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साक्षात्कार | गांधी के सिवा कोई रास्ता नहीं है -- सच्चिदानंद सिंहा से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत

गांधी के सिवा कोई रास्ता नहीं है -- सच्चिदानंद सिंहा से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत

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published Published on Dec 24, 2010   modified Modified on Dec 24, 2010
सच्चिदानंद सिंहा भारत के उन चुनिंदा विचारकों में हैं, जो अपने समय से लगातार मुठभेड़ करते रहते हैं. 81 साल की उम्र में भी लगातार सक्रिय सच्चिदानंद सिंहा मानते हैं कि भारत में आने वाले दिनों में अगर किसी नये समाज का निर्माण करना है तो समाजवादी विचारकों को गांधी की कुछ बातों को स्वीकारना ही होगा. उनसे कुछ सामयिक मुद्दों पर की गई बातचीत यहां प्रकाशित की जा रही है।  (साक्षात्कार जनपक्षधर पत्रकारिता को समर्पित एक वेबसाइट रविवारडॉटकॉम http://raviwar.com/ से साभार, मूल लिंक- http://raviwar.com/baatcheet/b38_interview-sachhidanand-sinha-by-alok-putul.shtml 
 
आपने समाज और सभ्यता के बहुत से सवालों से लगातार मुठभेड़ की है. एक सवाल लगातार उठता रहता है कि आखिर इस समाज का मूल संकट क्या है ?

मुझे तो लगता है कि मूल संकट यही है कि कभी हम लोग ठीक से समझ नहीं पाते हैं कि इसका मूल संकट है क्या? हमेशा आदमी एक खास परिप्रेक्ष्य में दुनिया के बारे में सोचता है. असल में आदमी की अपनी अलग पहचान तभी होगी जब वह प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक के सारे परिप्रेक्ष्य में अगर सोचना शुरू करेगा, तभी तो उसे असल में पता चलेगा कि समस्या क्या है, नहीं तो वह तात्कालिक चीजों में उलझ कर रह जाता है और समाधान खोजने की कोशिश नहीं करता.

आपको क्या लगता है वर्तमान में समाज का सबसे बड़ा संकट क्या है?

मुझे लगता है कि समाज में अभी सबसे बड़ा संकट तो यह है कि आदमी में आकांक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं और वह अपने संकट को ही नहीं समझ पा रहा है. उसके पास कोई उपाय नहीं है कि उन आकांक्षाओं पर नियंत्रण कर सके. जैसे सबसे बढक़र उपभोक्तवादी संस्कृति है. हर आदमी उपभोक्तावादी संस्कृति का गुलाम है. और अभी तक तो सारी व्यवस्था इस संस्कृति को बढ़ावा देने वाली है. आदमी उसमें उलझा हुआ है. वह बीमार है लेकिन यह भी नहीं जानता कि वह बीमार है. अगर बीमार आदमी को ये भी पता नहीं हो कि वह बीमार हो तो वह उपचार के बारे में भी नहीं सोचेगा.

आर्थिक व्यवस्थाएं होती हैं, वो भी बहुत कुछ तय करती है कि हमारी संस्कृति क्या हो. बड़े पैसे वाले खुद के लिए तो संकट पैदा करते ही हैं, चूंकि वे हमेशा प्रतिस्पर्धा का जीवन जीना चाहते हैं, हमेशा उनके दिमाग में रहता है कि दूसरों से बढक़र उपर जाएं. उन्हीं की वजह से गरीबों का संकट पैदा होता है. अपनी आगे बढऩे की तमन्ना को गरीबों के बीच में इस तरह से फैला देते हैं कि जो उनकी बुनियादी जरूरतें है, वो पूरी नहीं हो पातीं. बीज रूप में संपन्न लोग और उनकी तमन्ना ही समाज में सबके लिए ज्यादा संकट पैदा कर रहा है.

इस संकट के कारण समाज में सबसे ज्यादा मनुष्यता और मूल्यों का संकट पैदा हुआ है ?

आज के समाज में तो एक ही मूल्य है, और वह है पैसा उपार्जन करने का. कार्ल मार्क्स ने अपनी मशहूर किताब कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो में कहा है कि सारे संबंधों की जगह पर पूंजीवादी समाज में एक मौद्रिक संबंध ही है, जो पूरी तरह से अन्य संबंधों के उपर छाया हुआ है?

