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साक्षात्कार | अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ता फासला

अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ता फासला

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published Published on Mar 28, 2010   modified Modified on Mar 28, 2010

नई दिल्ली [निरंकार सिंह]। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि 11वीं योजना के अंत तक नौ फीसदी और 12वीं पंचवर्षीय योजना में 10 फीसदी विकास दर का लक्ष्य होना चाहिए। इसके साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इसका फायदा समाज के हर वर्ग को मिले। इनकी सरकार लगातार समावेशी विकास के दावे कर रही है, लेकिन उसने विकास के उन तौर तरीकों को अपनाया है, जिससे समाज में विषमता बढ़ गई है। अमीरी और गरीबी की खाई और अधिक चौड़ी हुई है।

देश में विकास का लाभ अमीरों को तो खूब मिला है, लेकिन गरीबों की हालत आज भी कमोबेश जस की तस है। वर्तमान आर्थिक नीतियों और उदारीकरण के कारण देश के 17 फीसदी लोग करोड़ों-करोड़ों रुपये और अपार संपत्ति के मालिक बन गए हैं। वे स्वयं को अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने वाला मानने लग गए हैं, जबकि 83 फीसदी जनता गरीबी में जीवन बसर कर रही है। उसे न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न न्यूनतम मजदूरी।

यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव विकास सूचकाक के 134वें नंबर पर पिछले दो साल से ठहरा हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भारत के राज्यों की तुलना दुनिया के घोर गरीब और तेजी से विकसित हो रहे देशों से की गई है।

इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार और उड़ीसा की स्थिति घाना तथा मालावी से भी खराब है, जबकि भारत के ही अन्य राच्य पंजाब ने तरक्की में ब्राजील और मैक्सिको को पछाड़ दिया है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल के मोर्चे पर देश की दशा दयनीय है।

अध्ययन में राज्य दर राज्य विषमता को बताया ही गया है, इलाकेवार अंतर्विरोधों का उल्लेख भी किया गया है। देश के 110 करोड़ लोगों में से 62 करोड़ ऐसे राज्यों में रहते हैं, जो विकास में सबसे नीचे हैं। इन पिछड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में देश की एक तिहाई आबादी रहती है। तेज और पिछड़े राज्यों में अंतर शासन की गुणवत्ता का भी है।

यह तथ्य झकझोरता है कि विकास की होड़ में आगे दर्शाए जाने वाले गुजरात, कर्नाटक व महाराष्ट्र के कुछ जिलो में बाल मृत्युदर सर्वाधिक पिछड़े घोषित राज्यों [बिहार, उड़ीसा आदि] से भी ज्यादा है। मतलब, विकास के लाभ का फल एक ही राज्य की जनता को भी बराबर नहीं मिल रहा। ग्रामीण और शहरी इलाकों में स्पष्ट भेद है। कुल मिलाकर तेज आर्थिक विकास दर अपने आप में जन-समृद्धि का पर्याय नहीं होती।

समस्या दरअसल उच्च विकास दर अर्जित करने की उतनी नहीं, जितनी कि उच्च विकास दर को बनाए रखने और मिलने वाले लाभ के न्यायसंगत बंटवारे की है। समृद्धि के कुछ द्वीपों का निर्माण हो भी गया तो कोई देश उनके बूते दीर्घकालीन तरक्की नहीं कर सकेगा। उसके लिए संसाधनों और पूंजीगत लाभ के तार्किक वितरण पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यदि समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो विषमता की यह खाई और चौड़ी हो सकती है और उससे राजनैतिक व सामाजिक टकराव की नौबत आ सकती है।

इस तरह जब हम देश के सामाजिक और आर्थिक विकास पर नजर डालते हैं तो बड़ी भयानक तस्वीर सामने आती है। आबादी तेजी से बढ़ रही है। महंगाई भी तेजी से बढ़ी है। इन दोनों कारणों से गरीबी भी बढ़ रही है। आज भी देश की आधी से अधिक आबादी को भोजन-वस्त्र के अलावा पानी, बिजली, चिकित्सा सेवा और आवास की न्यूनतम आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं है।

