Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
साक्षात्कार | '...पर क्या आजाद भारत किसी लिहाज से संपूर्ण है?'- अरूंधति राय से शोमा चौधरी की बातचीत

'...पर क्या आजाद भारत किसी लिहाज से संपूर्ण है?'- अरूंधति राय से शोमा चौधरी की बातचीत

Share this article Share this article
published Published on May 31, 2011   modified Modified on May 31, 2011
अरुंधती रॉय से जुड़े हालिया और कई पुराने विवादों पर शोमा चौधरी(तहलका) की उनसे बातचीत

आपने दिल्ली और कश्मीर में जो बयान दिए उनके आधार पर सरकार आपके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाने पर विचार कर रही है. राजद्रोह आपकी नजर में क्या है? क्या आप खुद को राष्ट्रद्रोही मानती हैं? दिल्ली और श्रीनगर में ऐसे मंच से बयान देने के पीछे आपकी मंशा क्या थी जिसका शीर्षक था - आजादी: द ओनली वे?

राजद्रोह एक आदिम और लुप्तप्राय विचार है जिसे टाइम्स नाउ ने हमारे लिए दोबारा से जिंदा कर दिया है. चैनल पागलों की तरह मेरे पीछे पड़ा हुआ है और मुझे भीड़ के गुस्से के हवाले कर देना चाहता है. मेरी बिसात क्या है? इतने बड़े चैनल के लिए एक तिनका. इस तरह के माहौल में किसी लेखक को जान से मार देना बड़ी बात नहीं है, लगता है चैनल यही करना चाहता है. अगर मैं सरकार होती तो थोड़ा-सा रुककर पूछती कि कैसे एक टीवी चैनल इतने आदिम विचारों के सहारे इस तरह की हलचल मचाने और सबको अंतर्राष्ट्रीय शर्मिंदगी की राह पर ले जाने में सफल हुआ. इस वजह से कश्मीर मुद्दे का काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीयकरण हो गया है. एक ऐसी स्थिति जिससे भारत सरकार बचना चाहती रही है.

ऐसा इसलिए भी हुआ कि भाजपा किसी भी सूरत में इंद्रेश कुमार को आरोपित करने के मामले से ध्यान भटकाना चाहती थी. उन्हें बिलकुल सटीक मौका मिल गया और टाइम्स नाउ की अगुआई में मीडिया की  मुराद पूरी हो गई. मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं राजद्रोह कर रही हूं. दिल्ली के सेमिनार में शामिल होने के लिए मैंने तब हामी भरी थी जब इसका शीर्षक भी तय नहीं हुआ था. मेरे खयाल से यह उनके लिए थोड़ा उत्तेजक था जो ऐसा होने के लिए तैयार ही बैठे थे. आधी सदी से भी ज्यादा समय से कश्मीर में जो चल रहा है उसे देखते हुए मुझे यह कोई बड़ी बात नहीं लगती. श्रीनगर में आयोजित सेमिनार का विषय था- 'कश्मीर किस ओर? दासता या आजादी?' यह इसलिए था कि कश्मीरी युवा इस बात पर गहराई से बहस कर सकें कि उनके लिए आजादी का मतलब क्या है.  इसका मकसद लोगों को हथियार उठाने के लिए भड़काने से उलट विचार करना और  बहस को और भी संजीदा बनाना और असहज सवाल पूछना था.

आपने सैयद अली शाह गिलानी और वारवरा राव के साथ मंच साझा करने का फैसला क्यों किया? यदि आपने यह बयान व्यक्तिगत तौर पर एक लेखक के नाते दिया होता तो शायद लोग इसे ऐसे न लेते.

यह आम लोगों का मंच था जो किसी सरकारी तंत्र का हिस्सा नहीं हैं. इनके अपने-अपने व्यक्तिगत विचार हैं. वारवरा राव और गिलानी दो बिलकुल अलग विचारधाराओं के लोग हैं. यह अपने आप में इस बात का सबूत है कि वहां अलग-अलग सोच के लोग मौजूद थे. मैंने ऐसा तो नहीं कहा कि मैं हुर्रियत (गिलानी) या फिर सीपीआई (माओवादी) से जुड़ने जा रही हूं. मैंने वही कहा जो मैं सोचती हूं.

