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साक्षात्कार | ‘आप गलतफहमी के शिकार हैं. हमने भूमि सुधारों को बैकबर्नर पर नहीं डाला है’

‘आप गलतफहमी के शिकार हैं. हमने भूमि सुधारों को बैकबर्नर पर नहीं डाला है’

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published Published on Dec 23, 2011   modified Modified on Dec 23, 2011

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बात करना आसान नहीं. उन्हें केंद्र और राज्य दोनों तरह की सरकारों में काम करने का खासा अनुभव है. वे हिंदीभाषी प्रदेशों के उन गिने-चुने नेताओं में  से हैं जो बढ़िया वक्ता हैं. काफी पढ़े-लिखे हैं और राजनीति के उथल-पुथल वाले 70 और 80 के दशक में उन्होंने आजादी के बाद के, कांग्रेस से अलग धारा में काम करने वाले कई प्रमुख नेताओं के करीब रहकर काम किया है. प्रदेश में आज क्या हो रहा है इसके छोटे से छोटे बिंदु की भी उन्हें गहरी से गहरी जानकारी है. इसके चलते जब वे रौ में अपनी बात कहते हैं और समय की कमी भी आड़े आती है तो सामने वाले के लिए अपनी बात रखने और उनसे कुछ पूछने के मौके काफी सीमित हो जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि आज बिहार में सभी कुछ हरा-हरा है. तमाम सवाल हैं जिन्हें तहलका समय-समय पर उठाता रहा है. कई मुद्दों पर कदम आगे बढ़ाने के बाद नीतीश कुमार द्वारा उन्हें पीछे खींच लेने का मसला है. विशेष राज्य के दर्जे पर उनके चलाए अभियान के अलावा भी कई सवाल हैं जिन पर उस मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है जिसमें पूरा देश नये दौर की राजनीति का मॉडल पुरुष बनने की संभावनाएं तलाश रहा हो. ऐसे ही कुछ सवालों पर नीतीश कुमार की संजय दुबे और निराला के साथ बातचीत के अंश

आप सेवा यात्रा पर हैं. कैसी प्रतिक्रिया मिल रही है?

हम तो यात्रा करते ही रहते हैं, हर यात्रा का रिस्पांस अच्छा ही मिलता है. हर जगह बदलाव की कामना के साथ जनसैलाब उमड़ रहा है.

अखबारों में आया है कि आपने देश से अपना अशोक चक्र वापस देने को कहा है.

(हंसते हैं) अरे नहीं, अशोक चक्र की मांग की बात तो हमने मजाक में कही थी, उसे दूसरे ही तरीके से प्रस्तुत कर दिया गया.

'न्याय यात्रा के दौरान हम अरवल में थे, देखा कि शाम के बाद सड़कें वीरान हैं. लोगों ने बताया कि यहां यही नियति है. अब देखिए कहीं भी शाम के बाद सड़कें सूनी नहीं रहती'

हाल ही में आप पर एक किताब आई है. आपके पिता जी पहले कांग्रेस में रहे...

(बात बीच में काटकर) मैं उस किताब पर कोई बात नहीं करूंगा. अब हमारे बारे में किसी ने लिखा है तो उस पर क्यों बात करें. वह अच्छा लिखनेवाला है, अच्छा ही लिखा होगा. हम तो उस किताब को पढ़ने भी नहीं जाएंगे. उन्होंने कहा हमें किताब लिखनी है, हम उनको जानते हैं, उन्हें हमारे यहां सभी लोग जानते हैं. हमने किताब में उनकी मदद भी की, उनके पास सभी जानकारी है. उन्होंने लिखा है तो ठीक है, अब उस पर क्या बहस करें. बस इतना जानिए कि वे लिखने के लिए हमारी ओर से अधिकृत थे.

कई उपलब्धियों के बीच कौन-सी है जो आपको सबसे ज्यादा सुकून देती है?

लोगों के नजरिये में बदलाव. बिहार को लेकर एक अजीब किस्म का नजरिया विकसित हुआ था. खुद बिहारियों के मन में भी और बाहरवालों के मन में भी. बिहार तो पहले से ही खस्ताहाल था, ऊपर से 2000 में झारखंड का बंटवारा हुआ तो करेला नीम पर चढ़ गया. अब कम से कम यह स्थिति हुई है कि एक आत्मविश्वास जगा है कि बिहार भी बहुत कुछ कर सकता है और सब कुछ निराशाजनक नहीं है. और यह भाव जगा तो देखिए कि दूसरे राज्यों की क्या हालत होने लगी है. पंजाब में मजदूर नहीं मिल रहे, सुखबीर सिंह बादल मिले थे तो बता रहे थे. बीच में केरल के रहनेवाले आरएल भाटिया बिहार के राज्यपाल बनकर आए तो उन्होंने भी ऐसा ही कहा. लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया था.