मार्क्स की इस व्याख्या से आप सहमत हैं?

सब से तो सहमत नहीं हैं लेकिन उस समय उसने जो समाज का मूल्यांकन किया, वह बहुत कुछ सही है. हालांकि पूरे इतिहास के बारे में उसके जो निष्कर्ष हैं, उसमें जो उसने विचार दिए थे, उसमें आधी-अधूरी सच्चाई ही है, और वो तो इससे भी साबित होता है कि मार्क्स के बाद संसार का जो विकास हुआ, उसने वही दिशा नहीं ली. जैसा कि मार्क्स सोचता था.

वह तो सोचता था कि पूंजीवादी समाज के विकास से एक बिंदू पर सर्वहारा क्रांति हो जाएगी, समाज बदल जाएगा, समाजवादी व्यवस्था कायम होगी. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. एक के बाद एक ह्रास होता रहा. मजदूर आंदोलनों की हार होती रही.

मार्क्स के कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो लिखने के सौ साल बाद एक प्रक्रिया शुरू हुई कि जिसमें कि समाज के बहुत बड़े अंग में, वहां भी जहां पर कभी कम्युनिस्ट आंदोलनों का प्रभुत्व था; पूरे समाजवादी मूल्य खत्म हो गए. सोवियत यूनियन में, चीन में जिन लोगों ने समाजवादी क्रांति करने का दावा किया था, वहां समाजवादी व्यवस्था धराशायी हो गई. चीन अभी सबसे आक्रामक पूंजीवादी व्यवस्था बन गया.

मार्क्स की सोच में कुछ तो त्रुटि थी लेकिन मार्क्स ने जो कुछ भी कहा, उन सभी को खारिज नहीं किया जा सकता. उसमें बहुत मूलभूत सत्य भी था. सत्य में बहुत आयाम होते हैं. ये हर पीढ़ी का काम है कि पुराने सत्य को पुनरपरीक्षित करे और अपने संदर्भ में उसकी जो कुछ सच्चाई है, उसे बचाकर रखने का प्रयास करे. उसकी गलतियों को छोडक़र फिर उस विचार का आगे परिष्कार करे.

दिक्कत यही है कि कम्यूनिस्टों ने मार्क्स के विचारों को आंख मूंदकर धार्मिक अंधविश्वास की तरह मान लिया. बाकी लोगों ने मार्क्स के विचार को खारिज कर दिया. दूसरी तरफ पूंजीवादी व्यवस्था कोशिश कर रही थी कि मार्क्स के विचार को पूरी तरह खारिज कर दिया जाए क्योंकि उसमें उन्हें क्रांति का बीज दिखाई देता था. दोनों तरफ से मार्क्सवादी विचार को खतरा पैदा हुआ. एक तरफ समर्थकों की तरफ से स्खलन की वजह से, दूसरी ओर आक्रमण की वजह से.

मार्क्स के विचार को फिर परीक्षित करने की जरूरत है. उसके सत्य को बचाकर रखने की जरूरत है. बाद की घटनाओं और उनके बाद के जो मनीषी हुए, जिन्होंने नए तरह से दुनिया को देखने को कोशिश की, उस विचार को लेकर सब के साथ एक संगति बनाकर चलने की जरूरत है.

धन के लिए श्रम का विनिमय और विकास की जो मार्क्स की अवधारणा है, खास तौर पर श्रम के रुपांतरण को लेकर...

मार्क्स ने 19 वीं शताब्दी में भौतिक शास्त्र की जो जानकारी थी, उसमें विकास की सीमाएं कभी कहीं भी परीक्षित नहीं थी. लोग समझते थे कि जो विकास हो रहा है विज्ञान का, तकनीक का वह अनवरत और असीम चलता रहेगा. 20 वीं शताब्दी के जो अनुभव हैं ऊर्जा का अतिव्यय, उसकी वजह से पर्यावरण का संकट, यह मार्क्स के दिमाग में कभी नहीं था. उसके दिमाग में था कि विकास की प्रक्रिया लगातार बढ़ती चली जाएगी.