आखिर कितने लोगों ने रतन टाटा और मुकेश अंबानी से तब सवाल किए जब उन्होंने नरेंद्र मोदी से गुजरात गरिमा पुरस्कार ग्रहण किया और उन्हें गले लगाया

गिलानी बेहद मुखर पाकिस्तान समर्थक, शरिया समर्थक और जमात समर्थक हैं. अतीत में उनके हिज्बुल से रिश्ते रहे हैं, कश्मीर की अंदरूनी राजनीति में उनकी हिंसक भूमिका रही है. कश्मीर के बारे में नजरिया रखना अलग बात है लेकिन गिलानी के साथ मिलकर ऐसा करने की क्या जरूरत थी? आप भारत सरकार की तरह गिलानी की भी निंदा क्यों नहीं करतीं?

बहुत-से ऐसे कश्मीरी हैं जो गिलानी के विचारों से सहमत नहीं हैं लेकिन उनकी इज्जत करते हैं क्योंकि उन्होंने खुद को भारत के हाथों बेचा नहीं. खुद मैं उनकी कई बातों से इत्तेफाक नहीं रखती, मैंने इनके बारे में लिखा भी है. जब मैं बोल रही थी उस वक्त भी मैंने यह बात साफ कर दी थी. अगर वे एक देश के प्रमुख हों जहां मैं रहती हूं और वे अपने विचार मुझ पर थोपें तो मुझसे जितना बन पड़ेगा उनका विरोध करूंगी.

लेकिन जैसे हालात आज कश्मीर में हैं, उनकी तुलना भारत से करना और उसी अनुपात में उनकी आलोचना करना मेरे खयाल से हास्यास्पद है. भारत सरकार, सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य और हाल ही में गए वार्ताकार, सबको पता है कि कश्मीर में जो हो रहा है गिलानी की उसमें अहम भूमिका है. जहां तक कश्मीर के अंदरूनी संघर्ष के पीछे उनकी भूमिका की बात है तो यह भी एक सच्चाई है. नब्बे के दशक में वहां भयावह घटनाएं हुईं, दिल दहलाने वाली हत्याएं हुईं, कुछ में तो गिलानी को अरोपी भी बनाया गया. लेकिन आंतरिक वर्चस्व का संघर्ष हर आंदोलन का हिस्सा होता है. आप इसकी तुलना राज्य प्रायोजित हिंसा से नहीं कर सकतीं. दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और काले समूहों के बीच हिंसक संघर्ष हुए जिसमें स्टीव बीको सहित सैकड़ों लोग मारे गए. तो क्या आप यह कहेंगी कि नेल्सन मंडेला के साथ किसी मंच पर बैठना अपराध है?

लेकिन सेमिनारों के जरिए उनके किए पर सवाल उठाकर, लेख लिखकर उनमें बदलाव लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. वे अब जो बातें कहते हैं उनमें और पहले में काफी अंतर है. लेकिन मुझे यह अजीब लग रहा है कि आखिर कितने लोगों ने रतन टाटा और मुकेश अंबानी से तब सवाल किए जब उन्होंने नरेंद्र मोदी से गुजरात गरिमा पुरस्कार ग्रहण किया और उन्हें गले लगाया. वह तो कोई सेमिनार नहीं था... उन्होंने मोदी को महान प्रधानमंत्री के लायक बताया. यह सही है?

यही तर्क तो वारवरा राव पर भी लागू हो सकता है. वे आपकी तरह सामाजिक न्याय की बात और भारत राज्य की आलोचना कर सकते हैं. लेकिन माओवादी दर्शन में क्रांति का रास्ता हथियार और हिंसा से निकलता है. जबकि आप ऐसा नहीं सोचतीं. तो ऐसे में जब कश्मीर में स्थितियां नाजुक हैं आपने राव और गिलानी के साथ मंच साझा करने का विकल्प क्यों चुना?

