन नहीं देख पाती.’

ऊषा कई बार विदेश हो आई हैं. आज उनके बच्चे बेहतर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. इलाके में अपनी तरह की महिलाओं की जिंदगी में वे बड़ा बदलाव लेकर आई हैं. उनके द्वारा खुलवाए गए ट्रेनिंग सेंटर में आज महिलाओं को मोमबत्ती, पापड़, अगरबत्ती बनाने से लेकर ब्यूटी पार्लर चलाने तक की ट्रेनिंग दी जा रही है. कभी दूसरों के घर की गंदगी साफ करके उसे सिर पर ढोने वाली महिलाओं के हाथ से बनी मोमबत्तियां आज लोगों की जिंदगी में उजास भर रही हैं. अछूत मानी जाने वाली इन महिलाओं के हाथ से बनी इन अगरबत्तियों भगवान का घर सुगंधित होता है. उनके हाथ से बने पापड़ लोगों के खाने में लज्जत घोलते हैं. अतीत की पीड़ा की जगह अब ऊषा के चेहरे पर अपने वर्तमान का गर्व दिख रहा है.


http://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/1570.html


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