आज हम जानते हैं कि हमारी धरती सीमित नक्षत्र है, जिससे हम इतना संसाधन हासिल करने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि जिससे असीमित मात्रा में उपभोग की वस्तुएं पैदा कर सकें. आज की पूंजीवादी व्यवस्था अधिक से अधिक उत्पादन और ज्यादा से ज्यादा वितरण करना चाहती है और जितना ही उत्पादन का फैलाव होगा, उतना ही पूंजीवाद का मुनाफा बढ़ेगा. इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था इस प्रक्रिया को लगातार बढ़ाने की कोशिश कर रही है.
दुनिया भर में खनिज की खुदाई से पर्यावरण पर होने वाले असर को हम रोज देख रहे हैं. मार्क्स का ये भ्रम कि आदमी जो विज्ञान व तकनीक का विकास कर रहा है, उसकी असीम संभावनाएं है, उनकी बुनियादी भूल थी. उसका एक कारण ये भी था कि 19 वीं शताब्दी के अंत तक विज्ञान की सीमाएं सीधे तौर पर दिखाई नहीं देती थी. अब यह हम लोगों के सामने साफ होने लगा है. उस अर्थ में मार्क्स के विचार को बदलने और सही परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की जरूरत है.
 

इसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिये ?

जहां मार्क्स ने असीमित विकास और आदमी के जरूरतों के फैलाव की कल्पना की थी, वहीं एक बिंदू है और वहीं महात्मा गांधी राह दिखाते है. गांधी ने एक ऐतिहासिक बात कही थी कि देयर इज एनफ इन दि वर्ल्ड फार एवरी मैन्स नीड बट नाट एनफ फार वन मैन्स ग्रीड. आज की पूरी व्यवस्था की समझ इस बात से आ सकती है कि थोड़े से पूंजीपतियों का ग्रीड ही तो है कि उसका इस तरीके से विस्तार हो रहा है कि उसकी वजह से पर्यावरण का संकट पैदा हो गया है.

बावजूद इसके कि आबादी इतनी बढ़ गई है, इतनी संपदा तो संसार में है कि यदि उसका ढंग से इंतजाम हो तो आदमी की न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति हो सकती है.

जब सारे द्वंद्व को ही समाप्त मान लिया गया तो फिर तो ऐसा होगा ही. सभ्यता के खतरे, इतिहास का अंत...

पूंजीवादी व्यवस्था कुछ इसी तरह का अंत चाहती है. उसका मानना है कि आदर्श समाज आ गया है. अब आगे कुछ करने की जरूरत नहीं है, जो व्यवस्था चल रही है यहीं ठीक है, संसार में यह चलता रहेगा. इतिहास के अंत का यही मतलब है.

अगर इतिहास का अंत नहीं होगा तो फिर नए परिवर्तन होंगे. समाज परिवर्तन की बात होगी, क्रांति की बात होगी. उसको खतम करने के लिए 1990 के आसपास उसने प्रयास किया था, उस समय एक काल था. सोवियत यूनियन का विघटन हो गया था, अमरीकी साम्राज्यवाद पूरी दुनिया में छाया हुआ था. ट्रेड सेंटर का हमला नहीं हुआ था.

ये एक ऐसा काल था कि लगता था कि अमरीका का वर्चस्व संसार पर है. यह आत्म तुष्टि का उद्घोष था पूंजीवाद का. दस साल के भीतर सारी तस्वीर बदल गई. अमरीका के उपर हमला हुआ. अब हर जगह उसके खिलाफ लोग खड़े हैं.

फुको ने कहा कि इतिहास का अंत हो गया, वो दुनिया में स्थापित हो गया था लेकिन उसके बाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अंतर्विरोध हुआ, वह उजागर होने लगा.