सवाल इस बात का है कि क्या आर्थिक विकास की वर्तमान प्रक्रिया से यह तस्वीर बदल सकती है? हमारी वर्तमान विकास की नीति का लक्ष्य और दर्शन क्या है? देश की पच्चीस फीसदी आबादी शहरों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों का भी संपन्न वर्ग शहरी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। यदि हमारी कोई व्यवस्था है तो वह इन्हीं लोगों से बनी हुई है। इसका दर्शन शिक्षित और आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर्ग का दर्शन है। इसका लक्ष्य है कि जितना भी हमारे पास है, उससे अधिक हो।

सारी राजनीति, सारी शिक्षा, सारे विशेषाधिकार शहरी आबादी के एक खास तबके तक सीमित हैं। इनमें पूंजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, कारपोरेट प्रबंधकों, सरकारी नौकरशाहों, नेताओं आदि उच्च स्तर के लोगों को गिना जाता है। गैर कानूनी आय और काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था से जुड़ी आबादी भी इनमें शामिल है। इस शहरी आबादी में भी बहुत से लोग बेरोजगार हैं या रोजगार की तलाश में हैं। इसलिए कुछ थोड़े से लोगों को छोड़कर देश का यह खास वर्ग चाहता है कि तकनीक और भी अधिक आधुनिक हो, औद्योगीकरण बढ़े और कृषि का अधिकाधिक यंत्रीकरण एवं रसायनीकरण हो।

आज भारत की आधुनिकता का मर्म यही है। ऊंची विकास की दर इसी खास तबके के लक्ष्य से जुड़ी है। इसलिए विकास दर के बढ़ने के साथ-साथ देश में खरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में इजाफा हो जाता है, लेकिन देश के बहुसंख्यक आबादी की बदहाली और मुसीबतें बढ़ जाती हैं। चार साल पहले भारत में नौ खरबपति थे। अब 56 हैं। 12 साल पहले भारत के सकल घरेलू उत्पाद में खरबपतियों का हिस्सा दो फीसदी था। अब बढ़कर यह 22 फीसदी हो गया है।

खेती पर निर्भर देश की 65 फीसदी आबादी का जीडीपी में हिस्सा घटकर 17 फीसदी हो गया। आर्थिक विकास के इस दर्शन ने धनी और गरीब, कृषि एवं उद्योग के बीच के अंतर को बढ़ाया है। इससे गावों और शहरों के बीच की भी खाई चौड़ी हुई है।

इन तथ्यों और विश्व बैंक की रिपोर्ट से एक बार फिर ग्रामीण भारत के विकास को मुख्य धारा से जोड़े जाने की जरूरत पर जोर दिया है। अब कई अर्थशास्त्री भी यह मानने लगे हैं कि गाधी जी के दिखाए रास्ते को छोड़कर भारत ने बहुत बड़ी गलती की है। अत: अब कई लोग गाधी जी की विचारधारा से मिलते जुलते विकास पर जोर देने लगे हैं। जैसे कि कृषि विकास हमारी योजना का मुख्य आधार बनना चाहिए। इसकी बुनियाद पर ही गृह उद्योगों और ग्रामोद्योग की एक रूपरेखा गावों के विकास के लिए बनानी चाहिए। उसमें बिजली, परिवहन और बाजार आदि की सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाएं। यह बड़े उद्योगों की उपेक्षा की बात नहीं है, लेकिन जिस देश की बहुत बड़ी आबादी बेरोजगार हो और देश की 70 फीसदी आबादी गावों में बसती हो, वहा योजना की बुनियाद बदलनी चाहिए।

नरेगा का नाम गाधी जी से जोड़ने भर से काम नहीं चलेगा। सादगी और भौतिक आवश्यकताओं पर स्वैच्छिक नियंत्रण गाधी के जीवन और दर्शन का एक मुख्य संदेश रहा है और जब तक देश का शासक वर्ग इस आदर्श को स्वीकार नहीं करेगा, तब तक शासन-प्रशासन में सुधार नहीं होगा।