माओवादियों के बारे में मैंने अपने विचार काफी विस्तार से लिखे हैं और यहां एक वाक्य में उसका वर्णन नहीं कर सकती. मैं वारवरा राव की कई बातों के लिए प्रशंसा करती हूं. हालांकि मैं उनकी हर बात से सहमत नहीं हूं. लेकिन आज मैं माओवाद और कश्मीर की हालत पर जो भी कह रही हूं वह मौजूदा संवेदनशील समय को देखते हुए बेहद जरूरी है, विशेषकर तब जब हमारा मीडिया भ्रांतियां फैलाने की मशीन बन गया है. यह लोगों के दिमाग को कुंद करने की कोशिश में लगा है. ये किताबी बातें नहीं हैं; ये आम जनता के जीवन, उसकी सुरक्षा और सम्मान से जुड़े मसले हैं.

मैंने कभी भारतीय सेना को बलात्कारियों का संस्थान नहीं कहा. मैंने सिर्फ यह कहा था कि सभी औपनिवेशिक ताकतें अपनी सत्ता की स्थापना स्थानीय निवासियों के एक कुलीन समूह द्वारा करती हैं

आप एक बार फिर से राष्ट्र और उसको हासिल ताकत की आलोचना कर रही हैं. आप ऐसे व्यक्ति का समर्थन क्यों कर रही हैं जो कश्मीर को भारत से छीनकर पाकिस्तान में मिलाना चाहता है, जो हमसे भी ज्यादा अराजक और अस्थिर है?

क्या आप मुझे एक भी ऐसा सबूत दे सकती हैं जिसमें मैंने कश्मीर को भारत से छीनकर पाकिस्तान से मिलाने का समर्थन किया हो? क्या सिर्फ गिलानी ही कश्मीर में आजादी की मांग कर रहे हैं? मैं कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन कर रही हूं. यह गिलानी का समर्थन करने से अलग है.

और अब सवाल के दूसरे हिस्से का जवाब- हां, मैं उन लोगों में हूं जिन्हें राष्ट्र के विचार से परेशानी होती है लेकिन यह सवाल पहले उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जो सुरक्षित व सुखमय जीवन बिता रहे हैं न कि उन लोगों से जो बर्बर कब्जे को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हो सकता है आजाद कश्मीर एक असफल राज्य बनकर रह जाए, पर क्या आजाद भारत किसी लिहाज से संपूर्ण है? क्या आज हम कश्मीरियों से वही सवाल नहीं पूछ रहे हैं जो कभी हमसे हमारे साम्राज्यवादी शासक पूछा करते थे - क्या यहां के लोग आजादी के लिए तैयार हैं?

सारा विवाद आपके भाषण के सिर्फ एक हिस्से से पैदा हुआ है-  ‘कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है. यह ऐतिहासिक सच्चाई है.’  आपने ऐसा किस आधार पर कहा (क्योंकि इतिहास और वास्तविक शिकायतें दो अलग-अलग चीजें हैं)?

इतिहास सबको पता है. मैं यहां लोगों को प्राइमरी स्तर का इतिहास बताने नहीं जा रही हूं. क्या यह बात सही नहीं है कि जिन संदिग्ध परिस्थितियों में कश्मीर का विलय भारत में हुआ वह मौजूदा विवाद की वजह है? आखिर भारत सरकार ने वहां सात लाख सुरक्षा बल क्यों तैनात कर रखे हैं? आखिर आपके वार्ताकार क्यों आजादी के रोडमैप की बात कर रहे हैं या इसे विवादित क्षेत्र कह रहे हैं? जब भी हमारे सामने कश्मीर की जमीनी हकीकत आती है, हम आंखें क्यों फेर लेते हैं?

जो लोग आपके अभिव्यक्ति के अधिकार का समर्थन कर रहे हैं उनमें भी कइयों का मानना है कि आपका बयान दूसरे तरीके से आ सकता था मसलन- 'कश्मीरी खुद को भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं मानते', या फिर 'कश्मीरी आत्मनिर्णय का अधिकार चाहते हैं जो उन्हें मिलना चाहिए.'

