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साक्षात्कार | जीरो बजट कृषि का विचार नोटबंदी की तरह घातक है- राजू शेट्टी
जीरो बजट कृषि का विचार नोटबंदी की तरह घातक है- राजू शेट्टी

जीरो बजट कृषि का विचार नोटबंदी की तरह घातक है- राजू शेट्टी

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published Published on Jul 10, 2019   modified Modified on Jul 10, 2019

शून्य बजट प्राकृतिक कृषि को लेकर एक स्वाभाविक आकर्षण है क्योंकि यह कृषि जैसे मुश्किल व्यवसाय को सरलता से प्रकट करता है। शून्य बजट प्राकृतिक कृषि में जोखिम कम होता है और पूंजी की आवश्यकता नहीं के बराबर होती है। इसे विदर्भ के किसान नेता सुभाष पालेकर द्वारा गढ़ा गया है जिन्हें 2016 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। शून्य बजट प्राकृतिक कृषि को वैसा ही स्थान मिला है जैसा कि कौशल भारत को 2015 में मिला था। आर्थिक विकास के लिए भारत के नवीनतम मंत्र में शून्य बजट कृषि को लाने का श्रेय केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को जाता है, जिन्होंने 5 जुलाई को अपने बजट भाषण में भारत के कृषि संकट को हल करने और किसानों की आय दोगुनी करने के लिए इसे रामबाण के रूप में बताया।

 

शून्य बजट प्राकृतिक कृषि क्या है? क्या यह भारत में दशकों पहले जैविक खेती या पारंपरिक कृषि पद्धति के तरीकों से अलग है? पूर्व सांसद राजू शेट्टी का मानना है कि ये पारंपरिक पद्धति से अलग नहीं है। शेट्टी महाराष्ट्र के अग्रणी किसान नेता और स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के अध्यक्ष हैं। इस साक्षात्कार में शेट्टी बताते हैं कि शून्य बजट कृषि को अगर बड़े पैमाने पर लागू किया जाता है तो भारत और खाद्य सुरक्षा के लिए विनाशकारी साबित होगा।

 

एजाज़: शून्य बजट प्राकृतिक कृषि को लेकर आप क्या सोचते हैं जिस पर केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बयान देने के बाद चर्चा का विषय बन गया है?

 

राजू शेट्टी: शुरू से मेरी आपत्ति शून्य बजट कृषि शब्द को लेकर है। किसान अपने खेत में वैसे ही मेहनत करते हैं जैसे कृषि श्रमिक करते हैं। क्या उनके श्रम की कोई क़ीमत नहीं है? किसानों को पानी की आवश्यकता होती है जिसके लिए उन्हें बिजली की ज़रुरत पड़ती है। क्या इन सबका हिसाब नहीं रखा जाना चाहिए? भारत में किसी प्रकार की ऐसी कोई कृषि नहीं है जिसे शून्य बजट कहा जा सकता है।

 

लेकिन शून्य बजट प्राकृतिक कृषि को श्रेय लिए बिना कृषि में संलग्न होने, रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल न करने, पानी पर निर्भरता कम करने और पारंपरिक प्रथाओं को अपनाने के तौर पर परिभाषित किया गया है।

 

शून्य बजट कृषि जैविक कृषि से अलग नहीं है। मैं खुद एक किसान हूं। मैंने कोल्हापुर में अपने खेत में इन कृषि पद्धतियों का इस्तेमाल किया है। हां, कृषि के आधुनिक तरीकों की तुलना में कम पानी और कम लागत से खेती करना संभव है। लेकिन आप इसे शून्य बजट कृषि नहीं कह सकते हैं जिसमें इसकी मात्रा बहुत कम है। विदर्भ से संबंध रखने वाले सुभाष पालेकर ने शून्य बजट शब्द गढ़ा था। महाराष्ट्र के विदर्भ में सबसे ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।

 

क्या आपको शून्य बजट प्राकृतिक कृषि के नामकरण के अलावा कोई दूसरी आपत्ति है?