गाधी जी के अनुसार, लोकतंत्र विभिन्न वर्गो के लोगों के सभी भौतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संसाधनों को सार्वजनिक हित में लगाने की कला और विज्ञान है। पर नैतिकता के मानदंड का महात्मा गाधी के साथ ही लोप हो गया। इसीलिए वर्तमान व्यवस्था मौसमी संकटों, दिहाड़ी के खात्मे, कमजोरी और निपट निर्धनता को दूर नहीं कर सकती। गरीबी उन्मूलन और विकास की केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या 225 से भी ज्यादा है। केवल ग्रामीण विकास और कृषि के क्षेत्र में ही 100 से ज्यादा योजनाएं हैं, लेकिन आजादी के 60 साल बाद भी देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे और कुछ आकलनों के अनुसार लगभग 77 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये से कम आमदनी पर गुजारा कर रही है, लेकिन राच्य सरकारों के चाल-चलन पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। चिंता की बात यह है कि जो राच्य गरीबी से त्रस्त हैं, वहा इन योजनाओं को लागू करने में सबसे अधिक भ्रष्टाचार व अकुशलता दिखाई देती है।

मनरेगा की सबसे खराब दशा उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में है, जहा गरीबी रेखा के नीचे एक तिहाई से अधिक लोग रहते हैं। कुछ राच्यों को छोड़ दिया जाए तो अधिसंख्य राच्यों में केंद्रीय योजनाओं की आवंटित धनराशि का पूरी कार्यकुशलता के साथ इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।

केंद्रीय मंत्रालय योजनाओं के लक्ष्य हासिल करने के लिए उनके क्त्रियान्वयन को नियंत्रित करने में अक्षम है, केंद्र की भूमिका प्रावधान और पैसा जारी करने तक सीमित है। केंद्र यह नहीं देख सकता कि राच्य सरकार की रिपोर्ट में कितनी सच्चाई है। उसका सारा ध्यान खर्च पर है, लक्ष्य हासिल करने पर नहीं। इसलिए हमें कोई न कोई निगरानी व्यवस्था भी बनानी होगी ताकि योजनाओं के अमल भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता ओर भाई भतीजावाद को खत्म कर सकें।

वैश्विक विषमताएं भी जिम्मेदार

भारत डोगरा। औपनिवेशिक राज के दौर की समाप्ति के बाद भी साम्राच्यवादी देशों ने अपनी पुरानी मनोवृत्तियां नहीं छोड़ी तथा विदेशी कर्ज, विदेशी व्यापार व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रसार की ऐसी नीतिया अपनाई, जिससे पुराने उपनिवेशों पर उनका नियंत्रण बना रहे। इस उद्देश्य के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं जैसे विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि का उपयोग भी किया गया, क्योंकि इनके नीति निर्धारण में कुछ अमीर देशों का वर्चस्व था।

भूतपूर्व उपनिवेशों के एक अभिजात वर्ग ने भी इन नीतियों से अपने हितों को जोड़ा और विकसित देशों ने इस अभिजात वर्ग को पूरा समर्थन दिया। इस कारण गरीब लोगों के दुख-दर्द को वास्तव में समझने वाली और उससे गहरे तौर पर जुड़ी हुई शक्तिया आगे नहीं आ पाई।

मानवीय विकास रिपोर्ट में दिए गए आकड़ों के अनुसार विश्व के सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोगों के पास विश्व की कुल आय का मात्र एक प्रतिशत पहुंच रहा है। दूसरी ओर विश्व के सबसे अमीर 20 प्रतिशत लोग विश्व की कुल आय का 86 प्रतिशत हिस्सा हड़प रहे हैं। विश्व के सबसे अमीर मात्र तीन व्यक्तियों के पास जितनी संपत्ति है, वह गरीब देशों में रहने वाले विश्व के 60 करोड़ लोगों की वार्षिक आय के बराबर है।