अगर यही बात अंग्रेज कहते कि 'भारतीय भले ही खुद को ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा नहीं मानते हों लेकिन भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा है' तब हमें कैसा लगता? मेरे ये शुभचिंतक क्या नहीं जानते कि आम आदमी का अपनी जमीन से किस तरह का जुड़ाव होता है? क्या यही सुझाव बस्तर के आदिवासियों पर भी लागू होता है? क्या उन्हें ऐसा सोचने की आजादी है कि वे भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है, लेकिन उनकी प्रचुर संपदा वाली जमीनें भारत का हिस्सा हैं? आदिवासी अपनी सारी परंपरा और विचार लेकर शहरी झुग्गियों में चले जाएं और अपनी जमीनें खनन कंपनियों के हवाले छोड़ दें?

आजादी के बारे में आपकी क्या राय है? आप राष्ट्र के सिद्धांत की आलोचना करती हैं तो फिर एक नए राष्ट्र के निर्माण का समर्थन कैसे कर रही हैं? आप एक ऐसे देश का विचार रख सकती हैं जिसमें सीमाएं महत्वहीन हों, पहचान का मुद्दा गौण हो.

मैं आजादी को किस तरह परिभाषित करती हूं यह बात मायने नहीं रखती. मायने रखता है कश्मीरी लोग इसे किस रूप में देखते हैं. जहां तक राष्ट्र को लेकर मेरे आलोचनात्मक नजरिए का सवाल है तो इसे कमजोर करने की प्रक्रिया हमें अपने घर से शुरू करनी होगी. नाभिकीय हथियारों को नष्ट कर, झंडे को खत्म करके, सेना को बैरक में भेजकर और राष्ट्रवादी नारेबाजी पर पाबंदी लगाकर. तभी हम दूसरों को भाषण दे सकते हैं.

आपके ऊपर आरोप है कि आपने लोगों से सेना में भर्ती होकर बलात्कारी न बनने की अपील की. यह एक सेना जैसे बड़े संस्थान को एक बड़े ब्रश से बिना देखे रंगने सरीखा है. क्या आपके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया? क्या आप बता सकती हैं कि आपने अपने भाषण में क्या कहा था?

मैं जो कहती हूं उसे न जाने कितनी बार तोड़ा-मरोड़ा गया है. मैंने कभी वह नहीं कहा जिसे टीवी की बहस दर बहस मेरे द्वारा कहा बताया जा रहा है. कई बार तो ऐसा जान-बूझकर किया गया. द पायनियर ने हेडलाइन दी कि मैंने कश्मीर को 'भूखे नंगे हिंदुस्तान' से अलग करने की वकालत की है. मैंने जो कहा और लिखा था वह इसके बिलकुल उलट था. 2008 में कश्मीर की सड़कों पर जब मैंने नारा सुना 'भूखा, नंगा हिंदुस्तान, जान से प्यारा पाकिस्तान' तब मुझे बहुत दुख हुआ था. मैंने कहा था कि इस घटना से मुझे बहुत धक्का लगा कि कश्मीरी उन लोगों का मजाक उड़ा रहे हैं जो उसी राज्य के हाथों पीड़ित थे जिनसे कि खुद कश्मीरी. मैंने कहा कि यह सतही राजनीति है. मुझे पता है कि इसके बाद भी द पायनियर मुझसे माफी नहीं मांगेगा. वे अपना झूठ जारी रखेंगे. पहले भी उन्होंने यही किया है. मैंने कभी भी भारतीय सेना को बलात्कारियों का संस्थान नहीं कहा. मैं कोई पागल नहीं हूं. मैंने सिर्फ यह कहा था कि सभी औपनिवेशिक ताकतें अपनी सत्ता की स्थापना स्थानीय निवासियों के एक कुलीन समूह द्वारा करती हैं. कश्मीर में भी यही हुआ है. वे कश्मीरी ही हैं जो स्थानीय पुलिस, सीआरपीएफ और सेना आदि में शामिल होकर खुद पर कब्जा जमाने वाली ताकत का साथ दे रहे हैं. मैंने कहा था कि अगर वे लोग इस कब्जा जमाने वाली ताकत को खत्म करना चाहते हैं तो उन्हें पुलिस में भर्ती नहीं होना चाहिए. इस तरह का मूर्खतापूर्ण घालमेल और बेतुकापन बेहद खतरनाक है. कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी लड़ाई इसी मूर्खपने से है. जो कुछ आज टीवी पर दिखाया जा रहा है उसे अगर देश की बुद्धिमत्ता का पैमाना मान लें तो हम गंभीर संकट में हैं. आवाज का स्तर आईक्यू के स्तर का व्युत्क्रमानुपाती होता है. किस्मत से मैं खूब यात्राएं करती हूं और हर दिन ढेरों लोगों से बातचीत करने पर लगता है कि स्थितियां इतनी बुरी नहीं हैं.

