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न्यूज क्लिपिंग्स् | कितना हमला, कितना जुमला!-- अनिल रघुराज

कितना हमला, कितना जुमला!-- अनिल रघुराज

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published Published on Nov 22, 2016   modified Modified on Nov 22, 2016
सड़क से संसद तक फैली अशांति के बीच केंद्र सरकार की गति सांप और छछुंदर जैसी हो गयी है. न उगलते बन रहा है और न निगलते. एक मुश्किल सुलझाने निकले तो बड़ी मुसीबत गले पड़ गयी. दरअसल, पिछले महीने दीवाली के चंद दिन पहले ही केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने आंकड़ा जारी किया कि देश की 129.5 करोड़ की आबादी में से मात्र 3.65 करोड़ या 2.8 प्रतिशत लोग इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करते हैं और रिटर्न दाखिल करनेवालों का 52.3 प्रतिशत हिस्सा ही टैक्स देता है.

इस तरह 1.91 करोड़ या 1.47 प्रतिशत भारतीय ही इनकम टैक्स देते हैं. इसमें से भी 90.05 प्रतिशत निजी करदाताओं या 1.72 करोड़ लोगों ने साल में 1.5 लाख रुपये के कम का इनकम टैक्स दिया. उनके टैक्स की औसत मात्रा 25,591 रुपये रही और कुल इनकम टैक्स में उनका योगदान 23 प्रतिशत का रहा. वहीं, 9.95 प्रतिशत निजी करदाताओं या 19.18 लाख लोगों ने ही 1.5 लाख रुपये से ज्यादा का इनकम टैक्स दिया. उनके टैक्स की औसत मात्रा 7.68 लाख रुपये रही और कुल इनकम टैक्स में उनका योगदान 77 प्रतिशत का रहा.

यह आंकड़ा वित्त वर्ष 2013-14 या आकलन वर्ष 2014-15 का है और सबसे नया आधिकारिक आंकड़ा है. यह वाकई चौंकानेवाली बात है कि देश की आबादी का 1.33 प्रतिशत हिस्सा 23 प्रतिशत इनकम टैक्स दे रहा है, जबकि 0.15 प्रतिशत लोग 77 प्रतिशत इनकम टैक्स दे रहे हैं. इस साल की आर्थिक समीक्षा में भी चिंता जताते हुए कहा गया था कि देश में कमानेवालों में से 5.5 प्रतिशत लोग ही इनकम टैक्स देते हैं. गौरतलब है कि भारत में टैक्स व जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का अनुपात 16.7 प्रतिशत है, जबकि अमेरिका में यह 25.4 प्रतिशत और जापान ने 30.3 प्रतिशत चल रहा है.

ब्रिक्स देशों की बात करें, तो यह अनुपात चीन में 19.4 प्रतिशत, रूस में 23 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका में 28.8 प्रतिशत और ब्राजील में 35.6 प्रतिशत का है. हर जगह भारत से ज्यादा. जाहिर है कि भारत सरकार के लिए बड़ी चुनौती है कि इस विसंगति को मिटा कर देश में टैक्स देनेवालों का आधार कैसे बढ़ाया जाये. मुश्किल यह भी है कि अपने यहां व्यक्ति ही नहीं, कंपनियां भी टैक्स देने में कोताही करती हैं. आकलन वर्ष 2014-15 में रिटर्न दाखिल करनेवाली 7.01 लाख कंपनियों में से 3.66 लाख कंपनियों ने कोई टैक्स नहीं दिया था.

इनकम टैक्स या कॉरपोरेट टैक्स जैसे प्रत्यक्ष कर देने का सिलसिला कैसे बढ़ाया जाये, इस पर देश में कई दशकों से काम हो रहा है. पर, कोई प्रगति नहीं दिख रही. जहां दशकों से देश में 25-30 करोड़ लोगों के खाते-पीते मध्यवर्ग की बात की जा रही है, वहां अब भी मात्र 19.18 लाख लोग ही 77 प्रतिशत इनकम टैक्स देते हैं. लेकिन, सरकार को टैक्स हर हाल में चाहिए, तो उसने परोक्ष करों पर निर्भरता बढ़ा दी. पहले सर्विस टैक्स और अब उसे जीएसटी में समाहित करके यह मोर्चा फतह किया जा रहा है. लेकिन, माना जाता है कि प्रत्यक्ष कर प्रगतिशील होते हैं, जबकि परोक्ष कर प्रतिगामी होते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष कर में ज्यादा कमानेवाले को ज्यादा टैक्स देना होता है, जबकि परोक्ष कर में भिखारी से लेकर धन्नासेठ तक से समान टैक्स लिया जाता है.

