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न्यूज क्लिपिंग्स् | आंदोलन से आगे- एन के सिंह

आंदोलन से आगे- एन के सिंह

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published Published on Oct 31, 2012   modified Modified on Oct 31, 2012
जनसत्ता 29 अक्टुबर, 2012: यह मानना गलत होगा कि अरविंद केजरीवाल ने बिजली के सरकार द्वारा काटे गए कनेक्शन फिर से जोड़ कर जनता को कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ बरगलाया है। दरअसल, यह हमला उस मर्मस्थल पर है जिसे हम शासन करने की वैधानिकता कहते हैं। यह आघात एक सड़ी हुई व्यवस्था पर है जिस पर से जनता का विश्वास लगभग उठ चुका है। गांधी ने भी यही किया था।
सविनय-अवज्ञा (सिविल डिसओबीडियंस) के जनक हेनरी डेविड थोरो ने भी इसका सहारा लिया था, जो गांधी के एक प्रेरणा-स्रोत थे। उनके बारे में एक मशहूर किस्सा है। अमेरिकी सरकार ने कोई टैक्स लगाया, जिसके बारे में थोरो की राय थी कि वह टैक्स राज्य नहीं लगा सकता। लिहाजा, उन्होंने टैक्स नहीं दिया, जिसकी वजह से उन्हें जेल भेज दिया गया। एक दिन उनका एक पड़ोसी किसी अन्य कैदी से मिलने जेल गया और देखा कि थोरो बंद हैं। उसने चौंकते हुआ पूछा ‘अरे थोरो आप अंदर कैसे हैं?’ थोरो का जवाब था ‘यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मैं अंदर कैसे हूं, सवाल यह है कि आप बाहर कैसे हैं?’
कुछ महीने पहले हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने अपना घोषणापत्र जारी किया, लेकिन एक ने भी यह नहीं बताया कि भ्रष्टाचार से लड़ने का उनके पास कौन-सा नुस्खा है। किसी ने मुसलिम आरक्षण की बात की, तो किसी ने बेरोजगारों को बैठे-बैठाए भत्ता देने का वादा किया। दरअसल, हम्माम में रहने का एक अलिखित नियम है कि कोई किसी को नंगा नहीं कहेगा। लिहाजा, कमर के ऊपर कपड़ा न होने को लेकर वे भले ही एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हों, लेकिन कमर के नीचे क्या है इसके बारे में कोई नहीं बोलता। 
इटली की समसामयिक राजनीतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने से समझ में आता है कि किस तरह माफिया कानून-व्यवस्था और सरकारों पर भारी ही नहीं पड़ते, बल्कि सरकार नीतियों फैसलों को जिस तरह चाहते हैं तोड़-मरोड़ लेते हैं। भारत में भी ऐसा हो रहा है, इस बात के संकेत हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सादिक बाचा भी शामिल था, जो कि ए राजा का काफी करीबी माना जाता था। उसकी लाश फंदे से लटकी हुई उसके घर में पाई गई। इसी तरह बिहार के पशुपालन मंत्री भोलाराम तूफानी ने ‘खुद को चाकू घोंप कर’ आत्महत्या कर ली। वे भी चारा घोटाले में आरोपी थे।
इसी तरह गाजियाबाद जिला न्यायालय के कोषागार में प्रशासनिक अधिकारी के पद पर तैनात आशुतोष अस्थाना की डासना जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। पीएफ घोटाले में उन पर भी आरोप लगे थे और साथ ही इस बात का भी डर था कि इस घोटाले में आशुतोष द्वारा कई अन्य जजों के नाम उजागर किए जा सकते हैं। इसी तरह झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन के निजी सचिव शशिनाथ झा की भी रांची के पिस्का नगरी गांव में हत्या कर दी गई। माना जाता है कि झा को अपने आका के बारे में बहुत कुछ मालूम था। पैंसठ साल से इतना सब होने के बाद भी ‘चेरी छोड़ न होउब रानी’ की मानसिकता से हम बाहर नहीं निकल सके। धर्म तेजा से राजू तक कफन-घसोट हमारी लाश से चादर भी ले जाते रहे, पर हमने मान लिया कि जनता राजा नहीं बनाती और राजा जो चाहता है वह कर लेता है।
