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न्यूज क्लिपिंग्स् | आपदा या बड़े खतरे की दस्तक-- एस. श्रीनिवासन

आपदा या बड़े खतरे की दस्तक-- एस. श्रीनिवासन

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published Published on Nov 30, 2018   modified Modified on Nov 30, 2018
चक्रवाती तूफान गाजा बीते 16 नवंबर को तमिलनाडु में नागपट्टिनम और वेदारण्यम के तटीय जिलों से टकराया, और अपने पीछे सात दशकों की सबसे बड़ी तबाही के निशान छोड़ गया। इसे ‘गंभीर चक्रवाती तूफान' माना गया, जिसका अर्थ है कि हवा की गति प्रति घंटे 89 से 118 किलोमीटर थी। इसमें तेज हवा के साथ भारी बारिश भी हुई, जिससे तमिलनाडु के दर्जन भर जिले प्रभावित हुए।


इस तूफान में कम से कम 45 लोगों की जान गई और इन्फ्रास्ट्रक्चर, संपत्ति व खेती-किसानी को भारी नुकसान पहुंचा। तूफान अपने रास्ते में आने वाले सभी को उड़ा ले गया। इसमें बड़ी संख्या में मवेशी और जंगली जानवरों की मौत हुई, लाखों पेड़ धराशायी हुए, बिजली के खंभे उखड़ गए, घरों को नुकसान पहुंचा और खेतों में लगी फसलें बर्बाद हो गईं। तमिलनाडु के कावेरी ‘डेल्टा क्षेत्र' में, जिसे राज्य का चावल का कटोरा कहा जाता है, तबाही के निशान और मलबे पसरे हुए हैं। एक बड़ी आबादी का पेट भरने वाले यहां के किसान आज अपनी दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।


तूफान आने से पहले राज्य सरकार ने लोगों के लिए कई चेतावनियां जारी की थीं। नतीजतन, मछुआरों को गहरे समुद्र से वापस बुला लिया गया था और तटीय क्षेत्रों में रहने वाली बड़ी आबादी सुरक्षित स्थानों पर चली गई थी। इन सबसे कई जिंदगियां बच गईं। मगर जिस तरह इस तूफान ने पूरे क्षेत्र को अपने आगोश में ले लिया, वह अभूतपूर्व था। यह चक्रवाती तूफान इतना व्यापक व तीव्र होगा, इसका अंदाजा न तो सरकार को था और न ही आम लोगों को। करीब दो हफ्तों के बाद भी कई सुदूर गांवों में बिजली सेवा बहाल नहीं की जा सकी है, क्योंकि बिजली की तारें टूटी हुई हैं। मलबों से पटी गांव की सड़कें जिला मुख्यालय से अब भी कटी हुई हैं। हालांकि प्रशासन सड़कों और पुलों को बहाल करने में जुटा हुआ है।


इस तूफान से सबसे ज्यादा नुकसान नारियल के किसानों को हुआ है। रिटर्न के लिहाज से कहीं ज्यादा लाभदायक माने जाने वाले 50-70 वर्ष पुराने पेड़ उखड़कर जमीन पर लेट चुके हैं। इन किसानों को अब जल्द ही कुछ नया करना होगा, क्योंकि नए पेड़ कम से कम 10-15 साल बाद ही फल देना शुरू करते हैं। इसके अलावा, उनके सिर से छत भी छिन गई है, और पीने का पानी तक उन्हें उपलब्ध नहीं हो पा रहा। ज्यादातर किसानों ने किसी प्रकार का फसल बीमा नहीं लिया है। जाहिर है, अधिकतर किसानों की हालत गंभीर है और वे कर्ज के जाल में फंस सकते हैं, क्योंकि उनके पास पूर्व में उधार लिए गए पैसों को वापस करने के लिए कमाई का कोई साधन नहीं बचा है।