 

मेरी आपत्ति यह है कि अगर आप हाइब्रिड बीज, यूरिया, कीटनाशक और ट्रैक्टर जैसे मशीनरी का इस्तेमाल नहीं करते हैं तो कृषि उत्पादकता निश्चित तौर पर घटेगी। कई ऐसे किसान हैं जो जैविक खेती करते हैं। जैविक खेती को आर्थिक रूप से व्यवहार्य होने के लिए इसकी उपज को कृषि के आधुनिक तरीकों से उत्पादन किए गए उपज की तुलना में अधिक क़ीमत पर बेचना होगा। जैविक कृषि से उपज काफी कम होती है।

 

शायद समस्या यह है कि हर कोई सस्ती दरों पर उपलब्ध वस्तु के लिए ज़्यादा कीमत देने को तैयार नहीं है।

 

जैविक कृषि से हुई उपज आधुनिक कृषि की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक और स्वादिष्ट भी है। हालांकि हमारे देश में बड़ी संख्या में लोग हैं जो अपनी भूख मिटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी आर्थिक कमजोरी ने उन्हें यथासंभव सस्ते दर पर भोजन खरीदने को विवश किया है। वे स्वस्थ रखने के लिए नहीं खाते हैं। वे लुत्फ उठाने के के लिए भोजन नहीं खाते हैं। वे तो सिर्फ ज़िंदा रहने के लिए खाते हैं। मुझे लगता है कि ऐसे लोग भारत की आबादी के 40% से 45% तक हैं। आबादी के इस वर्ग के लिए सरकार खाद्य क़ीमतों को नियंत्रित करती है या खाद्य उत्पादों के निर्यात और आयात को नियंत्रित करती है। क्यों, मध्यम वर्ग पेट्रोल के लिए ज़्यादा क़ीमत देने पर ध्यान नहीं देता है बल्कि यह चावल और गेहूं के लिए कम कीमत देना चाहता है?

 

यदि देश के लोगों की मानसिकता यथासंभव सस्ते दाम पर भोजन खरीदना है तो फिर मुझे बताएं कि जैविक या शून्य बजट कृषि से क्या लाभ हो सकता है?

 

क्या हरित क्रांति के आने से पहले भारत की पारंपरिक पद्धति को जैविक कृषि नहीं कहा जा सकता है?

 

हरित क्रांति तक लोग वास्तव में कीटनाशकों या उर्वरकों का उपयोग नहीं करते हैं। वह वास्तव में जैविक खेती थी। लेकिन यह भी सच है कि तब भारत की कृषि उपज और उत्पादकता बहुत कम थी। हमारी आबादी लगभग 50 करोड़ थी। फिर भी हमने खाद्य पदार्थों की कमी को पूरा करने के लिए चावल, गेहूं, दालों आदि का आयात किया। खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करना था जिसको लेकर हमने हरित क्रांति का निर्णय लिया।

 

आज हमारी आबादी लगभग 136 करोड़ है। आपको शून्य बजट कृषि के माध्यम से उनके लिए खाद्यान्न कहां से मिलेगा? यह सरासर मूर्खता है। ज़ीरो बजट कृषि उतनी ही क्रूर है जितना कि नोटबंदी का विचार। अगर इसे लागू किया जाता है तो यह नोटबंदी की तरह देश को बर्बाद कर देगा।

 

पालेकर ने दावा किया है कि शून्य बजट कृषि अपनाने वाले किसानों में से किसी ने भी आत्महत्या नहीं की है।

 

[हंसते हुए कहते हैं] आपको सात-आठ दिनों के लिए महाराष्ट्र आना चाहिए और मैं आपको अमरावती ले जाऊंगा। मैं अक्सर वहां जाता हूं। आप स्वयं अमरावती की वास्तविकता देख सकते हैं। मैं आपको उन किसानों की आर्थिक स्थिति भी दिखा सकता हूं जो जैविक खेती कर रहे हैं।

 

शून्य बजट कृषि के विचार के पीछे राजनीति क्या है?

