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चर्चा में..... | आरटीआई में बदलाव के विरूद्ध प्रदर्शन

आरटीआई में बदलाव के विरूद्ध प्रदर्शन

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published Published on Nov 14, 2009   modified Modified on Nov 14, 2009
 सूचना के अधिकार अधिनियम में सरकार द्वारा बदलाव की आशंका के मद्देनजर कई नागरिक संगठन इसके विरोध में एकजुट हो रहे हैं ताकि इस ऐतिहासिक अधिनियम को नखदंत विहीन करने की कोशिशों को नाकामयाब किया जा सके। नेशनल काऊंसिल फॉर पीपल्स राईटस् टू इन्फॉरमेशन(एनसीपीआरआई) की अगुवाई में नागरिक संगठन 14 नवंबर को दिन में 10 बजे से लेकर शाम 5 बजे तक जंतर-मंतर(दिल्ली) पर विरोध प्रदर्शन किया। एनसीपीआरआई ने सूचना के अधिकार के लिए अभियान चलाने में अग्रणी काम किया है और इस कानून के अमल में आने से पहले उसका एक प्रारुप भी प्रस्तुत किया था।(विस्तृत जानकारी के लिए देखें अंग्रेजी संस्करण में एनसीपीआरआई की अपील)  नेशनल काऊंसिल फॉर द पीपल्स राईट टू इन्फॉरमेशन की अगुवाई में नागरिक संगठनों ने धरना दिया। इस धरने में शिरकत करने वाले लोगों में  सूचना आयुक्त सैलेश गांधी , सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, सीपीआई के महासचिव डी राजा, सूचना के अधिकार की बहाली से जुड़े कार्यकर्ता शंकर सिंह, नामचीन रंगकर्मी त्रिपुरारि शर्मा, बंधु मुक्ति मोर्चा के स्वामी अग्निवेश और सामाजिक कार्यकर्ता निखिल दे शामिल थे। नागरिक संगठनों ने सामूहिक रुप से सूचना का अधिकार कानून में परिवर्तन ना करने की मांग की। सूचना के अधिकार कानून में प्रस्तावित बदलाव के जरिए उसे नखदंत विहीन करने की कोशिश की जा रही है जबकि इस कानून से मौजूदा रुप से आम जनता के सशक्तीकरण में बहुत मदद मिली है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कानून के लागू होने के बाद से सरकारी कामकाज में इससे देश के किसी भी भाग में कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। सच्चाई यह है कि कानून के लागू होने से लोगों में यह विश्वास बढ़ा है कि सरकारी कामों के बारे में पूरी पारदर्शिता के साथ जानकारी हासिल की जा सकती है और समेकित बाल विकास योजना, नरेगा या फिर शिक्षा के अधिकार के क्रियान्वयन के संबंध में सरकार से जरुरी जानकारियां हासिल की जा सकती हैं। देश के ग्रामीण इलाकों में सूचना के अधिकार कानून का व्यापक इस्तेमाल हुआ है। यह स्वयं में प्रमाण है कि लोगों में इस कानून के कारण एक उम्मीद बंधी है।   प्रस्तावित संशोधन के जरिए मंशा लोक सूचना अधिकारी के हाथ मजबूत करने की है ताकि अगर आम जनता कोई सूचना मांगे तो अधिकारी उसे तुच्छ, सारहीन,गैरजरुरी या फिर विद्वेष प्रेरित बताकर अर्जी खारिज कर सकें।यह बात बिल्कुल साफ है कि यूपीए सरकार पर नौकरशाही के एक तबके का भारी दबाव है। यह दबाव सूचना के अधिकार कानून के उस हिस्से को नकारा करने के लिए डाला जा रहा जिसमें फाईल नोटिंग को सार्वजनिक करने का प्रावधान किया गया है। नौकरशाही का स्वार्थ प्रेरित तबका इसकी जगह निर्णय पर पहुंचने से पहले जरुरी सलाह जैसी पदावली के इस्तेमाल पर जोर दे रहा है ताकि फाईल में दर्ज सूचना को छुपायी जा सके।  नागरिक संगठनों का मानना है कि प्रस्तावित बदलावों से भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र की भावना और व्यवस्था को चोट पहुंचेगी और सरकारी कामकाज की पारदर्शिता की राह में बाधाएं खड़ी होंगी। सबसे बुरी बात यह है कि सरकार सूचना के अधिकार कानून में बिना किसी व्यापक सलाह मशविरे के बदलाव करने जा रही है। गौरतलब है कि विगत अक्तूबर महीने में सौ से ज्यादा गणमान्य नागरिकों और सूचना के अधिकार से जुड़े कार्यकर्ताओं ने एक हस्ताक्षर अभियान चलाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को खुला पत्र भेजा था। इसमें सूचना के अधिकार कानून में होने वाले बदलावों के मद्देनजर नागरिक संगठनों ने अपनी चिन्ता का इजहार किया था।   

 

 

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