Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | गरीबी नहीं गैरबराबरी है चुनौती-- मृणाल पांडे

गरीबी नहीं गैरबराबरी है चुनौती-- मृणाल पांडे

Share this article Share this article
published Published on Jan 18, 2018   modified Modified on Jan 18, 2018
एक जमाना था, जब कक्षा से चुनावी भाषणों तक में ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है?' जैसे जुमले सुनने को मिलते थे. भला हो राग दरबारी के लेखक श्रीलाल शुक्ल का, जिन्होंने इस उपन्यास के मार्फत आजादी के बाद हमारे बदहाल गांवों की असलियत दिखाकर इस पाखंड पर ऐसी चोट की कि पढ़ने-लिखनेवाले लोग इस भावुक और निरर्थक मुहावरे से बचने लगे.

फिर ‘90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण आया, जिसने ग्राम्यजीवन की जरूरतों को दरकिनार करते हुए तय कर दिया कि ग्लोबल बनती दुनिया में आर्थिक निवेश की धारा को ग्रामीण गरीबी से जकड़े छोटे सीमांत खेतिहरों के बजाय शहरों और औद्योगिक उपक्रमों की तरफ ही बहाना होगा.

आज उसके चौथाई सदी बाद फर्क यह हुआ है कि देश की साक्षरता दर बढ़ी है और मध्यवर्ग का दायरा भी, पर खेती घाटे का सौदा बन चली है, जिससे स्कूली पढ़ाई पूरी करते ही ग्रामीण युवा शहर भाग रहे हैं. और इस युवा भीड़ की बहुतायत से शहर बेतरतीब तरह से फैलने को मजबूर हैं.

लूटियन की दिल्ली में आज यूपीए की जगह एनडीए सरकार है. पुरानी सरकार के करीबी माने जानेवाले बाबुओं-पत्रकारों और अकादमिकों की बजाय नयी राजनीतिक पक्षधरता साबित कर चुकी जमात ने कमान थाम रखी है.

पर, इस बात पर सबकी राय कमोबेश यही है कि जनता के लिए शहरीकरण को बढ़ावा, बड़े खदान, सिंचाई और बिजली उत्पादन के उपक्रमों, विशाल सड़कों के जाल बनाना जरूरी ही नहीं, अनिवार्य है. चीन बनना है, तो हमारे लिए भी फटाफट बड़े-बड़े संयंत्रों, विदेशी पूंजी का भारी निवेश और उनके लिए जरूरी आधारभूत ढांचे में निवेश करना जरूरी है. अन्न चाहे आयात कर लें, लेकिन किसानी से पहले सरकारी तथा निजी स्तर पर उपक्रमों को तवज्जो देनी होगी.

राज और समाज की बाबत कई काफी चिंताजनक और ठोस सच्चाइयां लगातार उजागर हो रही हैं. अर्थशास्त्री टॉमस पिकेटी के एक लेख के अनुसार, 1980 से 2014 के बीच बने 30-40 करोड़ की अनुमानित तादादवाले भारतीय मध्यवर्ग का मात्र 10 प्रतिशत तबका आज देश की सकल आय के 60 फीसदी भाग का मालिक है.

और इसी कारण यह सुनना कि आज भारत में इतने करोड़ लोग कार मालिक हैं, और विदेश जाने लगे हैं, या कि मध्यवर्ग की महिलाएं नौकरी कर रही हैं, क्रांतिकारी लगता है. लेकिन कटु सच्चाई यह है कि तरक्की के असल पैमानों पर हम आज भी चीन के आसपास कहीं नहीं ठहरते. और न तब तक ठहरेंगे जब तक कि हमारे मध्यवर्ग का विशाल हिस्सा चीनी मध्यवर्ग की तरह शिक्षा और स्वास्थ्य कल्याण, नियमित नौकरियां, कपड़े और मकान की गारंटी नहीं पा जाता.

दरअसल, हमारा बहुप्रशंसित भारतीय मध्यवर्ग विशाल तो है, लेकिन गौर से परखने पर दिखता है कि इसके भीतर अनेक स्तर हैं. पिछले दो सालों में भारत में निचाट किस्म की गरीबी जरूर कम हुई है, लेकिन सरकारी नौकरियां सीमित ही हैं. निजी क्षेत्र नोटबंदी, जीएसटी और नये उपक्रमों के लिए आवेदनकर्ताओं में जरूरी तकनीकी हुनर की कमी से उनको काम नहीं दे रहे. इससे डिग्रीधारक लाखों मध्यवर्गीय युवा जो कल तक अच्छे दिनों, बेहतर जीवन के सपने देख रहे थे, अनौपचारिक क्षेत्र में काम खोजने को बाध्य हैं.

