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साक्षात्कार | गांव के लोगों की ही देन है आरटीआइ आंदोलन

गांव के लोगों की ही देन है आरटीआइ आंदोलन

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published Published on Sep 8, 2013   modified Modified on Sep 8, 2013

आरटीआइ कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल किसी परिचय के मोहताज नहीं है. वे आरटीआइ कानून के अमल में आने के बाद से ही लगातार इस हथियार के जरिये आम जनता के हित में लड़ाई लड़ते रहे हैं. चाहे मामला न्यायपालिका में फैले का भ्रष्टाचार का हो या फिर राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने का उन्होंने यह मुहिम निरंतर जारी रखी है. इतना ही नहीं वे नौजवान पीढ़ी की ओर आरटीआइ कानून को आगे बढाने के लिए बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं. प्रस्तुत है आरटीआई कानून के विभिन्न पहलुओं पर सुभाष अग्रवाल से संतोष कुमार सिंह की बातचीत के प्रमुख अंश

 
ग्रामीण इलाकों में अभी भी लोग सूचना के अधिकार के तहत मामला दर्ज करने से हिचकते हैं? अगर कुछ लोग हिम्मत करके सूचना मांगते भी हैं तो अपील दर अपील इतना वक्त गुजर जाता है कि लोग थक हार कर बैठ जाते हैं?
देखिए, ज्यादातर राज्यों में राज्य सूचना आयोग की हालत खराब है. बिहार की स्थिति बहुत खराब है, और झारखंड की स्थिति को भी बेहतर नहीं कहा जा सकता. पंजाब और हरियाणा में आरटीआइ का काम ठीक चल रहा है. लोग सूचना मांग रहे हैं, अपील कर रहे हैं, और उनके अपील पर जवाब भी दिया जा रहा  है. सूचना आयोग की स्थिति और उसका कामकाज सूचना आयुक्तों पर निर्भर करता है. अगर सूचना आयुक्त ठीक हैं तो काम काज बेहतर होता है. अगर सक्षम सूचना आयुक्त है तो नीचे के स्तर पर सही जवाब मिलता है. अगर सूचना आयुक्त ठीक नहीं है तो नीचे के अधिकारियों को काम न करने का शह मिलता है, और वे टालमटोल का रवैया अपनाते हैं. जहां तक ग्रामीण इलाकों का सवाल है, आरटीआइ का आंदोलन राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में ही खड़ा किया गया था, और ग्रामीणों ने बढ-चढकर इसमें हिस्सेदारी भी की थी. अगर ग्रामीण इस दिशा में पहले की तुलना में कम पहल कर रहे हैं तो निश्चित रूप से सिविल सोसाइटी की अहम भूमिका है. गांवो के लोगों को और जागरूक किये जाने की जरूरत है. एनसीपीआरआइ जैसे संस्थान गांवो में अभियान चला रहे हैं, और संस्थानों को भी इस दिशा में आगे आना होगा.
 
आरटीआइ कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने या उनकी हत्या के कारण भी लोग हिचक ते हैं?
इसके समाधान के लिए ह्विसल ब्लोअर प्रोटेक्शन बिल तैयार किया गया है, यह बिल पारित होने के बाद शायद इस तरह की घटनायें कम हों. लेकिन सूचना आयोग ने अपने स्तर पर पहल करते हुए यह नियम बना दिया है कि जिस भी आरटीआइ कार्यकर्ता की हत्या हुई है, और उसने जिस मामले में सूचना मांगी थी, उसके मांगे गये सूचना पर तेजी से कार्रवाई हो, और उसके रिस्पांस को वेबसाइट पर डाला जाये.  ऐसा करने से माफियाओं का मनोबल टूटेगा, क्योंकि जिस वजह से उसने आरटीआइ कार्यकर्ता की हत्या करवाई, उसका उद्देश्य सफल नहीं होगा. और एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आम जन की सुरक्षा के प्रति हमारे जनप्रतिनिधि कम ही सक्रिय होते हैं. ये तभी सक्रिय होंगे जब वीआइपी के रूप में उनका स्टेटस सिंबल खत्म हो. सिर्फ अति महत्वपूर्ण लोगों को ही सुरक्षा प्रदान किया जाये. इससे पुलिस बल पर दबाव भी कम होगा और आम लोगों के प्रति पुलिसिया जवाबदेही भी बढेगी.
 