 

पालेकर का विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के वैश्विक दृष्टि का प्रतिबिंब है जो मानता है कि ऋषियों और मुनियों की हर चीज में काफी गहरी समझ थी। आरएसएस इस तरह की खेती की ओर लौटना चाहता है जो सदियों पहले की गई थी। यह मानता है कि किसानों को उसी तरह से मेहनत करना चाहिए जिस तरह से जानवरों ने अतीत में किया था।

 

लेकिन यह सरकार तकनीक को भी बढ़ावा देती है। उदाहरण के लिए इसने स्मार्ट सिटी की अवधारणा तैयार की है।

 

वे चाहते हैं कि ग्रामीण भारत में लोग वैसे ही रहें जैसे वे हैं। दो देश हैं। एक इंडिया [शहरी] और दूसरा भारत [ग्रामीण]। इंडिया के लोगों को कामगारों की सख्त ज़रूरत है जिन्हें काम पर रखने का ख़र्च बढ़ गया है। वे चाहते हैं कि इंडिया सस्ते दर पर भारत से कामगारों को हासिल करे। वे चाहते हैं कि गांवों में ज्यादा से ज्यादा लोग अशिक्षित रहें। वे नहीं चाहते कि उन्हें विकसित किया जाए ताकि भरत अधिक से अधिक संख्या में कामगार पैदा करे।

 

क्या शून्य बजट कृषि किसानों की आय को दोगुना करने में मदद कर सकती है, जैसा कि दावा किया जा रहा है?

 

[हंसते हुए] यह आय को दोगुना कैसे कर सकता है? ग्लोबल वार्मिंग के चलते बारिश में कमी और अनिश्चितता पैदा हो गई है। शून्य बजट कृषि के चलते किसान बारिश पर निर्भर रहेंगे। अतीत में भी यही हुआ था। लेकिन किसान अब केवल बारिश पर निर्भर नहीं रह सकते हैं। अगर बारिश नहीं होती है तो उन्हें अपनी भूमि को सिंचित करने के लिए बोरवेल की आवश्यकता है। पालेकर मलचिंग के बारे में बात करते हैं, लेकिन...

 

मलचिंग क्या है?

 

मिट्टी में नमी को बनाए रखने के लिए पौधों के चारों ओर पत्तियों के फैलाने को मलचिंग कहते हैं। अगर तीन महीने तक बारिश नहीं होती है तो मलचिंग से क्या प्राप्त हो सकता है? मैं जैविक खेती का विरोधी नहीं हूं। उर्वरक और कीटनाशक के अत्यधिक इस्तेमाल ने बहुत सारी समस्याओं को जन्म दिया है। ये पंजाब और महाराष्ट्र में कैंसर के मामलों में तेजी का कारण हो सकते हैं। हमारी नदियों में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ गई है।

 

हालांकि आप अखिल भारतीय स्तर पर जैविक कृषि को नहीं अपना सकते हैं। बीच का रास्ता निकालना पड़ता है। जैसा कि मैंने आपको बताया मैं कोल्हापुर में जैविक कृषि में भी प्रयोग कर रहा हूं। आधुनिक माध्यम से की गई कृषि की तुलना में उपज आधी होती है।

 

तो यदि आधुनिक तरीकों से की गई कृषि की तुलना में उपज आधी होती है तो इसका मतलब यह है कि किसान शून्य बजट कृषि के माध्यम से अपनी आय को दोगुना नहीं कर सकते हैं।

 

हां। एक तरफ भारत को 5-ट्रिलियन डॉलर तक अर्थव्यवस्था को पहुंचाने की चर्चा है। वहीं दूसरी तरफ ऐसा लगता है कि वे किसानों को ग़रीब बनाना चाहते हैं। यह बड़ी जिम्मेदारी के साथ मैं कहता हूं कि अगर वे शून्य बजट कृषि के साथ चिपके रहे तो भारत को खाद्य सुरक्षा संकट का सामना करना पड़ेगा।

 

क्या बड़े भूखंड के लिए शून्य बजट या जैविक कृषि अपनाना संभव है?