उसी का एक रूप धार्मिक युद्ध था. इरान और इराक में तेल की भूख की वजह से इन्होंने उसका इतना दोहन किया. उन्हें एक समय लगा कि उनकी पूरी सभ्यता खतरे में पड़ गई है. इस्लाम का जो प्रदेश है, उनकी सभ्यता बहुत पुरानी है. बेबीलोन, मिस्र आदि प्राचीन सभ्यता थी. नई पूंजीवादी सभ्यता ने उनके पूरे इतिहास को खतम करने की कोशिश की. उनको एक गुलाम, एक दबा हुआ समाज बताकर उनके संसाधनों के शोषण का आधार बनाने की कोशिश की गई. उसके खिलाफ एक तरह का विद्रोह सबसे ज्यादा इस्लामिक दुनिया के भीतर हो रहा है, जिसे ये सभ्यताओं का संघर्ष बता रहे है लेकिन बुनियाद में कारण दूसरे हैं.

अगर इसे हंटिग्टन के सभ्यताओं के संघर्ष से परे भी देखें तो अंततः इस संघर्ष परिणति किस रूप में होगी?

अभी तो शाश्वत रूप में हो रही है कि एक सभ्यता का उतना बड़ा क्षेत्र, इतने हिंसक गतिरोध के रूप में दिखाई दे रहा है. यह अत्यंत ही अमानुषिक है, चाहे जो भी मरता हो. आज वहां कोई ठिकाना नहीं है कि कब कौन मारा जाएगा, आत्मघाती हमले हो रहे हैं. दुनिया में इतने आक्रोश पैदा हो गए हैं कि लोगों को अपनी जिंदगी का ख्याल नहीं रहा.

हमारे यहां किसी एक क्रांतिकारी ने आत्मघाती हमला किया हो तो हम बड़ी बात करते हैं लेकिन वहां तो रोज ऐसा हो रहा है. उन्होंने लोगों की जिंदगी को कैसा बना दिया है ! किसी को ये नहीं मालूम कि हमारा जिंदा रहना जरूरी है. हर रोज लोग अपने को मार रहे हैं और साथ ही साथ दूसरों को मार रहे हैं.

इन सब चीजों के लिए विकास का जो ट्रेंड है, इसके जो तौर-तरीके है, इसकी जो प्राथमिकताएं हैं, वह कितनी जिम्मेवार हैं ?

वो तो जिम्मेवार हैं ही लेकिन विकास की सारी प्रक्रिया पूंजीवादी समाज के विकास की अनिवार्य परिणति है. पूंजीपति का मुनाफा इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितना उत्पादन व विपणन करता है. अगर उसके उत्पादन के फैलाव से ही पूंजीपतियों की शक्ति का विकास होना है तो उनके अनुसार ज्यादा से ज्यादा उत्पादन होना चाहिए, ज्यादा से ज्यादा संसाधन चाहिए, लौह अयस्क, बाक्साइट, जल के संसाधन चाहिए. धीरे-धीरे सभी संसाधनों का उपयोग वे करना चाहेंगे और पूरी तरह से संसार को संसाधनों से सूना कर देंगे.

उसका एक दूसरा खतरनाक पहलू ये भी है कि इस प्रक्रिया में जो गैस पैदा हो रही है उससे पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, संसार में दिनोंदिन तापमान बढ़ रहा है. अमरीका में आग लग रही है. रूस में पहले विशाल जंगल थे, जहां पहले बहुत बर्फ गिरता थी, वहां आग लग रही है. इसका नतीजा प्रलय की ओर जा रहा है.

पूंजीवादी समाज के विकास को क्या मनुष्य की नियती मान लें या उसी तरह स्वीकार कर लें ?

नियती इस मायने में तो नहीं मान सकते कि यह पहले से कहीं कुछ लिख दिया गया हो लेकिन मनुष्य नियती बना रहा है. यदि हम अपनी दिशा नहीं बदलेंगे तो फिर वहां तो जाना ही है. इसलिए गांधी की प्रासंगिकता यहां पर है और मैं मानने लगा हूं कि समाजवाद गांधी के कुछ मूल्यों को अपनाये बगैर उत्पादन के बारे में या आदमी के जीवन के आदर्शों के बारे में सफल नहीं हो सकता. जब तक गांधी के कुछ मूल्यों को
नहीं अपनाएंगे तब तक समाजवाद के मूल सिद्धांत समता, भाईचारा वगैरह कभी संभव नहीं हो पाएगा.