कई राज्यों में पंचायत स्तर पर भी काफी भ्रष्टाचार है, ऐसे में पंचायतों में आरटीआइ की भूमिका कितनी देखते हैं?
अच्छा तो यही होता कि पंचायत और पंचायत प्रतिनिधि खुद-बखुद आरटीआइ की जानकारी आमलोगों तक पहुंचाने में, आरटीआइ दाखिल करने में ग्रामीणो की मदद करते. लेकिन देखा जा रहा है कि खुद प्रतिनिधि ही भ्रष्टाचार में संलिप्त है. ऐसे में उनसे तो उम्मीद कम ही है, लेकिन इस दिशा में ग्राम सभा विशेष पहल कर सकती है, क्योंकि ग्राम सभा ही सही मायने में ग्रामीणों की
प्रतिनिधि है.
 
सूचना आयुक्तों के नियुक्ति की प्रक्रिया भी अक्सर सवालों के घेरे में होती है? भाई भतीजावाद या चहेतों को खुश करने की कोशिश के भी आरोप लगते रहे हैं?
कुछ माह पहले नमित शर्मा के मामले में अदालत द्वारा यह कहा गया कि सूचना आयुक्त के पद पर उन्हीं लोगों की नियुक्ति हो सकती है, जिसे कानून का ज्ञान हो अर्थात लॉ विशेषज्ञ. सेवानिवृत जज ही इसके अध्यक्ष हो सकते हैं. इसके बाद पारदर्शिता को लेकर बात चली थी. लेकिन नमित शर्मा के मामले के बाद सिविल सोसाइटी द्वारा अदालत में रिव्यू पेटिशन डाला गया और उसके स्पष्टीकरण में जो अदालत ने कहा है, उससे पारदर्शिता की रही सही उम्मीद भी खत्म होने की परिस्थिति बन रही है. अदालत ने अपने स्पष्टीकरण में कहा है कि यह एक प्रशासनिक निकाय है इसलिए इसमें संसद सदस्य या अन्य लोगों को भी शामिल किया जा सकता है.
 
अभी हाल ही आपने राजनीतिज्ञों दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने के लिए अपील किया था? इस पर सूचना आयुक्त द्वारा दिये गये फैसले के खिलाफ राजनीतिक दल एकजुट हो गये. वजह क्या है?
वजह साफ है. पोल खुलने का डर. वह भी यह कहते हुए कि हमारे विषय में सारी जरूरी सूचनाएं चुनाव आयोग और इनकम टैक्स विभाग के पास है. केंद्रीय सूचना आयोग ने इस अपील की महत्ता को समझते हुए ही भारत के छह बड़े राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकरण मानते हुए आरटीआइ के तहत जबावदेह करार दिया था. सूचना आयोग ने स्पष्ट किया था कि राजनीति की पारदर्शिता के लिए यह जरूरी है.  लेकिन हमारे राजनीतिक दल संसद की प्रचलित परंपरा के खिलाफ इस मसले पर एकजुट हुए और सर्वसम्मति से आरटीआइ कानून में संशोधन का निर्णय लिया. कैबिनेट ने आरटीआइ एक्ट में संशोधन किये जाने के फैसले को मंजूरी दे दिया है, और हो सकता है कि संसद की मंजूरी भी मिल जाये. यह एक तरह आरटीआइ एक्ट के लिए बहुत ही घातक होगा.
        