 

यह उन लोगों के लिए संभव है जिनके पास 1.5 या 2 एकड़ भूखंड हैं। वे अपने परिवारों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जैविक कृषि का परीक्षण कर सकते हैं। लेकिन शून्य बजट कृषि का क्रूर विचार 136 करोड़ भारतीयों के भोजन की मांग को पूरा नहीं कर सकता है। इसीलिए आपको कृषि में तकनीक को अपनाना होगा। मिट्टी में कार्बन की कमी के कारण आप जैविक कृषि के माध्यम से इसे फिर से जीवंत कर सकते हैं। लेकिन जैविक कृषि पर पूरी तरह से निर्भरता उत्पादकता को कम करेगी। किसान स्थानीय किस्म के बीजों का उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि उनसे पैदावार कम होती है। इसलिए हमें हाइब्रिड बीजों का इस्तेमाल करना होगा। लेकिन कीटों के प्रति उसकी प्रतिरोधक क्षमता कम है। इसलिए हमें कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है।

 

यह दावा किया जाता है कि पालेकर ने राज्य रैथा संघ के साथ काम किया और कर्नाटक में शून्य बजट कृषि को सफल बनाया।

 

ये प्रवृत्ति उन लोगों के उदाहरणों का हवाला देती है जिन्होंने अपने 1.5 या 2 एकड़ खेतों में जैविक खेती की और बाजार में उच्च मूल्य पर उपज बेची। मान लें कि एक गांव में एक हज़ार किसान हैं और वे सभी जैविक खेती करते हैं। क्या आपको लगता है कि उन्हें खरीदार मिलेंगे? उन्हें नहीं मिलेंगे। क्रिकेट को लेकर जो सच्चाई है वही जैविक खेती का भी है। 136 करोड़ लोगों के देश में आपके पास एक ही सचिन तेंदुलकर है। हर कोई तेंदुलकर नहीं बनता।

 

आपकी पार्टी ने 2014 में बीजेपी के साथ गठबंधन किया था। आप इस गठबंधन से क्यों अलग हो गए?

 

मैंने भारतीय जनता पार्टी के कृषि के प्रति रवैये को कभी पसंद नहीं किया है। एक कारण यह है कि वे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 में संशोधन करना चाहते थे। यह विकास के नाम पर किसानों की भूमि को हड़पने की साजिश थी। मैं इसके निर्यात-आयात नीति का भी विरोधी था। मन की बात कार्यक्रम में मोदी ने कहा कि भारत के आत्मनिर्भर बनाने के लिए किसानों को पहले की तुलना में अधिक मात्रा में खाद्य तेल के बीज बोने चाहिए। उन्होंने कहा कि वह इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाएंगे। इसके बावजूद उन्होंने मोजाम्बिक से खाद्य तेल आयात करने की अनुमति दी। उन्होंने मलेशिया से पाम आयल का आयात किया। आयात की वजह से पिछले दो वर्षों में चीनी की कीमत कम रही है। गन्ने के भारी बकाए का बड़ा कारण सरकार की दोषपूर्ण आयात नीति है। किसानों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है वह प्राकृतिक कारणों से नहीं बल्कि सरकारी नीतियों के कारण है। बीजेपी की दोषपूर्ण कृषि नीतियों ने मुझे इससे गठबंधन तोड़ने के लिए मजबूर किया।

 

लेखक दिल्ली के स्वतंत्र पत्रकार हैं।


https://hindi.newsclick.in/jairao-bajata-karsai-kaa-vaicaara-naotabandai-kai-taraha-ghaataka-haaih-raajauu-saetatai?fbclid=IwAR0g96hYI019UB23_X1cXjmFB0ThVxO8gFyLUjtN5B7EJP5g1WI8S65Amkw
 

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