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न्यूज क्लिपिंग्स् | अधूरे बदलाव और शोषण की कथाएं- विभूति नारायण राय

अधूरे बदलाव और शोषण की कथाएं- विभूति नारायण राय

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published Published on Jan 3, 2018   modified Modified on Jan 3, 2018
पुलिस की कठोर, उबाऊ और यांत्रिक दैनंदिनी में कई बार आपका साबका मानवीय जीवन के ऐसे कारुणिक पक्ष से पड़ता है कि आप अंदर-बाहर भीग जाते हैं। बरसों तक वे आपकी स्मृति का अंग बने रहते हैं। ऐसा ही एक अनुभव 1989 के इलाहाबाद कुंभ के दौरान मुझे हुआ था। हर 12 साल पर लगने वाले कुंभ के दौरान माघ (जनवरी-फरवरी) महीने में गंगा-यमुना के संगम तट पर एक अद्भुत नगर बस जाता है। मोटे अनुमानों के अनुसार इस नगर की स्थाई आबादी 20 से 25 लाख की होती है और मुख्य स्नान पर्वों पर इससे कई लाख ज्यादा नर-नारी संगम तट पर डुबकी लगाने आते हैं। इतने बड़े अवसर के लिए इलाहाबाद से काटकर एक अलग जिला बनाया जाता है और उसके लिए शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिस-व्यवस्था करनी पड़ती है। 1989 में मुझे मेले में तैनात पुलिस बल का नेतृत्व करने का मौका मिला। एक साल की इस नियुक्ति ने और बहुत सारे अविस्मरणीय अनुभव दिए। आज जब एक बाबा के आश्रम से अभागी और प्रताड़ित लड़कियों की बरामदगी की खबरें पढ़ रहा था, तो मुझे मेले के दौरान मिला एक कारुणिक प्रसंग याद आ गया।


मेला सरकारी से ज्यादा गैर-सरकारी प्रयासों से चलता है। तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं, नाविक, पंडे, अखाड़े, व्यापारी, भिखारी, चोर-उचक्के, सभी मिलकर मेला संपन्न कराते हैं। ऐसी ही एक स्वयंसेवी संस्था थी, जो खोए-पाए मेला यात्रियों के लिए काम करती थी और राजा राम तिवारी नाम के एक वृद्ध सज्जन उसके कर्ताधर्ता थे। लोग उन्हें नाम से नहीं, खोए-पाए तिवारी नाम से जानते थे। यह उनका चौथा कुंभ था और 60 पार के बावजूद मीलों साइकिल चलाता उनका शरीर थकता नहीं था और लगन देखते ही बनती थी। मेले के दौरान प्रशासन से मिला एक टेंट उनका दफ्तर, घर, और असंख्य खोए-पाए दुखियारों का आश्रय स्थल बन जाता था। मेले में रोज सैकड़ों यात्री अपने प्रियजनों से बिछुड़ते थे, और कोई उन्हें खोए-पाए शिविर तक पहुंचा जाता था और वहां बैठे स्वयंसेवक रजिस्टर में उसका नाम-पता लिखकर लाउडस्पीकर पर उसका नाम घोषित करना शुरू कर देते थे। इस शिविर का लाउडस्पीकर दिन-रात कभी भी खामोश नहीं होता। खोए हुए लोगों में अधिकांश अबोध बच्चे और बूढ़ी औरतें होती थीं और स्वयंसेवकों के लिए उनका नाम-पता जानना या घबराते-रोते हुए मुसीबतजदा लोगों को दिलासा देना सबसे बड़ी चुनौती होती थी।


