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साक्षात्कार | हमारी खेती अमेरिका से अच्छी- वंदना शिवा

हमारी खेती अमेरिका से अच्छी- वंदना शिवा

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published Published on Apr 23, 2010   modified Modified on Apr 23, 2010
वंदना शिवा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खेती के सवाल पर लगातार लड़नेवाली लड़ाका हैं. वे इंटरनेशनल फोरम आन ग्लोबलाईजेशन की सदस्य हैं. उनसे एक महत्वपूर्ण बातचीत.विस्फोट डाट कॉम से साभार)
दूसरी हरित क्रांति की बात हो रही है. आपकी असहमति और सहमति किसरूप में रेखांकित होती है?

मैंनेजब 1984 में हरित क्रांति का विरोध शुरू किया था तो इसके पीछे एक मकसद था। कहा जाताथा कि पंजाब में हरित क्रांति से खुशहाली आएगी। चीन में लाल क्रांति हुई लेकिन भारतमें बीजों के द्वारा होगी क्रांति। कहा गया कि हरित क्रांति से किसान संपन्न होंगे।संपन्न किसान कभी हथियार नहीं उठाएंगें। लेकिन 80 के दशक में तो बंदूक ही बंदूक थी।पंजाब में खालिस्तान बनने लग गया था।

हरित क्रांति अनाज उगाने की क्रांतिनहीं बल्कि रासायन बेचने की क्रांति थी। रासायनिक उत्पादों के बाजार बनाने के चक्कर में आपने अपनी फसलों को गायब कर दिया। इस देश में कमी किस चीज की है? इस देश मेंप्रोटीन की कमी है। इस देश में तेल की कमी है। जबकि हरित क्रांति के नाम परतिलहन और दलहन ही गायब कर दिए गए। जो बदलाव हुआ उसमें यहतय हो गया कि आप मिश्रित खेती की जगह पर अकेला गेहूं और चावल उगाओगे। जबकि यदि आपउतना जमीन और पानी गेंहू और चावल के उत्पादन पर लगा देते तो यहां के किसान बिनाकिसी नए बीज के उतना गेंहू चावल उगा लेते। हमारे पुराने बीजों इतने क्षमता वाले थे।फिर उसी हरित क्रांति और रासायनिक खेती की वजह से किसानों के खर्च बढ़ गए। परपहले उस खर्च को सब्सिडी के नाम पर छिपाया गया। जब धीरे धीरे सब्सिडी हटायी जानेलगी तब किसानों को इसकी असलियत का पता चला। पंजाब के किसानों को यह लगने लगा है किवह खर्च ज्यादा करते हैं और तुलना में मिलता कम है।

किसान क्या उगाएगा यह भी वह तयनहीं कर पा रहा है। यह दिल्ली और वाशिंगटन में बैठी सरकारें तय कर रही हैं। तभीवहां 80 के दशक में आतंकवाद शुरू हुआ। 90 के दशक में वही संकट और भी गहरा होता चलागया। अब किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। यह कोई खाद्य सुरक्षा का रास्ता है? यहतो किसानों को खत्म करने का रास्ता है।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में खाद्यान्न की कमी है। इसी वजह से गेंहू काआयात करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अनाजों के दाम बढ़ गए?

इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय ताकत लगी हुई है। देश के अंदर और बाहर की वही ताकतेंहैं जो हमें कह रही है कि दूसरी हरित क्रांति के लिए नए जेनेटिकली मोडिफाइड बीजचाहिए। इसीलिए अमरीका के साथ बिना सोचे समझे नॉलेज एग्रीमेंट आफ एग्रीकल्चर करलिया। वह यह कहना चाहती है कि आप हमारे मोनसेंटो के बीज ले करके गुलाम बनो, क्योंकिआपको ज्यादा उत्पादन करना है। वही ताकतें दूसरी तरफ कहती है कि आप अनाज मत उगाओ आपआयात करो। पिछले साल 55 लाख टन गेंहू का आयात हो चुका है। बीस लाख टन गेंहू और आयातकरने के लिए अमरीका दबाव डाल रहा है। हमारे आंकड़े बता रहे हैं कि अपना उत्पादन 73 मिलियन टन है,लेकिन वाशिंगटन में बैठा अमरीकी प्रशासन कहता है, नहीं आप अपने आंकड़ों मेंफेरबदल करिए ताकि आप आयात की जरूरत दिखा पाओ। अब यह तो हो नहीं सकता है कि आप एकतरफ उत्पाद बढ़ाने के नाम पर मोनसेंटों के नए बीज चाहिए और दूसरी तरफ आयात बढ़ाने के लिए भीकहें। यह नीति और वैज्ञानिक समझ के स्तर पर फरेब हो रहा है। यह छोटे किसानों कोखत्म करने व देश को गुलाम बनाने का तरीका है। 77 प्रतिशत देश की आबादी आज भूखी है। 2400 कैलोरी रोज खाने की जरूरत होती है लेकिन आज 77 प्रतिशत भारतीय 1600 कैलोरी खारहा है।

अमरीकाजैसे देश में उत्पादन ज्यादा क्यों होता है? हमारे यहां अभी भी पुरातन तरीके वालीखेती पर जोर दिया जाता है?