आपके आलोचक हमेशा आपके ऊपर यह आरोप लगाते हैं कि आप कश्मीरी पंडितों के प्रति कभी संवेदना नहीं दिखातीं.

मेरे आलोचकों को मेरा लिखा पढ़ना चाहिए और मैं जो बोलती हूं उसे सुनना चाहिए. यहां मैं एक बात साफ कर दूं- कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ वह बेहद दुखद है. मेरा मानना है कि कश्मीरी पंडितों की दुखद कहानी की पूरी जटिलताओं को सामने लाने का काम अभी बाकी है. इसमें सबकी गलती थी, आतंकवाद की, घाटी में इस्लामी विद्रोह की और भारत सरकार की भी जिसने घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन को शह दी जबकि उसे उन्हें हर हालत में सुरक्षा देनी चाहिए थी. गरीब कश्मीरी पंडित आज भी जम्मू के विस्थापन शिविरों में नारकीय जीवन जी रहे हैं. उनके अधिकारों की लड़ाई पर कुछ धूर्त नेताओं का कब्जा हो गया है. इन लोगों को गरीब बनाए रखने में इनका हित छिपा है. चिड़ियाघर के जानवरों की तरह ये इनकी गरीबी की नुमाइश करते रहते हैं. अगर सरकार ईमानदारी से चाहती तो क्या इन लोगों की दुर्दशा को दूर नहीं किया जा सकता था? मैं जब भी कश्मीर जाती हूं मुझे इस बात का एहसास होता है कि पंडितों के जाने का आम कश्मीरी मुसलमानों को गहरा दुख है. अगर यह बात सही है तो कश्मीर संघर्ष के मौजूदा नेताओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे पंडितों की वापसी के प्रयास करें. सिर्फ भाषणबाजी से काम नहीं चलेगा. इससे सिर्फ एक बढ़िया काम का संतोष ही नहीं मिलेगा बल्कि उनके संघर्ष को जबर्दस्त नैतिक बल भी मिलेगा. इससे उनके उस कश्मीर के विचार को भी एक आकार मिलेगा जिसके लिए वे संघर्ष कर रहे हैं. यहां इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पंडितों की थोड़ी आबादी अभी भी घाटी में तमाम संकटों के बावजूद रह रही है, उन्हें किसी ने नुकसान भी नहीं पहुंचाया है.

भारत और उसकी क्षमताओं के प्रति आपके नकारात्मक रुख और विश्वासघाती रवैए के चलते लोग आपकी आलोचना करते हैं, बावजूद इसके कि आप इसकी सभी सुविधाओं का पूरा फायदा भी उठाती हैं. भारत के साथ आप अपने संबंधों को किस तरह से परिभाषित करेंगी?

अपने आलोचकों से मैं ऊब चुकी हूं. वे खुद ही इसका फैसला कर सकते हैं. मैं इस देश और यहां के लोगों के साथ अपने संबंधों की व्याख्या नहीं कर सकती. मैं कोई नेता नहीं हूं जिसे इन सबसे कोई फायदा उठाना है.

http://www.tehelkahindi.com/mulakaat/sakshatkar/752.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close