सबसे बड़ी बात है कि हमारे लोकतंत्र की अवधारणा जिसमें बाई द पिपल, फॉर द पिपल, ऑफ द पिपल की सोच को दूषित करते हुए बाई द पॉलिटिशियन, फॉर द पॉलिटिशियन, ऑफ द पॉलिटिशियन बना कर रख दिया है. यह एक फैसला जो राजनीतिक दलों और नेताओं के गिरते हुए साख को बहाल करने में मददगार साबित होता, राजनीतिक दलों ने ऐसा कर यह मौका भी गंवा दिया है. लेकिन जिस तरह से राजनीतिक दल एकजुट हैं, उसी तरह आरटीआइ पर काम करने वाले लोग भी इस मसले पर एकजुट हैं कि किसी भी कीमत पर राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने की लड़ाई को जारी रखना है. इसलिए उम्मीद बरकरार है.
 
कहा जाता है कि सुभाष अग्रवाल द्वारा दायर किये गये आरटीआइ की एक लंबी फेहरिश्त है. अब तक कितनी आरटीआई दाखिल कर चुके हैं?
मैंने अभी तक 6000 पिटीशन दाखिल किया है, जिसमें 600 सीआइसी के पास पहुंचे हैं. वैसे तो जिस भी विषय पर मैं आरटीआइ दाखिल करता हूं वह यही सोच कर होता है कि विषय लोक महत्व का है और जनता को इसके विषय में सूचना होनी चाहिए. मैंने आरटीआइ दाखिल कर जजों से संपत्ति का ब्योरा दने के संबंध में सवाल पूछा इसके बाद ही सर्वोच्च न्यायालचय ने व्यवस्था दी कि उसके सभी जज अपनी संपत्ति सार्वजनिक तौर पर घोषित करें. पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के विदेश दौरे से प्राप्त गिफ्ट का सवाल हो या  2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, राष्ट्रमंडल खेलों में अनियमतितायें एवं भ्रष्टाचार, सीवीसी की नियुक्ति में गड़बड़ी, निजी विश्वविद्यालयों के शुल्क की व्यवस्था, वंदे मातरम का अपमान आदि कितने सवाल है जिसपर आरटीआई के जरिए मैने जनता के सामने इन मामलों को लाने में सफलता प्राप्त की. राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने के सीआइसी के फैसले पर देख ही चुके हैं, कितना बवाल मचा. अभी मैने हाल ही दिल्ली गोल्फ क्लब के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए आरटीआइ दाखिल किया है.
 
ऐसे में यह सवाल उठता है कि सूचना के अधिकार के अब तक के सफर से आप कितने संतुष्ट हैं? अभी और कितनी दूरी तय करनी है?
निश्चित रूप से अभी तक का सफर काफी संतोष जनक रहा है, लेकिन संतुष्टता का मतलब यह कदापि नहीं है कि सफर रुक जायेगा. रोज नयी चुनौतियां सामने आयेंगी और आरटीआइ पिटीशन निरंतर बहने वाली धारा है. आज हम हैं कल कोई और गवर्नेस की व्यवस्था में सुधार लाने के लिए पहल करता हुआ दिखेगा. हमलोग तो इसी उम्मीद में लगे हुए हैं कि नौजवान पीढ़ी आगे आयेगी, और लोग आगे आ भी रहे हैं. सूचना आयोग की पहल पर एक अच्छी बात यह हुई है कि एनसीआरटी की पाठ्य पुस्तकों पर सूचना के अधिकार के विषय में जानकारी दी जायेगी. इससे निश्चित तौर पर स्कूली बच्चों में जागरूकता आयेगी और वे आगे चलकर जिम्मेवार नागरिक बनते हुए अपने अधिकार का प्रयोग करेंगे और इस कानून में और ज्यादा
रुचि लेंगे.
 

http://www.prabhatkhabar.com/news/42164-story.html


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