हमारा उत्पादन कम नहीं है।  हमारा उत्पादन अमरीका से कहीं ज्यादा है। अमरीका कीआबादी ही कितनी है। फिर हम अकेले सोयाबीन और मक्का नहीं उगा रहे हैं। हमें मिश्रितफसलें उगानी होती है। यदि आप पूरी विविधता का उत्पादन देखेंगे तो आज भी भारत काउत्पादन अमरीका से ज्यादा है। अमरीका में उत्पादन की व्यवस्था निगेटिव अर्थव्यवस्था है। वहां दस कैलोरी खर्च करके एककैलोरी पैदा करते हैं। उनकी औद्योगिक अर्थव्यवस्था का आधार सस्तेपेट्रोलियम पर टिका था। सस्ते तेल का जमाना खत्म हो गया है। इसलिए अमेरिका का सारा ढांचा टूट रहा है. उनकी खेती का ढांचा भी टूटेगा. हमारी खेती इकोलॉजिकल है। हमारी खेती मेहनत की खेती है। पेट्रोलियम आधारितखेती नहीं है। आज उसी इलाके में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं होरही हैं जहां बीटी कॉटन पहुंचा है. अमेरिका का अनाज जहरीला और घटिया होता है। हम अमरीका का मॉडल नहीं अपना सकते।

यदि हम जरूरत के मुताबिक अनाज पैदा कर लेते हैं तब लोगों को भूखा क्यों रहनापड़ता है?
हमारी खेती मेहनत की खेती है पेट्रोलियम आधारित खेती नहीं है। अमेरिका का अनाज जहरीला और घटिया होता है। हम अमरीका का मॉडल नहीं अपना सकते. 
क्योंकि हमारे समाज में न्याय नहीं है। हमारे यहां तो 1942 में भी चावल की कमीनहीं थी। उत्पादन की दिक्कत नहीं थी। 20लाख लोग तब भी मरे, क्योंकि बंगाल मेंब्रिटिश लोग धान निर्यात कर रहे थे। तब तेभागा आंदोलन हुआ। जमींदारी भगाई गई।भुखमरी हरित क्रांति की वजह से नहीं बल्कि वह तेभागा आंदोलन और जमींदारी खत्म होनेसे भागी। आज क्यों लोग भूखे हो रहे हैं, क्योंकि यहां खेती की ऐसी तकनीक आ रही हैजिसमें किसानों की लागत बढ़ती जा रही है। वह जो कुछ उगाता है उसे बेचना पड़ता है।क्योंकि उसके सर पर आढ़ती, बैंक और सूदखोरों का ऋण है, पर अपने परिवार को नहीं खिलापाया। वह अनाज को घर में नहीं रख सकता है। भूख ग्रामीण इलाकों में है। उनके बीच है जो अनाज उगा रहे हैं।देश में खाने की कमी नहीं है। अपने देश में 73 मिलियन टन गेंहू की पैदावार है और खपत 60 मिलियनटन है।

खेती पर खर्च बढ़ रहा है। जाहिर है रासायनिक और कीटनाशक से खेती को मुक्त करनापड़ेगा। इसके लिए नीति के स्तर पर किस तरह के प्रोत्साहन की जरूरत है?

इसकी नीति बहुत ही साधारण है। हमने 1965 से अमरीका के कहने पर रासायनिकउत्पादों को सब्सिडाइज किया। पूरे देश में रासायनिक उत्पादों का बाजार चला दिया। आजयदि रासायनिक उत्पादों से मुक्त खेती करनी है तो इसकी तीन जरूरते हैं। पहलाकिसानों की आत्महत्या को रोकना पड़ेगा। आत्महत्या ऋण से जुड़ा है और ऋण रासायनिकउत्पादों से जुड़ा हुआ है। अगर किसान आत्महत्या रोकना है तो आपको रासायनिक उत्पादोंसे मुक्त खेती को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए आपको 11वीं पंचवर्षीय योजना में नीतिगतफैसले करने पड़ेगे। रासायनिक खेती दस गुणा ज्यादा पानी पीती है। देश के लोग पानी पीनहीं पा रहे हैं,खेती में कहां से लगा पाएंगें। हमारे शोध ने दिखाया है कि आर्गेनिक खेती करके बिनाउत्पादन पर घाटा खाये 70 प्रतिशत तक पानी की कमी कर सकते हैं। तीसरा कि यदिरासायनिक प्रभाव हटाना है तो खाने के चीजों से इसे अलग रखना होगा। आप नीति बनाइए, इस देशके लिए। दुख की बात है कि इस देश की नीति बन रही है वाशिंगटन में।नॉलेज एग्रीमेंट आफ एग्रीकल्चर हस्ताक्षर किए हैं उसके बोर्ड में मोनसेंटो औरवालमार्ट है। भारत को अंतरराष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार बनाया जा रहाहै। ये नीति इस देश को खत्म कर देगी.

फूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड बिल कोखाद्य सुरक्षा के हित में बताया जा रहा है। लेकिन आप इससे असहमत बतायी जाती हैं।क्यों?

यह फूड सेफ्टी बिल आबाद करने के लिए नहीं बर्बाद करने के लिए है। इस बिल का बहानाक्या है?हमारा खाद्य सुरक्षित नहीं अब हम सुरक्षित खाना खाएंगे. क्या भारतके लोग ज्यादा बुरा खाना खा रहे थे। अमरीका से ज्यादा अच्छा खाना खा रहे हैं।हमारे खाने में आज भी स्वाद है। वहां का सारा खाना इंडस्ट्री प्रोसेस्ड है। इस देशमें एक कानून था प्रीवेंशन आफ फूड एडलट्रेशन एक्ट। उस एक्ट के तहत खाने में गलत चीजडाल ही नहीं सकते थे। इसकी वजह से आप खाने को इंडस्ट्रीलाइज नहीं कर पा रहे थे।क्योंकि इंडस्ट्रीलाइज फूड में एक एक खाने में बीस बीस तरह केरासायनिक उत्पाद मिलाने पड़ते हैं. ये जो नया फूड सेफ्टी स्टैण्डर्ड बिल है इसके दोआब्जेक्टिव हैं। पहला कि यह अनसेफ फूड लाने का बिल है। मंत्रीजी ने कहा कि इससे तीसप्रतिशत तक फूड प्रोसेसिंग बढ़ जाएगी। पैकेज्ड फूड में इतना केमिकल होता है कि इसे स्वास्थ्य के लिए अच्छा खाना नहीं समझा जाता है।आठ महीने बाद क्या खाना सलामत रह पाता है?तब तक तो उसे सड़ जाना चाहिए। रासायन की वजह से वह बचा रह पाता है। ऐसे में यह कहनाकि पैकेज्ड फूड का प्रतिशत बढ़ेगा और इससे स्वास्थ्य बनेगा, कहना गलत है। दूसराइसमें जो स्टैण्डर्ड डाले गए हैं, वह स्टैण्डर्ड भारत की खाद्य सुरक्षा के खिलाफहै। इसमें किसान को घेर लिया है।

मैंने यूरोप में देखा है कि छोटा किसान कैसे गायबहुआ। आपने कह दिया कि सब्जियों का साइज तय होगा। अब यदि फल या सब्जी छोटा है तो वहबेकार हो गया। यानी कि जो किसान छोटा टमाटर बाजार में लाएगा वह सबस्टैण्डर्ड है।  लेकिन वह असुरक्षित नहीं है। जबकि छोटा आलू, टमाटर आदि स्वास्थ्य के लिए बढ़िया है।मगर जो किसान सबस्टैण्डर्ड लाएगा उसको पांच लाख का जुर्माना। यह किस तरह का सेफ्टी हुआ। यहनई व्यवस्था छोटी खेती को खत्म करेगा। भारत के किसान छोटी खेती पर जी रहा है। यहां के मंत्री कुपमंडूक हैं जोबहुराष्ट्रीय कंपनियों के बहकावे में आ रहे हैं।

एनजीओ का काम व्यवस्था के प्रति उठे गुस्से को खत्म करताहै. अंतरराष्ट्रीय मोनेटरिंगएजेंसी से पैसा लेकर समाज सेवा करना कितना उचित है?

यह एनजीओ भाषा ही बड़ी गड़बड़ है। यूएन में इसे 1970 तक वोलंटरी आर्गेनाइजेशन के तौरपर जाना जाता था। इसमें गौसेवा, दुर्गापूजा करने वाला ग्रुप, सब शामिलथे। उसके बाद थोड़ा बदला। बदलते-बदलते एनजीओ आ गया। इस राजनीतिक बहस में समाज केआंदोलन करने के लिए तो जगह ही नहीं छोड़ा है। अगर आप विश्व बैंक का डिस्कशन देखिए तोइसमें नॉन बिजनेस और बिजनेस दोनों ग्रुप हैं। एनजीओ शब्द की घुसपैठ  समाज कीगतिशीलता को खत्म करने के लिए ही था। क्योंकि हमारे जैसे संस्थान जिसे आंदोलन केसाथ साथ रिसर्च भी करना होता है तो हमें तो सरकार के ढांचे के अंदर काम करना जरूरीहै। सरकार हमें एनजीओ कहती है। हम तो अपने को सामाजिक संस्था कहते हैं।

http://visfot.com/index.php?news=128


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