गांधी जी ने आदमी के ग्रीड को नियंत्रित करने की बात और आदमी के जीवन के तरीके को बदलने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योग की बात कहीं, जिसका चरखा एक उदाहरण है. राज्य व्यवस्था शोषण का एक बहुत बड़ा आधार हो जाता है. एक नौकरशाही का बड़ा ढांचा होता है और उसका कद, प्राचीन समाजों में भी राजा-महाराजाओं के समय भी होता रहा है, उसको नियंत्रित करने की बात भी गांधी जी ग्राम गणराज्य के रूप में कहते थे.

गांवों में पंचायत आज भी है लेकिन असली सत्ता दिल्ली में है. वे जब ग्राम गणराज्य की बात कहते हैं तो उन्होंने स्वतंत्र ईकाई की बात कही थी. उन्होंने कहा था कि वे इस तरह से जुड़े रहेंगे जैसे ओसनिक सर्किल्स.

जब आप पानी पर पत्थर डालते हैं तो उसकी लहरें दूर तक फैलती रहती हैं. वैसे ही अलग-अलग ग्राम गणराज्य एक-दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़े रहेंगे. कोई इंस्टीट्यूशनल ढांचा नहीं होगा, जिससे सब नियंत्रित हों. बल्कि एक भावनात्मक दृष्टि से सब जुड़े रहेंगे. समाज निर्माण में किस तरह से गांधी की इन बातों पर अमल किया जाये, यह तो हमको-आपको तय करना होगा. समाजवाद की बात करने वालों को अगर कोई अगला समाज का निर्माण करना है तो उन्हें गांधी को बातों को ध्यान में रखना होगा.

•  गांधी जिस गणराज्य और गांव के बारे में बात कहते थे, न तो अब ऐसे गांव बचे हैं और न ऐसी स्थितियां बची है. आप गांव में रहते है बेहतर समझते हैं. दूसरी ओर चिदंबरम् जैसे लोग ये कहते है कि गांवों का विकास करना है तो बहुत जरूरी है उन्हें शहर की दिशा में ला कर बसाया जाये. जिसे लोग कथित तौर पर मुख्यधारा या विकास की धारा कहते है. यह घटिया पूंजीवादी सोच क्या यूटोपिया जैसी नहीं है.

यूटोपिया की बात तो लगती है. लेकिन जो कुछ भी दुनिया में अच्छा बनता है, कहीं न कहीं उसकी शुरूआत किसी यूटोपिया में होती है. इसमें जरूरी नहीं है कि इसमें अच्छा ही हो. आज हम हवाई जहाज में उड़ते है, तो कभी आदमी के जेहन में उडऩे की तमन्ना थी. एक खास स्थिति में उसकी पूर्ति दिखाई देती है तो आदमी में आकांक्षा तो होनी चाहिए. जब तक कि आकांक्षा नहीं होगी तो इस तरह से बिखरे हुए ग्राम गणराज्य हों, स्वशासित हों, इस तरह की आकांक्षा जब तक नहीं होगी तब तक उस दिशा में पहल भी नहीं होगी.

चिदंबरम् जैसे लोग, आज की वैश्विक व्यवस्था जो वाशिगंटन आम राय कही जाती है उसकी विचारधारा के लोग हैं. फिर ये लोग वर्ल्ड बैंक से जुड़े रहे हैं. ये तो वर्ल्ड बैंक की दृष्टि है. उस दृष्टि को हमें अहमियत नहीं देना चाहिए. वैश्विक पूंजीवाद से अलग चिदंबरम की कोई दृष्टि नहीं है.

•  लेकिन यह तो मानना होगा कि आम आदमी की दृष्टि जहां पहुंचा दी गई है, जो लालसाएं पैदा कर दी गई हैं, वह भी चिदंबरम् को ज्यादा सपोर्ट करती हैं.

आदमी जो कुछ कर रहा है, उसका क्या नतीजा होगा, वह नहीं देख पाता है, ज्यादातर लोग नहीं देख पाते हैं. जो प्रचलित अवधारणाएं होती हैं, आकांक्षाएं होती हैं, उसे ही लेकर चलता है. उसे डेमोस्ट्रेशन इफेक्ट कहते हैं. जैसे आप ने एक अच्छी शर्ट पहन ली तो आपके पड़ोसी की भी तमन्ना जग जाती है कि वह भी ऐसा शर्ट पहने. पूंजीवादी व्यवस्था ऐसी चीजों को और प्रमोट करती है.