भारत के तटीय इलाके सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र माने जाते हैं। दुनिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जितनी तूफानें आती हैं, उसकी 10 फीसदी यहीं से गुजरती हैं। इस बाबत नेशनल साइक्लोन रिस्क मिटिगेशन प्रोजेक्ट (एनसीआरएमपी) ने तमाम तरह के निष्कर्ष निकाले हैं, मगर उनमें से एक यह बताता है कि ‘जलवायु परिवर्तन और इसके कारण समुद्र के जल स्तर में होने वाले बदलाव तटीय आबादी के लिए खतरा कहीं अधिक बढ़ा सकते हैं'। पिछले हफ्ते पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने भी केरल को अगस्त में तबाह करने वाली अतिवृष्टि और बाढ़ पर अपना विश्लेषण जारी किया, जिसका निष्कर्ष बताता है कि राज्य के लिहाज से सदी की इस भयंकर तबाही का कारण जलवायु परिवर्तन था।


देश के दक्षिणी तटों पर लगातार आई दो आपदाओं से अब हमें चेत जाना चाहिए। राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठानों यानी केंद्र व राज्य सरकारों, दोनों को एक साथ बैठने की जरूरत है। वे हालात की गंभीरता को समझें और भविष्य में इस तरह की आपदाओं से निपटने के लिए जरूरी दिशा में आगे बढ़ें। बात तटीय इलाकों की ही नहीं है, हिमालय क्षेत्र, यहां तक कि मैदानी इलाकों पर भी खतरा पसर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने में कामयाब हो भी गई, तब भी इस सदी के अंत तक हिंदू-कुश पर्वतमाला पर मौजूद एक तिहाई ग्लेशियर पिघल सकते हैं।


तमिलनाडु के राजनीतिक वर्ग ने शुरुआत में परिपक्वता दिखाई थी, मगर जैसे ही अपर्याप्त राहत कार्य की खबरें आईं, आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए। विपक्ष ने सूबाई ई पलानीसामी सरकार को इस मोर्चे पर विफल बताया। लोगों की आलोचना झेल रहे मुख्यमंत्री ने राहत व पुनर्वास के कामों के लिए केंद्र से 15,000 करोड़ रुपये की मांग की है। राज्य सरकार ने अपने तईं तत्काल राहत कार्यों के लिए 1,000 करोड़ रुपये जारी भी किए हैं। हालांकि आपात राहत उपायों के अलावा राज्य को दीर्घकालिक पुनर्वास कार्यों का बीड़ा भी उठाना होगा। इसमें राहत शिविर और अधिक संख्या में बनाने के साथ ही सरकार को चक्रवाती तूफान झेलने वाले मकान, रोड लिंक, पुल-पुलिया, नहर, नालियां, ऊंचे वाटर टैंक, संचार व बिजली आपूर्ति लाइन आदि बनाने होंगे।


हालांकि इन तमाम उपायों की एक सीमा है। सबसे जरूरी तो यही है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या पहचानी जाए और भारत सहित तमाम देश, खासतौर से विकसित मुल्क इस पर गंभीरता से विचार करें। चूंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का रुख नकारात्मक है और उन्होंने जलवायु से जुड़े किसी भी प्रोग्राम को फंड देने से इनकार कर दिया है, इसीलिए विश्व समुदाय उलझन में है। एक्टिविस्ट लगातार मुखर हैं कि जलवायु परिवर्तन कोई भविष्य की समस्या नहीं है, बल्कि यह बदलाव सूखे, चक्रवाती तूफान, भारी बारिश और धूल भरी आंधी के रूप में हमें आज भी नुकसान पहुंचा रहा है। मगर राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान उदासीन दिखता है।


बहरहाल, अत्यधिक बढ़ती शहरी आबादी और प्राकृतिक आपदाओं की लगातार होती घटनाओं ने लोगों को भले ही जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों के प्रति संजीदा किया हो, पर अब भी यह हमारी नीतियों या चुनावी मुद्दों में शामिल नहीं हो सका है। हालांकि तमिलनाडु के मतदाता राजनीतिक वर्गों के खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए अब कहने लगे हैं कि ‘अगर मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट के सदस्य वोट के लिए दर-दर घूम सकते हैं, तो आपदा राहत के लिए वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते?' लिहाजा वक्त की मांग यही है कि राजनेता इन आवाजों को सुनें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-27-november-2285297.html


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