एक दिन वह मेरे पास एक बूढ़ी दक्षिण भारतीय महिला को लेकर आए और जो कथा उनके मुंह से मैंने सुनी, वह किसी को भी विचलित कर सकती थी। महिला को 12 साल पहले यानी पिछले कुंभ में उसके बेटे-बहू स्नान कराने के लिए प्रयाग लाए थे और मेला खत्म होने के कुछ दिनों पहले अचानक छोड़कर गायब हो गए। कोई उसे खोए-पाए कैंप में छोड़ गया और जब तक मेला पूरी तरह उजड़ नहीं गया, लगातार उसके बारे में घोषणा होती रही। महिला एकदम निरक्षर थी और हिंदी या अंगे्रजी बिल्कुल नहीं जानती थी। बड़ी मुश्किल से दक्षिण में जजमानी करने वाले पंडे की मदद से यह तो पता चल पाया कि वह कन्नड़भाषी है और कर्नाटक के किसी गांव की रहने वाली है। संक्षेप में, न तो वह अपना कोई पता बता पाई, न कोई उसकी खोज-खबर लेने आया। इसके बाद की कथा महिला के दुरदुराए जाने और यातना झेलने की है। 12 वर्षों से वह नगर के एक मंदिर में भीख मांगकर गुजारा कर रही थी। यह पता लगने पर कि कुंभ फिर लगा है, वह इस उम्मीद से तिवारी जी के कैंप में आई थी कि शायद उसके बेटे-बहू उसे ढूंढ़ते हुए आएंगे। यह अलग बात है कि पूरी मेला अवधि में कोई नहीं आया। तिवारी जी से ही पता चला कि शिक्षा और संचार की स्थिति बेहतर होने के कारण अब तो कम हो गया है, पर पहले हर कुंभ और अद्र्धकुंभ के बाद बड़ी-छोटी परित्यक्त लड़कियों व महिलाओं के झुंड के झुंड संगम तट पर बदहवास घूमते दिखते थे। कुछ दिनों भटकने के बाद इनकी परिणति किसी चकला घर पहुंचने या सड़कों-गलियों में भीख मांगने में होती थी।


आज जब मैं कुकर्मी बाबा वीरेंद्र दीक्षित के आश्रमों में अलग-अलग उम्र की लड़कियों के दैहिक शोषण और नारकीय जीवन के बारे में पढ़ रहा था, तो मुझे कुंभ गाथा याद आई। पिछले दो-तीन वर्षों में आसाराम बापू, रामपाल, राम रहीम के आश्रमों में चल रही व्यभिचार गाथा पढ़ने पर क्या हमें यह नहीं लगता कि इन अभागी लड़कियों को इनके मां-बाप ही र्दंरदों के हाथ सौंप कर गए थे? इस सौंपने के पीछे कितना धर्म का हाथ है और कितना उनसे मुक्ति पाने की परिजनों की इच्छा थी, यह अलग-अलग मामलों में किसी समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है। हमारे इसी क्रूर समाज ने एक समय सती जैसी अमानवीय प्रथा को स्वीकृति दी थी और बड़ी मुश्किल से राजा राममोहन राय जैसे सुधारक उसे समाप्त करा पाए। सती प्रथा पर उपलब्ध समकालीन दस्तावेज बड़ा स्पष्ट इशारा करते हैं कि ज्यादातर स्त्रियां अपनी इच्छा के खिलाफ जबरदस्ती जलाई जाती थीं। इसी तरह, बहुत सी बच्चियों को जन्म लेने के पहले ही या जन्म लेने के फौरन बाद मारने का काम हमारा समाज करता रहा है और यह कमोबेश आज भी जारी है। यह क्या कम विडंबना है कि आर्थिक समृद्धि और शिक्षा बढ़ने के साथ आबादी में जेंडर गैप भी बढ़ता जा रहा है। जन्म के पहले ही विलुप्त हो जाने वाली लड़कियों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही है।


बाबाओं के यहां अपनी बेटियों को ले जाकर छोड़ देने के फैसले के पीछे भी मां-बाप की ही कोई कदिच्छा छिपी हुई होती है। लड़कियों को संपत्ति में हिस्सा न देना पडे़, इसके लिए क्या नहीं किया जाता? बाबाओं के आश्रमों में छोड़ देना इसी प्रयास की एक कड़ी है। कानूनों में परिवर्तनों ने काफी कुछ बदला है, पर अब भी बहुत कुछ करने को है। एक महत्वपूर्ण बदलाव तो हुआ है कि बाबाओं को लेकर सामाजिक स्वीकृति काफी हद तक घटी है और अब विधायिका, न्यायपालिका या मीडिया उनके प्रति बहुत उदार नहीं रह गए हैं, पर इतना ही काफी नहीं है। समय आ गया है, जब सारे धार्मिक स्थलों में रह रही महिलाओं का सर्वेक्षण किया जाए और राज्य उनके रहने, खाने और समाज मे सम्मानजनक पुनर्वास की व्यवस्था करे। इन सबके साथ महिलाओं को लेकर भारतीय समाज में बड़े मूल्यगत परिवर्तनों की जरूरत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-former-ips-officer-vibhuti-narayan-rai-article-in-hindustan-1726048.html


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