लगभग सत्तर लाख करोड़ के काले धन की कोख से उपजा भ्रष्टतंत्र भीमकाय होता रहा और अब वह इतना ताकतवर हो गया है कि समूचे समाज को मुंह चिढ़ा कर राजफाश करने वालों की हत्याएं कर रहा है।
इसी तरह के माहौल में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन शुरू होता है। प्रश्न यह नहीं है कि अण्णा नेतृत्व कर रहे हैं या केजरीवाल से उनका नाता टूट गया है। ये लोग उत्प्रेरक की भूमिका में है, जनाक्रोश तो पैंसठ सालों से दबी भावना का प्रतिफल है। यानी अण्णा या केजरीवाल की वजह से आंदोलन नहीं है, बल्कि ये लोग भीतर ही भीतर सुलगती रही जन-चेतना की उपज हैं।
आंदोलनों को क्रांति में बदलने की कुछ शर्तें होती हैं। उसका एक पक्ष मूल आंदोलन से निकला होता है, लेकिन एक बड़ा पक्ष तत्कालीन व्यवस्था के खिलाफ या किसी भावना पर आधारित होता है। ब्रिटेन की 1688 की गौरवमयी क्रांति (ग्लोरियस रिवोल्यूशन) सफल न होती, अगर क्रामवेल के सैनिक शासन के खिलाफ जनाक्रोश का उबाल न आया होता। अमेरिकी उदारवादी राष्ट्रवादी क्रांति (1770) की सफलता के पीछे ब्रितानी साम्राज्यवाद के खिलाफ जन-असंतोष की महती भूमिका रही थी। उसी तरह फ्रांसीसी क्रांति (1789) को तब तक व्यापक जन-समर्थन नहीं मिल सका, जब तक बाहरी सम्राटों की सेना ने इस क्रांति को कुचलने के लिए कूच नहीं किया।     
आज अरविंद ने बिजली के जिस मुद््दे पर लोगों को शिरकत की दावत दी है उसे महज प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है। यह किसी दल के खिलाफ नहीं, बल्कि समूचे व्यवस्था परिवर्तन के लिए किए जा रहे उपक्रम का एक छोटा चरण मात्र है। लेकिन क्यों यह मौका सिर्फ किसी अरविंद या किसी अण्णा को दिया जाए। क्यों न इसे किसी व्यक्ति-केंद्रित आंदोलन से हटा कर सर्व-समावेशी सामाजिक आंदोलन के भाव से लिया जाए? यह ‘अस वर्सेस देम’ (हम बनाम वे) का भाव क्यों?
क्या बेहतर यह नहीं होगा कि वर्तमान राजनीतिक दल अपनी जिद छोड़ कर इस पूरे आंदोलन को एक क्रांति के रूप में तब्दील करने में अपनी भूमिका निभाएं? कांग्रेस का इतिहास रहा है क्रांति का। क्या यह समीचीन नहीं होगा कि वह इस आंदोलन की बागडोर स्वयं अपने हाथों में ले और पहली शुरुआत का संदेश अपना घर साफ  करके दे। दूसरी ओर, देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे शक्तिशाली संगठन हैं, जिनकी अपने उद््देश्य के प्रति निष्ठा अतुलनीय है।
क्या संघ या भाजपा के लिए या किसी भी अन्य राजनीतिक दल के लिए, जो जनता की बात करता है, भ्रष्टाचार से भी बड़ा मुद््दा कोई हो सकता है? फिर क्यों ये सारे संगठन या तो थोरो के पड़ोसी का भाव लिए उदासीन बैठे हैं या फिर दुराग्रह से ग्रस्त हो गए हैं? प्रमोद महाजन इनके यहां थे, पर वे पार्टी अध्यक्ष नहीं बन सके। लेकिन जब से आडवाणी-वाजपेयी इनके नेतृत्व से बाहर हुए, संघ का प्रभुत्व बढ़ा और संघ के पास यह तर्क करने की सलाहियत नहीं है कि गडकरी और आडवाणी में अंतर क्या है। नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के गडकरी, कांग्रेस के सलमान और सोनिया के वडरा के बरअक्स खड़े दिखने लगे।
जब देश की दोनों सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां हम्माम में एक ही भाव में खड़ी हों तो पूरे राजनीतिक वर्ग पर जनता की अनास्था स्वाभाविक है।              