जब सत्ता में आए तो कथित तौर पर एक फेल्ड स्टेट मिला. नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा किस मोर्चे पर मुकाबला करना पड़ा

शासन में आने के पहले तो लोग बैड गवर्नेंस की बात करते थे. जब हम सत्ता में आए तो देखा यहां तो 'एबसेंस ऑफ गवर्नेंस' का मामला है. इसलिए मैंने कभी ‘जंगलराज’ शब्द का प्रयोग नहीं किया, बल्कि आतंकराज कहता था. हमने सबसे पहले यह तय किया कि कानून का शासन हो. न्याय यात्रा के दौरान हम अरवल में घूम रहे थे, देखा कि शाम के बाद सड़कें वीरान हैं. पूछा तो बताया गया कि यहां यही नियति बन चुकी है. अब जाकर देखिए, कहीं भी शाम ढलते ही सड़कें सूनी नहीं होतीं. सरकारी अस्पताल में मरीज जाना ही नहीं चाहते थे. अब देखिए सरकारी अस्पतालों में भीड़. खेती पर शुरू से ध्यान देना शुरू किया. आज देखिए कि बिहार का एक गांव 190 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन कर दुनिया का रिकॉर्ड तोड़ रहा है. अब तो 17 विभागों के आपसी समन्वय से कृषि कैबिनेट का भी गठन हुआ है. 2012 से अगले दस साल तक का प्लान तैयार हुआ है. कई फ्रंट पर लड़ते-लड़ते आज हम कुछ करने की स्थिति में पहुंचे हैं.

देश में इस समय बहस चल रही है कि लोकपाल के दायरे में ग्रुप सी कर्मचारी और प्रधानमंत्री आने चाहिए या नहीं आने चाहिए. आपकी राय?

क्यों नहीं ग्रुप सी के कर्मचारियों को जांच के दायरे में आना चाहिए? बिल्कुल आना चाहिए. आप बताइए कि आज देश के कानून में इम्यूनिटी है क्या...राष्ट्रपति को छोड़ कर... प्रधानमंत्री के बारे में कोई भी शिकायत ऐसे ही कर देगा और लोकपाल जांच करना शुरू कर देगा... शिकायत में कितना दम है ये लोकपाल भी देखेगा...प्रधानमंत्री के बारे में ऐसे ही कोई ऊलजुलूल लिख देगा और लोकपाल जांच शुरु कर देगा? अगर आरोप में दम है तो संस्था उन आरोपों को भी देख लेगी तो क्या गुनाह हो जाएगा? हां, कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर कोई भी देश भक्त नहीं चाहेगा कि प्रधानमंत्री को बिला वजह घसीटा जाए.

सत्ता पक्ष का कहना है कि लोकपाल का दुरुपयोग किया जा सकता है.

' हर आदमी के पैर में एक ही साइज का जूता आएगा? ये अप्रोच ही गलत है. ये तो एनडीसी के अनेक बार लिए गए फैसलों के खिलाफ चलते हैं '

देखिए, देश में संस्थाएं बनती हैं तो मेच्योर भी होती हैं. जब भी कोई नई चीज आती है तो उससे जुड़े कुछ खतरे भी होते हैं. उसके लिए घबराने की जरूरत नहीं. शुरू में कुछ उथल-पुथल तो होती ही है. उसके लिए तैयार रहना चाहिए. आज देश में विश्वसनीयता का संकट आ गया है. आप किसी के बारे में कुछ बोल दें तो 10 लोग मानने को तैयार हो जाएंगे. शासन में पारदर्शिता आए इसमें क्या दिक्कत है. कोई-न-कोई सख्त कदम तो उठाना ही पड़ेगा. मूल बीमारी को दूर करने के लिए थोड़ा साइड इफेक्ट तो होगा ही, इसके लिए तैयार रहना चाहिए. कल कुछ और होता है तो और सोचा जाएगा.

रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश के बारे में क्या सोचते हैं?