विश्व के लगभग 100 करोड़ लोग न्यूनतम, बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित हैं। मानवीय विकास रिपोर्ट के अनुसार विकासशील व गरीब देशों में रहने वाले 145 करोड़ लोगों में रक्त की कमी है। 88 करोड़ लोग कैलोरी व प्रोटीन की दृष्टि से पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में असमर्थ हैं। 110 करोड़ के पास उचित आवास नहीं है। 140 करोड़ के पास स्वच्छ पीने का पानी नियमित प्राप्त करने की सुविधा नहीं है। 88 करोड़ के पास आधुनिक चिकित्सा सुविधाएं नहीं पंहुची हैं। इस व्यापक स्तर के अभाव के बावजूद विश्व के पर्यावरण पर बहुत दबाव पड़ रहा है, क्योंकि ऊपर के लगभग 20 प्रतिशत लोगों की जीवनशैली बहुत विलासिता और अपव्यय पर आधारित है।

पर्यावरण विनाश का मुख्य कारण अधिक आबादी नहीं, बल्कि कुछ लोगों की विलासिता व अपव्यय है। मानवीय विकास रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक देशों में जनसंख्या में होने वाली एक व्यक्ति की वृद्धि पर्यावरण पर उतना दबाव डालती है, जितना कि विकासशील देशों में होने वाली 30 से 50 व्यक्तियों की वृद्धि। पर्यावरण की तबाही के कारण करोड़ों लोगों का अभाव बढ़ता जा रहा है। वर्ष 1950 और 1998 के बीच प्रति व्यक्ति जल उपलब्धि विश्व स्तर पर आधे से भी कम हुई। 200 करोड़ हेक्टेयर भूमि की उत्पादक क्षमता बहुत गिर चुकी है। केवल दो दशकों में 150 लाख हेक्टेयर से अधिक का वन विनाश विकासशील देशों में हुआ।

इस विषमता का सीधा परिणाम यह है कि विज्ञान और तकनीक का जितना उपयोग दुख-दर्द दूर करने के लिए संभव है, उसे गरीब देशों और गरीब लोगों के बीच क्रियान्वित नहीं किया जा सकता है। दुख का सबसे दर्दनाक रूप बच्चों की मौत है। पाच वर्ष की उम्र से कम बच्चों की मृत्यु दर [प्रति एक हजार] को जहा अमीर औद्योगिक देशों में 18 तक कम कर दिया है, वहीं गरीब विकासशील देशों में यह पाच गुना से भी अधिक या 95 बनी हुई है। इसी तथ्य को दूसरे शब्दों में कहें तो प्रति वर्ष विश्व में लगभग 80 लाख बच्चों की मौत गरीबी और अभाव से जुड़े कारणों से होती है, जिसे रोका जा सकता है। विश्व के सभी बच्चों के लिए शिक्षा सुविधाओं की व्यवस्था करने का अतिरिक्त वार्षिक खर्च छह अरब डालर है, जो उपलब्ध नहीं हो रहा है, जबकि अमीर देशों में प्रति वर्ष केवल बच्चों के लिए वीडियो गेम खरीदने पर आठ अरब डालर खर्च किए जाते हैं। दुनिया के सभी लोगों तक स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता व सब बच्चों तक शिक्षा ले जाने का अतिरिक्त वार्षिक खर्च 27 अरब डालर है जो उपलब्ध नहीं हो रहा है, लेकिन दूसरी ओर सिर्फ अमेरिका में एक वर्ष में 25 अरब डालर केवल बीयर पीने-पिलाने पर खर्च किए जाते हैं।

दूसरे शब्दों में एक ओर हर तरह की विलासिता के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध है तो दूसरी ओर गरीब लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं है। क्या अमीर देश पर्याप्त विदेशी सहायता से इस विषमता को दूर कर रहे हैं? जो अमीर देश अपनी राष्ट्रीय आय का सबसे अधिक प्रतिशत विदेशी सहायता पर खर्च करता है, वह भी मात्र एक प्रतिशत खर्च करता है और अमेरिका तो मात्र 0.1 प्रतिशत खर्च करता है। जो सहायता दी जाती है, वह भी प्राय: तरह-तरह की शर्तो से जुड़ी होती है। अधिकाश गरीब देशों पर अमीर देशों या उनके द्वारा नियंत्रित संस्थाओं का भारी कर्ज है। जितनी विदेशी सहायता उन्हें मिलती है, कई देशों को उससे कहीं ज्यादा कर्ज चुकाना पड़ता है।


http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_6289559.html
 

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