Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | क्या आप डोरिस फ्रांसिस को जानते हैं -- शशिशेखर

क्या आप डोरिस फ्रांसिस को जानते हैं -- शशिशेखर

Share this article Share this article
published Published on Dec 6, 2016   modified Modified on Dec 6, 2016
‘ईश्वर अपना सबसे कठिन युद्ध अपने सबसे बलवान योद्धा को सौंपते हैं।'

 

बाइबिल की यह सूक्ति गाजियाबाद की डोरिस फ्रांसिस पर सौ फीसदी खरी उतरती है। शायद आपने उनका नाम न सुना हो। साधारण कुल में जन्मे और जिंदगी भर आर्थिक पैमाने की तली में खडे़ ऐसे लोगों पर अक्सर किसी की नजर नहीं जाती।
डोरिस नौ वर्ष की उम्र में अपने भाई और बहन के साथ पंजाब से दिल्ली पहुंची थीं। बतौर घरेलू परिचारिका उन्होंने अपनी आजीविका की शुरुआत की। इसी दौरान विक्टर फ्रांसिस से उनका विवाह हुआ। उन्होंने दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर बसे खोड़ा में अपना आशियाना बनाया। वहीं उनके तीन बच्चे हुए। डोरिस की जिंदगी में अगर एक दुखद मोड़ न आया होता, तो उनकी कहानी भी संसार के उन 99.99 प्रतिशत व्यक्तियों की तरह तीन शब्दों में खत्म हो जाती- वे जन्मे, जिए और मर गए।

 

नौ नवंबर, 2008 को डोरिस अपने पति विक्टर और बेटी निक्की के साथ घर लौट रही थीं। खोड़ा कट के पास एक कार ने उनके ऑटो को टक्कर मार दी। पति-पत्नी घायल हो गए और निक्की के फेफडे़ बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए। नौ महीने के खर्चीले इलाज और दारुण यंत्रणा के बावजूद निक्की को मौत लील गई। ऐसी घटनाएं अक्सर लोगों को तोड़ देती हैं, पर डोरिस ने फैसला किया कि मेरे साथ जो हुआ, वह मैं औरों के साथ नहीं होने दूंगी।

उन्होंने सड़क यातायात की सुगमता को जीवन का लक्ष्य बना लिया। हर रोज सुबह सात बजे वह उसी खोड़ा चौराहे पर आ डटतीं और 11 बजे तक यातायात को नियंत्रित करतीं। गाड़ियों में सवार लोग उनकी सुनते नहीं थे, शुरुआत में पुलिस को भी लगा कि यह भला कौन है? वह डटी रहीं। धीमे-धीमे उधर से गुजरने वालों को उनकी आदत पड़ गई। वे उनके संकेतों का सम्मान करने लगे। उनके इशारों पर गाड़ियों के पहिए थमने अथवा घूमने लगे। जाम के लिए बदनाम खोड़ा चौराहा उनके जीवट के चलते सुगम हो चला। डोरिस के लिए रोजाना यह मोर्चा संभालना आसान नहीं था। वह जिस वर्ग से आती हैं, वहां जीने के लिए हर रोज कुआं खोदना पड़ता है। उनकी हिम्मत को सलाम कि वह अटल रहीं। उन्हें कई बार तरह-तरह के प्रदूषण से दिक्कतें हुईं। लीवर में संक्रमण हुआ। रक्तचाप अक्सर सीमाएं लांघता रहा, लेकिन वह साहस संजोए रहीं।

कोई पूछता, तो कहतीं कि जब तक जान है, तब तक मैं दूसरों की जान बचाने की कोशिश करती रहूंगी। मैं बच्चों को अनाथ, महिलाओं को विधवा होते और माताओं को संतानें गंवाते नहीं देख सकती। इसी बीच उनके अंडाशय में कैंसर हो गया। मुफलिसी के मारे लोगों को कैंसर का नाम ही मार देता है। डोरिस फिर भी डटी रहीं। पिछले नवंबर की 20 तारीख तक वह अपने छोटे से डंडे के साथ खोड़ा मोड़ पर हाजिर थीं।

