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चर्चा में.... | वंचित भारत की कहानी- इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट की जुबानी
वंचित भारत की कहानी- इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट की जुबानी

वंचित भारत की कहानी- इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट की जुबानी

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published Published on Jul 1, 2014   modified Modified on Jul 1, 2014
‘अतुल्य भारत' के भीतर एक वंचित भारत रहता है,दलित और आदिवासी समुदाय इसी वंचित भारत के वासी हैं। क्या इस वंचित भारत का निर्माण राज्यसत्ता के हाथों जीवन के लिए जरुरी बुनियादी सेवा-सामानों से लोगों को बेदखल करके हुआ है? जैसा कि नाम से ही जाहिर है,इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट 2013-14 का एक निष्कर्ष यह भी है! (कृपया देखें नीचे दिया गया रिपोर्ट की भूमिका की लिंक)


मिसाल के लिए इन तथ्यों पर गौर करें। नवीनतम जनगणना(2011) के आंकड़ों के अनुसार देश में मात्र 29.6 प्रतिशत परिवारों को पक्की छत का घर नसीब है जबकि दलित समुदाय के मात्र 21.9 प्रतिशत परिवारों को ही ऐसे घर नसीब हैं। आदिवासी समुदाय के बीच ऐसे परिवारों की संख्या महज 10.1 प्रतिशत है। ठीक इसी तरह घर के आहाते में शौचालय की सुविधा वाले परिवारों का राष्ट्रीय औसत तकरीबन पचास प्रतिशत(49.6) है जबकि दलित समुदायों के बीच इस बुनियादी सुविधा वाले परिवारों की संख्या 33.8 प्रतिशत है जबकि आदिवासी समुदाय के परिवारों के बीच और भी कम ( केवल 22.6 प्रतिशत)। पूछा जा सकता है कि पक्का घर और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा से वंचित परिवारों में सर्वाधिक तादाद दलित और आदिवासी समुदायों ही में क्यों है?


क्या अतुल्य भारत के नव-निर्माण का दावा करने वाली नई उदारीकृत अर्थव्यवस्था बुनियादी सुविधाओं के मामले में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच गैर-बराबरी बढ़ा रही है और रिहायइश के लिए पक्के मकान से वंचित परिवारों में दलित और आदिवासी समुदाय के परिवारों की तादाद का ज्यादा होना इस रुझान का एक संकेत है ? गौरतलब है कि शहरी आवासन की स्थिति के आकलन पर बनी कुंडु समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सन् सत्तर और अस्सी के दशक की तुलना में सन् 1990 के दशक में पक्के मकानों की बढोत्तरी की दस साला-दर बहुत ज्यादा कम हुई। सत्तर की दहाई में पक्के मकानों की संख्या में यह वृद्धि-दर 53.30 प्रतिशत, अस्सी की दहाई में 64.68 प्रतिशत, और नब्बे के दशक में घटकर 38.20 प्रतिशत हो गई-( देखें नीचे दी गई लिंक)


इंडिया इक्विटी सेटर द्वारा प्रस्तुत इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट इस सवाल का उत्तर देश की आवास-नीति की परीक्षा के सहारे देती है। रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय शहरी आवास नीति(2007) में स्वीकार किया गया है कि आवास बुनियादी मानवीय जरुरतों में से एक है। ऐसा कहने के बावजूद भारतीय राज-व्यवस्था आवास को व्यक्ति के मौलिक अधिकार के तौर पर स्वीकार नहीं करती। वह बस इतना मानती है कि देश के नागरिक को आवास की सुविधा देना राज्य का एक नैतिक दायित्व है। इसके बरक्स अगर संयुक्त राष्ट्र संघ की शब्दावली पर गौर करें तो यह संस्था समुचित आवास को एक मानवाधिकार के रुप में स्वीकार करती है।


अधिकार शब्द के प्रयोग के कारण अर्थ में आए अन्तर को लक्ष्य किया जा सकता है। अधिकार व्यक्ति या समुदाय की तरफ से एक ऐसा दावा है जिसके पूरा करने की गारंटी स्वयं राज्य की होती है। भारत में आवासीय नीति और कार्यक्रम आवासन को बढ़ाने के प्रति नैतिक जिम्मेदारी तो दिखाते हैं लेकिन आवासन को संवैधानिक अधिकार का दर्जा हासिल नहीं है।


रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक जीवन की कुछ अत्यंत जरुरी संस्थाएं आवास को ‘बुनियादी जरुरत' और ‘अधिकार' की बहस से दूर खींचकर सीधे उसे खरीदने-बेचने की क्षमता तक सीमित कर देती हैं यानी घर का मतलब एक ऐसी चीज जो दाम देकर हासिल की जाय और जेब में दाम ना हो तो बेपता-बेठिकाना रहा जाय। इसी सोच का नतीजा है कि नेशनल हाऊसिंग बैंक आवासन को बुनियादी जरुरत की चीज के रुप में स्वीकार करने के बावजूद उसे एक ऐसी सहायक सामग्री के रुप में देखता है जिसके सहारे "वित्त-बाजार से कर्ज लेने की गतिविधियों में इजाफा होता है " और रिजर्व बैंक आवासन को "रोजगार-वृद्धि की एक संभावनाशील क्षेत्र" के रुप में देखता है। रिपोर्ट के अनुसार यह शब्दावली आवास को बुनियादी जरुरत कम और मांग-पूर्ति के बाजारु संबंध के भीतर ज्यादा समझती-देखती है।

 

सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की यह रिपोर्ट मुख्य रुप से आपका ध्यान तीन बातों पर खींचती है। एक तो यह कि जिसे आज की राजनीतिक भाषा के भीतर हम विकास यानी रोटी-कपड़ा- मकान, सेहत, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क और शौचालय आदि के होने से जोड़ते हैं उन्हें देश के नागरिक तक पहुंचाने का जिम्मा प्रधान रुप से राज्यसत्ता का ही है। इस जिम्मेवारी को मुक्त बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि ये चीजे सबके लिए समान रुप से जरुरी हैं लेकिन सबके पास बाजार की कीमत चुकाकर इन जरुरी चीजों को हासिल करने लायक क्षमता नहीं है।


दूसरे, भारत के संदर्भ में बुनियादी सेवाओं-सामानों को नागरिक तक पहुंचाने की राज्यसत्ता की विशेष जिम्मेवारी है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कई दफे सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को संविधानप्रदत्त जीवन जीने के मौलिक अधिकार का विस्तार मानकर फैसले दिए हैं। भारत में नागरिक को हासिल जीवन के मौलिक अधिकार का अर्थ है उन सारी चीजों का अधिकार जो एक सम्मानजनक जीवन को संभव बनाती हैं जैसे, पोषक-आहार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा, सम्मानजनक रोजगार , उचित आवास और सामाजिक सुरक्षा।


तीसरी बात कि बेदखली को जन्म देने और बनाए रखने वाली प्रणालियां व्यापक और इनका आपसी संबंध पेचीदा होता है और ये संबंध राज्य, बाज़ार और समाज, तीनों स्तरों पर सक्रिय रहते हैं। बुनियादी सुविधाओं-सामानों तक सभी की पहुंच सुनिश्चित ना करना या सबके लिए इनको जुटाने में असफल रहना दरअसल राज्यसत्ता द्वारा नागरिक को उसके जीवन जीने के अधिकार बेदखल करने का एक संकेत है।

(रिपोर्ट के कुछ प्रसंगों का विस्तार करने में निम्नलिखिति लिंक्स सहायक सिद्ध हो सकते हैं)

India Exclusion Report 2013-14

http://www.im4change.orghttps://im4change.in/siteadmin/tin
ymce//uploaded/Summary%20India%20Exclusion%20Report%202013
-14.pdf

 

REPORT OF THE TECHNICAL GROUP [11TH FIVE YEAR PLAN: 2007-12] ON ESTIMATION OF URBAN HOUSING SHORTAGE

http://mhupa.gov.in/ministry/housing/housingshortage-rept.pdf

 

 

India: Marginalized Children Denied Education- Use Monitoring, Redress Mechanisms to Keep Pupils in School, Human Rights Watch, April, 2014

http://www.im4change.org/latest-news-updates/india-margina
lized-children-denied-education-use-monitoring-redress-mec
hanisms-to-keep-pupils-in-school-24835.html

 

 Conditions of SC/ST Households: A Story of Unequal Improvement by RB Bhagat, Economic and Political Weekly, October 12, 2013, Vol xlviiI 62 no.

http://www.im4change.orghttps://im4change.in/siteadmin/tin
ymce//uploaded/Conditions_of_SCST_Households.pdf

 

Chapter-5: Demographic Particulars of Prison Inmates, Prison Statistics India 2012, NCRB 

http://ncrb.gov.in/PSI-2012/CHAPTER-5.pdf

 

DISE data, http://www.dise.in/

 

 

 



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