इस पर तो हम पहले ही दिन अपना सख्त विरोध जता चुके हैं. बिहार का सिर्फ एक ही शहर पटना उसके स्वरूप के अनुसार फिट बैठता है. हम जानते हैं कि हमारे 90 प्रतिशत लोग तो वैसी विदेशी दुकानों में जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकेंगे और फिर देर-सबेर जो छोटे-छोटे कारोबारी हैं उन पर असर पड़ेगा. मैंने सड़क किनारे दुकान लगानेवालों को नहीं हटने दिया. पांच सौ रुपये की पूंजी लगाकर शाम होते-होते दो-तीन सौ कमाकर घर-परिवार चलाने वाले हजारों उद्यमियों पर जान-बूझकर संकट नहीं आने दे सकता. रही बात विदेशी कंपनियों की तो हमने केंद्र सरकार के सीड बिल का भी विरोध किया. हम स्पेशल इकोनॉमिक जोन के भी खिलाफ हैं. हम ऐसे उद्योगों के पक्षधर हैं जिनसे उत्पादकता बढ़े और रोजगार का भी सृजन हो.

मगर घरेलू कंपनियां तो बिहार में आ ही नहीं रहीं!

चीजें धीरे-धीरे पटरी पर आ रही हैं, लेकिन केंद्र सरकार हमें सहयोग ही नहीं कर रही. पहले तो केंद्र यह कह सकता था कि बिहार में तो कुछ हो ही नहीं रहा, कोई संभावना की किरण ही नहीं दिख रही तो क्या करें. लेकिन अब जब बिहार अपने बूते संभावनाओं से भरा राज्य बन गया है, स्थितियां अनुकूल हैं तब तो सहयोग करना चाहिए. टैक्स में छूट चाहिए, और भी सुविधाएं चाहिए. इन्हीं सारी बातों काे ध्यान में रखकर हम विशेष राज्य का दर्जा मांग रहे हैं. लेकिन फिलहाल केंद्र में जो सरकार है, पूर्वाग्रह से ग्रस्त उस तरह की सरकार आज तक तो हुई ही नहीं. जबान मीठी और कर्म कड़वा. यह कहेंगे कि बिहार में अच्छा काम हो रहा है, लेकिन सहयोग की बारी आएगी तो नहीं करेंगे.

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आपने और आपकी पार्टी ने अभियान चला रखा है. इसके बारे में कुछ बताएं.

हमारे पास उपजाऊ जमीन है, पर हम हर साल बाढ़ से तबाह होते हैं. बिहार के पास उसका कोई उपाय है? उपाय अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पार है. ये तो भारत सरकार बातचीत करे और दूसरा देश तैयार हो तो फ्लड मॉडरेशन हो सकता है. हमारी सीमाओं में जो कुछ है उसमें गुंजाइश बहुत कम है. तो जब हमारी जो समस्याएं हैं उनका समाधान मेरे हाथ में नहीं है और समस्याओं की जड़ हमारे राज्य की सीमा के अंदर नहीं  है, तो आखिर विशेष परिस्थिति है या नहीं है?

दूसरी बात पर अब आइए. आजादी जब मिली तो एग्रीकल्चर में पूर्वी क्षेत्र सबसे आगे था. आज सबसे पिछड़ क्यों गया साहब! आजादी के पहले गन्ना मिलें ईस्टर्न यूपी और बिहार में ज्यादा थीं. बिहार में देश के कुल शुगर उत्पादन का 25 प्रतिशत होता था. अभी केवल दो फीसदी ही शेयर है हमारा. हमारी जमीन और आबोहवा ऐसी है कि बिना इरिगेशन के भी गन्ना होता है. आपने गन्ना वहां प्रमोट किया जहां 29 इरिगेशन की जरूरत होती है. ये कौन-सी नीति है? दूसरा पूर्वी क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधन काफी थे तो आपने उस समय फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिसी शुरू कर दी कि भाई कारखाने देश के किसी भी हिस्से में लगें कच्चा माल अगर यहां से जाएगा तो रेल का जो भाड़ा लगेगा उस पर सरकार सब्सिडी देगी. तो जो एडवांटेज पूर्वी क्षेत्र का था उसको तो आपने खत्म कर दिया. कच्चा माल यहां से गया और औद्योगीकरण दूसरी जगह हो गया. ये आखिर जो भेदभाव हुआ जब तक उल्टा नहीं होगा तब तक कैसे ठीक होगा. तो कालांतर में जब हम पिछड़ गए तो इसका क्या नतीजा हुआ? हमारी प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत की एक तिहाई है. प्रतिव्यक्ति प्लैंड इनवेस्टमेंट में हम सबसे पीछे हैं. और प्राइवेट इनवेस्टमेंट तो स्वाभाविक है कि वहीं होता है जहां हब होता है. रही-सही कसर पूरी हो गई जो प्राकृतिक संसाधन वगैरह थे वे कटकर दूसरे राज्य में चले गए. तो इसको दूर कैसे करेंगे? एक तो प्लांड इनवेस्टमेंट बढ़ाना होगा, रोजगार बढ़ाने के लिए निजी निवेश की भी जरूरत है. पर कौन आएगा यहां? अन्य जगहों की अपेक्षा फायदा होगा तभी न आएगा. विशेष दर्जा इसीलिए हम मांगते हैं कि एक तरफ प्लांड इनवेस्टमेंट बढ़ेगा और दूसरी तरफ टैक्स में रियायत मिलेगी तो प्राइवेट इनवेस्टमेंट आएगा. हमारे यहां भी निवेश होगा और हमारी ग्रोथ होगी.