जनगणना आंकड़ों के अनुसार, इस दौरान शहरों की साक्षर महिलाओं की बढ़ती (11 फीसदी तक) बेरोजगारी दिखा रही है कि कभी सामाजिक और कभी शैक्षिक गुणवत्ता की कमी से इच्छा होते हुए भी वे घर बैठने को बाध्य हैं और महिला सशक्तीकरण की तमाम नारेबाजी के बावजूद दोहरी आय से वंचित होकर उनके परिवारों को कई तरह की कटौतियां करनी पड़ रही हैं. और अब तो आयातित तेल की कीमतों में उछाल आ गया है, जिससे कीमतें बढ़ेंगी और संभवत: कई मध्यवर्गीय परिवार फिर गरीबी रेखा को छूने को मजबूर हों.

मध्यवर्ग की उच्चतम सतह जरूर अमेरिका-यूरोप की शैली का जीवन जी रहा है, पर वह हमारे मध्यवर्ग का औसत प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता. भारतीय मध्यवर्ग का असली और औसत प्रतिनिधित्व उसका वह 90 प्रतिशत भाग करता है, जिसकी निचली सतहें पिछले ढाई दशकों में गांव से शहर में आ बसे नव साक्षर लोगों से बनी हैं.

भारत के विपरीत चीन की तरक्की की शुरुआत विशाल सार्वजनिक उपक्रमों से हुई है, जो भारी तादाद में नौकरियां पैदा करती हैं. उसकी वजह से ही आज वहां निजी क्षेत्र बना, जो आज विश्व-स्तर का है. हमारे यहां साल की शुरुआत में बड़ी आईटी कंपनी टीसीएस के तीन माह के आंकड़े दिखाने लगे हैं कि कभी 24,654 कर्मियों के बजाय आज वहां सिर्फ 3,657 कर्मी हैं.

यूनीलीवर की बिकवाली का ग्राफ भी ठंडा है. फिर भी हमारे खेती की आय और स्थिर जीवनशैली से वंचित नये शहरी परिवार पेट काटकर खेत बेचकर अपने बच्चों को इस उम्मीद में निजी काॅलेजों में डाॅक्टरी या प्रबंधन या तकनीकी उच्च शिक्षा दिलाते जा रहे हैं कि उनकी औलाद उनसे कहीं सुखी और समृद्ध जिंदगी जीने लगे.

सच तो यही है कि दशकों से राज्य की नाजायज दखलंदाजी का शिकार रहे हमारे सार्वजनिक संस्थानों और औद्योगिक उपक्रमों में नौकरी जातिवादी लूट का पर्याय है. कभी आरक्षण तो कभी रामनाम की लूट से शीर्ष पर आये उनके मंत्री संत्री सब निरंकुश बरताव करने लगते हैं, प्रतिभा के बल पर नये हुनरमंद लोगों की भर्ती नहीं.

दूसरी तरफ भाषा की राजनीति की तहत अंग्रेजी से सायास दूर रखवाये गये सरकारी या अर्द्धसरकारी स्कूल मेधावी छात्रों को भी लगातार जटिल बनती नयी उत्पाद तकनीकी की गहरी पढ़ाई तथा शोध लायक भाषाई हुनर नौकरियों के योग्य नहीं बना रहा. निजी इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट स्कूल में फैकल्टी का अभाव है. किसी तरह पास हुए यहां के अधिकतर छात्र जब पाते हैं कि वे शहरी उच्चमध्यवर्ग की लड़कियों की तुलना में भी नाकाबिल साबित हो रहे हैं, तो कई बार उनके व्यवस्था के खिलाफ गुस्से के करेले पर लिंगगत रूढ़िवाद की नीम चढ़ जाती है.

आज के जो नेता 2019 के चुनावों के लिए 18 बरस के वोटरों को चिह्नित कर रहे हैं, उन पर महत्वाकांक्षी और वर्गगत विषमता से नाराज इन युवा बेरोजगारों का गुस्सा भारी पड़ सकता है. क्रांति अब न तो राजनीतिक दलों के कहे से होगी, न उनके रोकने से रुकेगी.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1113295.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close