गांव के लोगों में भी ऐसी ही लालसा पैदा कर दी गई हैं. अब गांव के आदमी के लिये मोबाइल फोन की कितनी उपयोगिता है, यह मैं नहीं समझ पाता. हालांकि उसकी भी उपयोगिता तो होती है लेकिन वह कितनी है, इसे हम नहीं देख पाते.

मैं देखता हूं कि गांव का आदमी जा रहा है. एक हाथ में साइकिल की हैंडिल है और दूसरे हाथ में मोबाइल फोन है. देखा देखी भी ऐसा होता है. लेकिन इससे हम यह अंदाजा नहीं लगा सकते कि उसे मोबाइल की जरूरत है या नहीं. चूंकि दूसरा कर रहा है, हम नहीं करेंगे तो एक अभाव की भावना उसके अंदर होगी, ये उसका असर है.

•  आपने आजादी के आंदोलन में भाग लिया, सोशलिस्ट आंदोलन को काफी करीब से देखा. दूसरे आंदोलनों की हालत देखी है आपने. आंदोलनों का जो दौर है, उपभोग की लालसा है, वर्ल्ड बैंक का दबाव है, उससे बच निकलने और फंस जाने के तमाम रास्ते और युक्तियां है, इनके बीच क्या यह निराश होने का समय है?
अगर स्थितियां निराश करने वाली हों तब भी इसके खिलाफ हमें लडऩा चाहिए. जैसे एक शक्तिशाली प्रवाह है उसमें बहते जा रहे हैं, डूबते जा रहे हैं, भले ही हमारी कम शक्ति हो, जिन शक्तियों के खिलाफ हम डर रहे हैं वह बहुत विशाल लगे, फिर भी हमें तैरकर कोशिश तो करनी है कि धारा के विपरीत हम अपनी रक्षा करें.

चाहे जो कुछ भी हो हमको तो इसके खिलाफ लडऩा है. चूंकि भविष्य इस रास्ते से चलकर सीधा दिखाई देता है कि चाहे विश्व युद्ध से हो या पर्यावरण के क्षय से हो हम इस पूरे मानव समाज को नष्ट करने जा रहे हैं इस रास्ते में चल करके. इसके खिलाफ तो हमको कुछ करना ही है, चाहे सफल हो या न हो.

प्रवाह इतना तेज है और समाज तैरना भूल गया है?

जो भी हमारी शक्ति और बुद्धि हो, उसके सहारे लोगों को तैयार करना है. गांधी जी इतनी बड़ी हैसियत थे उनका प्रभाव था फिर भी वो कितना सफल हो पाए वो अपने समय में? जरूरी नहीं है कि हम जो सही बात कहते हैं कि वो एक खास समय में सफल भी हो जाए. और तो और, सांप्रदायिक सद्भाव की बात ही लें जिसके लिए उनकी जान चली गई. लेकिन इतने बड़े प्रभाव के होते हुए भी रूक तो नहीं पाया. कहीं-कहीं जैसे कलकत्ता में जब वे उपवास में बैठे तो कुछ प्रभाव दिखा, लेकिन समग्रता में तो वो भी सफल नहीं हो सके. इससे यह तो नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि गांधी जी गलत थे, उनको ऐसा नहीं करना चाहिए था. हां बल्कि बाकी लोगों को, जिन्हें उनके रास्ते पर चलना था नहीं चले.

आज हम यही कह सकते हैं कि दुनिया पर जो संकट है, उसे समझ पा रहे हैं, उसका कारण समझ पा रहे हैं. अगर हमें लगता है कि गांधी जी ने जो रास्ता बताया है, उसमें कारगर हो सकता है तो हमें तो अपनी पूरी बुद्धि और शक्ति के साथ उसे सफल बनाने में लग जाना चाहिए. उसके अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखाई देता.

http://raviwar.com/baatcheet/B38_interview-sachhidanand-sinha-by-alok-putul.shtml
 

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