यह राजनीतिक निर्णय है, सरकार चाहे तो ले सकती है पर कुछ लोग मानते हैं कि बिहार विशेष राज्य के परंपरागत ढांचे में फिट ही नहीं बैठता है.

क्या बात करते हैं! (विशेष राज्य का दर्जा देने के) पांच आधार हैं तो पांचों पूरे करने की जरूरत थोड़े ही है. अंतरराष्ट्रीय सीमा तो है ही. इतनी गरीबी है. पहाड़ी इलाका नहीं है पर दुर्गम क्षेत्र तो है ही. जिस समय बाढ़ आती है क्या होता है? कुछ इलाकों में सूखा तो कुछ में बाढ़ रहती है. यहां वर्षा न भी हो पर नेपाल में हो रही है तो पानी कहां जाएगा? इसके लिए हम लोगों ने एक-एक बिंदु को ध्यान में रखकर इनको मेमोरेंडम दिया है. एक कहावत है Show me the person I will show you the rule. नहीं मानना है तो चार बहाने हैं. मानना है तो 10 कारण निकाल लेंगे. ये तो इनकी इच्छा पर है. लेकिन पूरा बिहार आंदोलित है साहब... . आप इतने बड़े राज्य की अनदेखी करके कौन-सी इंक्लूसिव ग्रोथ लाएंगे.

आपको लगता है कि राज्य के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है?

यह तो बहुत ही माइल्ड आरोप है. अन्यायपूर्ण व्यवहार है. और ये पूरे तौर पर राजनीतिक भावना से ग्रसित हैं. और भावना क्या दुर्भावना प्रेरित हैं. अभी जो इनका राजनीतिक गठबंधन है उसकी इंटरनल केमिस्ट्री है उसके हिसाब से दूसरे राज्यों के लिए हो रहा है. बिहार के लिए नहीं हो रहा है.

दिल्ली में हमारी कुछ लोगों से बात हुई है. उनका कहना है कि बिहार में जो पैसा जाता है कुछ मदों में वही पूरी तरह से उपयोग नहीं हो पाता..

(बीच में बात काटते हुए) फालतू बात है...वो किस जमाने में जी रहे हैं. उनको कहिए बिहार में जा कर देखें. जो ऐसी बातें करते हैं वे कागज पर बैठे रहते हैं. यहां से उनकी जितनी नीतियां हैं उनमें हम रचनात्मक सुझाव देते रहते हैं. उनमें जो कमी है उसको हम बताते रहते हैं. ये तो वहां से बैठ कर हमारे संविधान की भावना को, संघीय ढांचे को तोड़ते रहते हैं. इतनी ज्यादा पक्षपातपूर्ण भावना से काम करने वाला शासन तो आज तक आया ही नहीं. बोली में मिठास है, कर्म में तीखापन...बातचीत करेंगे कि ठीक काम हो रहा है. ठीक हो रहा है तो अभी तो मदद करने का समय है. आज जिन चीजों को लेकर बिहार ने एक अलग पहचान बनाई है उसमें उनकी कोई सहायता है क्या? ये तो हमलोगों का अपना कुछ नवाचारी कार्यक्रम है. उसके चलते ऐसा हुआ है. बाकी जितनी भी सेंट्रल स्पॉन्सर्ड  स्कीम हैं उसके हम सख्त खिलाफ हैं. ये तो राज्यों के पैसे पर छापा मारा जा रहा है. जो हिस्सा राज्यों को मिलना चाहिए और उनकी जरूरत के हिसाब से उन्हें अपनी योजनाएं बनाने का अधिकार मिलना चाहिए, वो ये अपने तरह से कर रहे हैं. हर आदमी के पैर में एक ही साइज का जूता आएगा? ये अप्रोच गलत है. ये तो एनडीसी के अनेक बार लिए गए फैसलों के खिलाफ चलते हैं. बात होती है केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या कम की जाए और उसकी संख्या बढ़ा देते हैं. दिल्ली को करना क्या है? दिल्ली की जो जिम्मेदारी है कम्यूनिकेशन, रेलवे की है. इस देश की सुरक्षा की है. विदेशी मामलों की है. देश को एक रखने की है. लेकिन  ये रोजमर्रा के काम. अब बताइए साहब हरेक ब्लॉक हेडक्वार्टर में हाईस्कूल खोलेंगे? क्या ये दिल्ली का काम है. हर राज्य को अपने ढंग से करने दीजिए. इनकी योजनाओं में राज्य का भी पैसा लगता है. बहुत कम स्कीम हैं जिनमें टोटल यही पैसा देते हैं.