आज अगर ये दल या संगठन उदासीन बने रहते हैं तो इतिहास रुकेगा नहीं। लेकिन अगली पीढ़ी के विश्लेषक यह मान बैठेंगे कि दलों और संगठनों में सामाजिक क्रांति की अंतर्निष्ठ क्षमता होती ही नहीं है। ये केवल सत्ता के खेल के खिलाड़ी हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन नहीं हो सकता, केवल क्रांति हो सकती है। यही वजह है कि 1970 के पूर्वार्ध का जेपी आंदोलन दूर तक नहीं जा सका और आंदोलन की परिणति तत्कालीन राजनीति की कोख से कुछ ऐसे कुपोषित और ठूंठ बच्चे पैदा करने में हुई जो बाद में सामाजिक न्याय के छद््म नारे पर सत्ता-भोग के लिए जातिवाद और भ्रष्टाचार की पौध सींचते रहे। तब से आज तक जनता ठगी महसूस करती रही है। आंदोलनों पर से विश्वास उठता गया और ‘सब वही हैं’ का भाव घर कर गया।
कौन-सा आंदोलन महज आंदोलन रहेगा, कैसा आंदोलन अस्थायी राजनीतिक परिवर्तन तक महदूद रहेगा और किस आंदोलन की परिणति क्रांति में होगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि मूल मुद््दा क्या है, उसे कैसे उठाया गया है, उस समय की सामूहिक चेतना का स्तर क्या रहा है और उसे झकझोरने के लिए किन उपकरणों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
महंगाई के खिलाफ सरकार पर दबाव बनाने के लिए सड़कों पर आना, खुदरा बाजार में एफडीआइ न आए इसके लिए देशव्यापी प्रदर्शन करना, किसानो को गेहंू का समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए जंतर मंतर पर धरना देना या जाटों को आरक्षण दिलाने के लिए रेल की पटरी पर बैठना कुछ उन मुद््दों में से है जिन पर आंदोलन किया जा सकता है। सरकार पर दबाव डाल कर बात मनवाई जा सकती है या सरकार को अगले चुनाव में हटाया जा सकता है।
एक बार ऐसा होने के बाद आंदोलन स्वत: दम तोड़ देता है। जेपी आंदोलन की भी यही परिणति रही। आपातकाल लगा और फिर चुनाव हुए। लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही स्थिति। आंदोलन अपनी सार्थकता खोता गया और व्यवस्था में कुछ नाजायज अवयव छोड़ गया, जिनका दंश जातिवादी राजनीति के स्थायी भाव के रूप में आज भी समूचे देश को डस रहा है।
भ्रष्टाचार इन मुद््दों से हट कर एक नैतिक-सामाजिक-शासकीय दोष है। नैतिक इसलिए, क्योंकि इसमें व्यक्ति को स्वार्थ से ऊपर उठना पहली शर्त है ताकि वह बेहतर समाज-निर्माण के उद््देश्य को अपने व्यक्तिगत लाभ से ऊपर समझे। वह यह भी समझे कि जैसे उसका स्वार्थ व्यवस्था पर लोगों के विश्वास को क्षति पहुंचाएगा वैसे ही किसी और का स्वार्थ भी, और तब वह और उसकी अगली पीढ़ी जिस समाज में सांस लेंगे वह नैतिक दृष्टि से पूरी तरह से प्रदूषित होगा।
ऐसे में यह समझना जरूरी है कि भ्रष्टाचार-उन्मूलन का मतलब किसी दल को हरा कर दूसरे दल को सत्ता में लाना नहीं है और अगर कोई अरविंद केजरीवाल इस भाव से राजनीति में आते हैं तो हार अवश्यंभावी है। दूसरी ओर, इस आंदोलन की प्रकृति को समझते हुए राजनीतिक दलों या संगठनों को चाहिए कि इसे विरोधी या वैरागी भाव से न देखें, बल्कि अपने को इसका अहम हिस्सा मान कर इसमें शामिल हों। देश जानता है कि न तो सोनिया गांधी न आडवाणी में न ही मोहन भागवत में देश के प्रति प्रतिबद्धता में कोई कमी है न ही ऐसा है कि वे भ्रष्टाचार को पलते देखना चाहेंगे। समस्या सिर्फ यह है कि सही नजरिए की कमी है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/31637-2012-10-29-06-04-26


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