उसी के बाद उनकी तबियत बिगड़ी और डोरिस को 21 नवंबर को नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भरती कराया गया। वह वहां दस दिन भी नहीं काट सकीं, क्योंकि इलाज के लिए हर रोज कुलजमा दो-तीन हजार रुपये की जरूरत थी। उनके परिवार में कमाने वाला सिर्फ एक है, उनका बेटा, जो ऑटो चलाता है। पति मधुमेह के मरीज हैं और अब उनसे काम नहीं होता। बेटी निजी कंपनी में प्रहरी की नौकरी करती है। उसे दो-तीन महीने से वेतन नहीं मिला है। मां के इलाज के लिए बेटी ने अपनी मोटरसाइकिल बेच दी। बेटी डॉली बताती है कि इलाज का खर्च इतना ज्यादा था कि अगर पूरा परिवार खुद को बेच देता, तब भी शायद पूरा नहीं पड़ता। हताश परिजन 30 नवंबर को उन्हें ‘एम्स' से ‘डिस्चार्ज' करा ले गए। ये पंक्तियां लिखे जाने तक गाजियाबाद के उपनगर वैशाली में निजी अस्पताल के सौजन्य से उनका इलाज चल रहा है। मीडिया में खबरें आने के बाद कुछ लोग उनकी सहायता को आगे आए हैं। प्रधानमंत्री ने उनके लिए तीन लाख रुपये की मदद की घोषणा की है, तो दिल्ली पुलिस ने भी ढाई लाख की मदद दी है। आखिरकार उस समाज ने उनकी सुध तो ली, जिसके लिए उन्होंने अपनी जिंदगी के आठ साल होम कर दिए।

 

दिल्ली सिर्फ भारत की नहीं, बल्कि अनाम मौतों की राजधानी भी है। यहां उन लाखों लोगों के सपने प्रतिदिन कुर्बान होते हैं, जो यहां किसी आसरे की आस में आते हैं।
यहां यह सवाल भी उठता है कि एम्स जैसे संस्थान क्या गरीब-गुरबों का इलाज नहीं कर सकते? एम्स स्वायत्त संस्थानों की सूची में आता है। ऐसे संस्थानों की अगर कुछ सीमाएं होती हैं, तो उनके पास कुछ खास अधिकार भी होते हैं। निजी अस्पतालों से कोई उम्मीद नहीं करता, पर इस तरह के चिकित्सा संस्थान भी अगर दुखियारों की मदद नहीं करेंगे, तो हिन्दुस्तान किस मुंह से कल्याणकारी राष्ट्र होने का दावा करेगा?
उम्मीद है, डोरिस फ्रांसिस को पूरी चिकित्सा मिलेगी और वह अपनी शारीरिक तकलीफ से शीघ्र मुक्ति पा सकेंगी। उन जैसे लोग किसी ऊंची पहाड़ी या टीले पर टिमटिमाते उन दीयों की तरह होते हैं, जो अंधेरे को पूरी तरह भले दूर न कर सकें, मगर उससे लड़ने का हौसला जरूर देते हैं। हम सुकून के साथ कह सकते हैं कि इस देश के दबे-कुचले लोगों से अक्सर रोशनी के चलते-फिरते स्तंभ निकलते हैं। तेजाबी हमले से पीड़ित लक्ष्मी अथवा किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी जैसे लोग इसकी मिसाल हैं।

 

लक्ष्मी ने चेहरा विकृत हो जाने के बावजूद हार नहीं मानी। वह लड़ीं। शुरू में ही उन्हें सरकारी नौकरी छोड़कर एसिड अटैक पीड़िताओं के लिए मुहिम चलाने वाले आलोक दीक्षित जैसे लोगों का सहयोग मिल गया। 27 हजार लोगों ने तेजाब की खुलेआम बिक्री के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका पर हस्ताक्षर किए। आला अदालत ने इस याचिका के आधार पर केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे तेजाबी हमलों को थामने के लिए कानूनी प्रक्रिया को सरल बनाएं। लक्ष्मी का चेहरा पुरानी रंगत नहीं हासिल कर सकता, पर उन्होंने अपने दम-खम से तमाम युवतियों के नूर की रक्षा की है।

इसी तरह, लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने हजारों साल से भारत में किन्नरों के साथ हो रहे भेदभाव के विरुद्ध आवाज बुलंद की। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी भी गुहार सुनी और अप्रैल 2014 में जो फैसला सुनाया, उसी के आधार पर किन्नरों को आज ‘थर्ड जेंडर' के रूप में मान्यता मिली है। समान तरक्की के अवसर अब उनके लिए अनुदान नहीं, कानून प्रदत्त अधिकार हैं।

लक्ष्मी और लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी, दोनों डोरिस के मुकाबले ज्यादा भाग्यशाली साबित हुए। उनकी ख्याति सात समंदर पार तक पहुंची। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सम्मानित किया गया। अपने जैसे पीड़ितों के लिए प्रतिष्ठा का रास्ता हमवार करने वाले ये लोग आज खुद भी पहले के मुकाबले अधिक इज्जत की जिंदगी बसर कर रहे हैं।

 

काश! मानवीय गरिमा के लिए संघर्ष करने वाले डोरिस जैसे सभी लोगों को ऐसी मान्यता हर बार, हर जगह हासिल हो सकती। यकीनन, दुख-दर्द तब भी होते, पर उनका कष्ट शायद इतना न महसूस होता। उसे बांटने के लिए कोई डोरिस, लक्ष्मी या लक्ष्मी नारायण हाजिर जो मिलते।
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

 


http://www.livehindustan.com/news/shashi-shekhar-blog/article1-do-you-know-doris-francis-619780.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close