आज रेलवे के बारे में क्या राय है? आप जब रेल मंत्री थे तो बहुत सारी नई-नई चीजें शुरू हुईं. तत्काल भी शायद...

(बीच में काटते हुए) नहीं तत्काल पहले से था...संख्या बहुत कम थी. हां, कंप्यूटराइजेशन का दौर आया और काफी जो डिब्बे हैं, वैगन हैं इन सभी में सुधार हुआ. रेलवे तो बहुत ही बुरे हाल में था. दुर्घटनाएं बहुत हो रही थीं. एक्सीडेंट क्यों होते हैं इस पर कई विशेषज्ञों की रिपोर्टें थीं. सबको देख कर क्या करना चहिए वह किया गया. और उसी का फायदा हुआ कि पांच साल लोगों ने चैन से बिताए. हमने जो कॉरपोरेट सेफ्टी प्लान बनाया था उस पर यूपीए वन के समय में अमल नहीं हुआ. उसका अंजाम अब भुगतना पड़ रहा है. पहले फोरव्हील वैगंस थे जो मोड़ पर पलट जाते थे...सभी को हमने हटवा दिया...सारे सिग्नल सिस्टम, एंटी कोलिजिन डिवाइस को फाइनलाइज किया. जिसका इंप्लीटेशन कारगर रहा. हमलोगों के जमाने में कुछ साधारण चीजों को प्रयोग में लाकर उस तरह की दुर्घटनाओं की तो गुंजाइश ही खत्म कर दी गई थी. पिछले पांच वर्षों में फिर से कोताही बरती जा रही थी जिसके चलते सब गड़बड़ हो गया है.

आपने रेल मंत्रालय से लेकर बिहार तक काफी नए प्रयोग किए. पर कुछ चीजों को राज्य में आपने शुरू करने की बात कह कर बैकबर्नर पर रख दिया है, जैसे बंदोपाध्याय कमेटी की सिफारिशों को.

कोई बैकबर्नर पर नहीं डाला है. आप गलतफहमी के शिकार हैं. कमेटी हमने बनाई थी. उसकी रिपोर्ट आई और कई बातें स्वीकार करके लागू भी कर दी गई हैं.

कुछ उदाहरण दे सकते हों तो...

एक नहीं कई हैं. चूंकि आपकी दिलचस्पी है तो थोड़ा वक्त ज्यादा लगेगा. उसमें कई चीजों को लागू कर दिया गया है. भूदान के बारे में, दाखिल खारिज के बारे में. हम दाखिल खारिज के लिए अलग से कानून ला रहे हैं. कई प्रकार की चीजें जैसे सीलिंग की सिफारिश को हमारी सरकार ने अस्वीकार कर दिया. कई ऐसी चीजें हैं जिनको अस्वीकार या स्वीकार करके लागू कर दिया गया है. एक प्रश्न बटाईदारी का था जिसके बारे में समाज में बहुत सारी गलतफहमी पैदा हो गई. अभी जो हम लोग कर रहे हैं... जमीन की उससे भी मूल समस्या का समाधान कर रहे हैं. इसी सत्र में हम लोग विधेयक ला रहे हैं. तीन साल के अंदर सर्वेक्षण का काम होगा. लैंड रिकाॅर्ड अपडेट करने की बात हम कर रहे हैं. सर्वे करना एक बहुत बड़ा काम है. उसको तीन साल में पूरा करने के लिए और इसके लिए जिस तकनीक का प्रयोग होगा उसकी गुंजाइश बनाने के लिए और टाइम फ्रेम में सारी आपत्तियों का निपटारा हो और अपील वगैरह की गुंजाइश रहे, उसके लिए कानून ला रहे हैं. ये काम पूरा करेंगे तो हम कंसोलिडेशन पर भी जाएंगे. लैंड रिफाॅर्म कोई एक चीज नहीं है. इसके बहुत बड़े आयाम हैं. हम रात-दिन कर रहे हैं. सबसे मूल चीज है कि हमारे पास रिकाॅर्ड कहां है ठीक से. समाज में अगर कोई भी चीज हम लागू करेंगे तो सबको विश्वास में लेकर करेंगे. ठीक है, सब लोग साथ नहीं होंगे. मगर इरादा तो होना चाहिए.