टैक्स की इस उलझन को सुलझाना आसान नहीं है और न ही यह काम चुटकी बजाते हो सकता है. लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी के एकछत्र नेतृत्व में चल रही एनडीए सरकार को लगा कि 500 और 1000 के नोटों को खत्म करके जन-जन को झकझोरा जा सकता है. जिन्होंने टैक्स नहीं दिया है, उन्हें टैक्स देने को मजबूर किया जा सकता है. इससे भविष्य में टैक्स न देनेवालों के मन में ऐसा डर बैठ जायेगा कि वे लाइन पर आ जायेंगे. सारा कुछ कालेधन को खत्म करने के नाम पर किया गया. साथ में असर बढ़ाने के लिए उसमें नकली नोटों की समाप्ति और आतंकवाद पर नकेल कसने का तड़का भी लगा दिया गया.

सरकार ने बड़ा सीधा-सीधा हिसाब लगाया. भारतीय अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा अब भी कैश आधारित है. कैश का बड़ा हिस्सा 500 और 1000 के नोटों के रूप में है. कमानेवाले लोग अपनी जो आय इनकम टैक्स अधिकारियों के आगे घोषित नहीं कर रहे हैं, वही तो कालाधन है. इसलिए 500 और 1000 के नोटों की वैधता खटाक से खत्म कर देने से जहां कालाधन स्वाहा हो जायेगा, वहीं यह अर्थनीति राजनीति का मास्टर स्ट्रोक बन जायेगी. आम लोगों को कुछ दिन तक जो समस्या होगी, वह कालेधन के खिलाफ युद्ध और महायज्ञ की भावना से शांत हो जायेगी. देश धीरे-धीरे कैशलेस अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ जायेगा और हर किसी की आय व व्यय का ब्यौरा ऑनलाइन रहेगा, तो कोई इनकम टैक्स देने से नहीं बच पायेगा.

लेकिन, पिछले दो हफ्तों की हकीकत ने साबित कर दिया है कि इस राजनीति प्रेरित अर्थनीति ने कालेधन पर कम और आम लोगों की जिंदगियों पर ज्यादा हमला किया है. प्रधानमंत्री मोदी से लेकर सरकार में बैठे हमारे नीति-निर्माता नहीं समझ पाये कि जिस धन पर टैक्स नहीं दिया गया है, जरूरी नहीं है कि अपराध या भ्रष्टाचार से कमाया गया हो. हो सकता है कि फैक्टरी या धंधे की आय को एक्साइज या सर्विस टैक्स से बचाने के लिए कम दिखाया गया हो. फिर, सारी काली आय कैश में नहीं रखी जाती. जिस तरह आम लोग बचत का थोड़ा ही हिस्सा कैश के रूप में रखते हैं, उसी तरह कालाधन वाले भी ज्यादा कैश नहीं रखते. भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के शब्दों में- सरकार का यह कदम काली मुद्रा के खिलाफ जरूर है, लेकिन कालेधन के खिलाफ नहीं.

सबसे बड़ी बात यह है कि इससे वह विश्वास टूटा है, जो हर नोट पर रिजर्व बैंक के गवर्नर के वचन के रूप में धारक को दिया जाता रहा है. कालाधन रखनेवाले अब डॉलर जैसी बड़ी मुद्रा का रुख कर लेंगे. वहीं, आम हिंदुस्तानी के मन में डर समा जायेगा कि उसका नोट कभी भी सरकार के फैसले से रद्दी बन सकता है. फिर, जहां बिजली की चौबीस घंटे सप्लाई की गारंटी न हो और बड़े-बड़े बैंकों के 32 लाख डेबिट कार्डों का डेटा अचानक चुरा लिया जाता हो, वहां फिलहाल हम देश के फटाफट कैशलेस बनने का हसीन सपना नहीं देख सकते.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/895644.html


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