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चर्चा में..... | एएचआरसी- मध्यप्रदेश में २८ आदिवासी बच्चों की कुपोषण से मौत

एएचआरसी- मध्यप्रदेश में २८ आदिवासी बच्चों की कुपोषण से मौत

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published Published on Feb 11, 2010   modified Modified on Feb 11, 2010
एशियन ह्यूमन राइटस् कमीशन(एएचआरसी) की प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार मध्यप्रदेश में 28 बच्चों ने कुपोषण के दुष्चक्र में दम तोड़ दिया है। एएचआरसी के अनुसार पीडित बच्चों के परिवार सरकारी योजनाओं के तहत भोजन और स्वास्थ्य के मद में फिलहाल दी जा रही सहायता से भी वंचित हैं।

एएचआरसी ने अपनी सूचना का आधार मध्यप्रदेश की एक संस्था लोक संघर्षमंच और सूबे में चलने वाले भोजन के अधिकार अभियान की एक रिपोर्ट को बनाया है जो मौका मुआयना पर आधारित है। इस रिपोर्ट की बिनाह पर एएचआरसी ने आशंका जतायी है कि कई और बच्चे मध्यप्रदेश में भुखमरी का शिकार हो सकते हैं।(देखें नीचे दी गई लिंक)

भुखमरी से जूझ रहे बच्चों की स्थिति से अवगत कराते हुए एएचआरसी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश, संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा भोजन के अधिकार के संदर्भ में नियुक्त विशेष प्रतिनिधि और बाल अधिकारों की समिति को पत्र लिखा है और इनसे हस्तक्षेप की मांग की है। प्रेस विज्ञप्ति में आम जनता से भी इस मुद्दे पर पहल करने और भोपाल तथा नई दिल्ली में पदस्थ शीर्ष अधिकारियों मामले में हस्तक्षेप करने की बाबत लिखने के लिए कहा गया है।

एएचआरसी की विज्ञप्ति में भुखमरी के प्रत्येक मामले में परिस्थितयों का विस्तृत विवरण दिया गया है। ज्यादातर मामलों में विवरणों से पता चलता है कि बच्चे चिकित्सीय देखरेख के अभाव और कुपोषण के कारण उन बीमारियों की चपेट में आये  जिनका इलाज बहुत आसान है। भुखमरी और कुपोषण ज्यादातर बच्चों की मौत पिछले दो महीने में हुई है। भुखमरी के शिकार अधिकतर बच्चे आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के मेघनगर प्रखंड के हैं।

विज्ञप्ति में इस ह्रदयविदारक तथ्य का उल्लेख है कि पीडित बच्चों के परिवारों को बीपीएल कार्ड तक हासिल नहीं हो पाया है जबकि ये सभी सीमांत किसान हैं और उन्हें खेती के लिए सिंचाई की सुविधा या कोई अन्य राजकीय मदद भी हासिल नहीं है। विज्ञप्ति में कहा गया है कि इलाके में जिस व्यक्ति के पास थोड़ी सी भी जमीन है उसे सरकारी सूची में गरीबी रेखा से ऊपर दिखाया गया है भले ही वह जमीन कितनी भी कम क्यों ना हो। इसका सीधा अर्थ निकलता है कि ऐसा व्यक्ति भोजन और स्वास्थ्य सुविधा के मामले में सरकारी मदद का हकदार नहीं है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पीडित बच्चों के परिवारजनों को काम के भाव में गांव से पलायन करना पडा है और उन्हें सौ दिन काम के अधिकार से वंचित रखा गया है। एएचआरसी ने जिन दो गांवों के ब्यौरे एकत्र किए हैं, उनमें नरेगा के अन्तर्गत प्रदान किए जाने वाले जॉबकार्ड के हर धारक को गुजरे साल महज पन्द्रह दिनों का काम हासिल हो पाया है और इनेक लोगों को अब भी अपनी बकाया मजदूरी के भुगतान का इंतजार है। यह बात अपने आप में विडंबनापूर्ण है कि गांव में सामाजिक अंकेक्षण की प्रकिया पूरी हो चुकी है और इसे इस चतुराई से सम्पन्न किया गया कि गांव में बच्चों की भूखमरी और कुपोषण से मौत हो गई मगर नरेगा के किर्यान्वयन में सामाजिक अंकेक्षण के दौरान एक भी कमी नहीं पायी गई।

 

विस्तृत जानकारी के लिए नीचे की लिंक चटकायें-

http://www.ahrchk.net/ua/mainfile.php/2010/3358/
 
http://www.ahrchk.net/ua/mainfile.php/2009/3346/

http://www.ahrchk.net/ua/mainfile.php/2009/3325/

 

 

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