एक और चीज थी. आपने कॉमन स्कूल सिस्टम लागू करने की भी बात की थी.

' मैं दिल्ली जाना चाहता हूं, लेकिन आजकल दिल्ली में जो लोग बैठे हुए हैं उनमें कई हमारे साथ काम किए हुए हैं. लेकिन आजकल वे कुछ ज्यादा ही मुगालते में रहते हैं. '

कॉमन स्कूल सिस्टम हम लोग अपने स्तर पर कर रहे हैं. कॉमन स्कूल सिस्टम के खिलाफ तो केंद्र सरकार है. अभी हमको कहा कि हम मॉडल स्कूल बना रहे हैं. हमने उनको कहा कि भाई हमें बाकी स्कूलों को ठीक करना है. हमको पैसा दीजिए इतने में हम अपने चार स्कूल ठीक करेंगे. कॉमन स्कूल सिस्टम तो पूरे देश के लिए होगा न. जब तक केंद्र तैयार नहीं होगा तब तक आप क्या करेंगे? हम हर जिले में एक मॉडल स्कूल खोलने की सोच रहे थे केंद्र सरकार तो हर ब्लॉक में खोलने की बात करती है...ब्लॉक में बाकी स्कूलों की स्थिति क्या होगी सोचती ही नहीं. 'टेक इट ऑर लीव इट' ये उनका नारा है. उनके लिए नैतिक दबाब नाम की कोई चीज ही नहीं है. वे सिर्फ सहयोगियों के राजनीतिक दवाब को समझते हैं...एफडीआई में क्या हुआ? एलाइज का पॉलिटिकल प्रेशर पड़ा तो निर्णय वापस ले लिया. हमारी बात कौन सुनता है.

तो कई स्तर पर चुनौतियां हैं

तो चुनौतियों से घबराया थोड़े जाता है. आपको चुनौतियां इसलिए दिख रही हैं कि आप  वैसे ही सवाल पूछ रहे हैं. इस जहां में करने को बहुत कुछ है. जहां गुंजाइश है वहीं करते रहते हैं. जहां हाथ बंधे हुए हैं वहां बंधे हैं. जहां नहीं बंधे हुए हैं वहां काम करते हैं. गवर्नेंस का मुद्दा हो या सोशल सेक्टर का मुद्दा हो.उसी का इंपैक्ट है. लेकिन बाकी जो पॉलिसी इश्यूज हैं उसको तो अगर आप छेड़ रहे हैं तो... इसलिए इंटरव्यू भी एक तरह का डीबेट होता है. एकदम भागते रहते हैं. इंटरव्यू का मतलब क्या होता है हम आपके ट्रैप में हैं.

अपने ही घर में प्रदेश के मुख्यमंत्री को कोई कैसे ट्रैप कर सकता है....लेकिन मिलने से कई भ्रांतियां भी दूर होती हैं

हमारे स्वभाव में एक कमजोरी है. हम अपना काम करने के भागी हैं. अगर हमारे काम के बारे में भ्रांतियां भी फैलती हैं तो हम उस तरफ ध्यान देंगे तो काम क्या करेंगे.

आपने कहा कि आप दिल्ली नहीं जाना चाहते. राष्ट्रीय राजनीति में दखल नहीं देना चाहते.

नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा. मेरे कहने का मतलब दूसरा है. आपने गलत समझा. दिल्ली नहीं जाना चाहता, यह इसलिए कहा क्योंकि आजकल जो दिल्ली में बैठे हुए हैं उनमें कई हमारे साथ काम किए हुए लोग हैं लेकिन आजकल वे कुछ ज्यादा ही मुगालते में रहने लगे हैं.

 (तहलका हिन्दी से साभार)


http://www.tehelkahindi.com/mulakaat/sakshatkar/1068.html


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