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न्यूज क्लिपिंग्स् | पुलिस तंत्र में बदलाव की जरूरत -- आकार पटेल

पुलिस तंत्र में बदलाव की जरूरत -- आकार पटेल

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published Published on Sep 13, 2017   modified Modified on Sep 13, 2017
पिछले 30 वर्षों में भारतीय शहर काफी हद तक बदल चुके हैं और इससे पुलिस के काम-काज का तरीका भी प्रभावित हुआ है. हमारे शहर कैसे बड़े होते चले गये या उनकी जनसंख्या बढ़ती गयी और ज्यादातर लोगों के लिए ये अब रहने योग्य नहीं हैं, मैं इस बारे में बात नहीं कर रहा हूं. यहां बात उस संदर्भ में हो रही है कि पहले उन शहरों को किस योजना के तहत बसाया गया और आज उनकी सूरत कैसी हो गयी.

हालांकि, भारत एक प्राचीन स्थान है, लेकिन इसके अधिकतर शहर नये हैं. मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे सबसे बड़े शहर 300 से भी कम वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा बसाये गये थे. हैदराबाद, सूरत और अहमदाबाद जैसे अन्य शहर 200 वर्ष पहले या इसके आसपास बसाये गये थे. यहां तक कि पुरानी दिल्ली यानी शाहजहांनाबाद भी 400 वर्ष पहले बनी थी.

केवल काशी ही प्राचीन नगर होने का दावा कर सकती है, पर वास्तव में लगभग पूरी काशी ही नयी है. इसके सभी घाट हाल में बनाये गये हैं और यहां की किसी भी संरचना के बारे में दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि यह 500 वर्ष से अधिक पुरानी है. इनकी तुलना अगर रोम से की जाये तो वहां का एक विशाल भवन पैंथिऑन लगभग 2,000 वर्ष पुराना है और वह अब भी वैसा ही है.

बेशक भारत की स्थिति इसके एकदम उलट है. यहां के शहरों का शायद ही कोई मोहल्ला ऐसा मिलेगा, जहां कोई नया मकान नहीं बना हो और यही कारण है कि कुछ वर्षों से बाहर रहनेवाले यहां के स्थानीय निवासियों के लिए कई जगहों को पहचानना मुश्किल हो जाता है. कुछ वर्ष पहले मैं सूरत गया था, यहां मैंने अपने जीवन का ज्यादातर समय बिताया है और यहीं अपने घर को तलाशने के लिए मुझे जीपीएस का सहारा लेना पड़ा था.

ऐसे में मैंने क्यों कहा कि इस बदलाव ने पुलिस के काम करने के तरीके को प्रभावित किया है? भारत में अपराध की जांच-पड़ताल का पारंपरिक तरीका पड़ाेसी थाने और इसके आपराधिक रिकॉर्ड रखनेवालों की सूची, जिनके चित्र पुलिस स्टेशन के सूचनापट्ट पर चिपके होते हैं, पर आधारित है. नये पुलिसवालों के लिए यह जरूरी है कि वे अपने इलाके और वहां आनेवाले नियमित अपराधियों से परिचित हों.

आज भारतीय शहरों में बहुत ज्यादा भागम-भाग है, क्योंकि यहां लोग नौकरियां बदलते रहते हैं, इसलिए किराये के घर बदलते हैं. सो, यहां मकान या लोगों के संदर्भ में शहरी पड़ोसी को लेकर कोई स्थायित्व नहीं है. तो भी यहां पुलिस तंत्र पूर्ववत बना हुआ है. सीसीटीवी कैमरे जैसी तकनीक से कुछ सहायता मिली है. लेकिन, तब भी दूसरे देशों से उलट यहां इसका भी भरोसा कम ही होता है.

यहां मध्यम वर्ग के घरों में होनेवाली चोरी के मामले में भी अभी तक पुलिस की तलाशी नौकरों के इर्द-गिर्द ही घूमती है और उनको तब तक मारा-पीटा जाता है, जब तक वह अपराध स्वीकार न कर लें. यहां हत्या सहित किसी भी अपराध की पूरी तरह जांच नहीं की जाती है. जो लोग गौरी लंकेश की हत्यावाली जगह पर पहले से मौजूद थे, उन्होंने देखा कि वह स्थान हत्या के बाद भी खुला था और वहां लोग लापरवाही से आ-जा रहे थे. इस तरह एेसे स्थानाें पर फोरेंसिक जांच के लिए कोई सबूत बचा नहीं रह पायेगा.

पुलिस के काम को जिस समानांतर विकास ने प्रभावित किया है, वह है 'खबरी' का लुप्त हो जाना. अपराध के इर्द-गिर्द रहने वाला व्यक्ति, जो छोटे-मोटे अवैध काम में लिप्त हो, जिससे सूचना प्राप्त करने के लिए पुलिस धौंस दिखा या पैसे दे सकती है, केवल वही व्यक्ति पुलिस का खबरी बन सकता है. आप और मैं खबरी नहीं बन सकते हैं, क्योंकि हम अपराधियों के संपर्क में नहीं हैं.

बाबरी मस्जिद ढहाने और उसके बाद मुंबई और सूरत में दंगे होने व उसके जवाबी हमलों में बम विस्फोट होने के बाद पुलिस ने अपने खबरियों को खो दिया, क्योंकि उनमें से अधिकतर मुस्लिम थे.

सांप्रदायिक विभाजन ने पुलिस के काम करने के पुराने तरीके को प्रभावित किया है और जैसा कि समाचार रिपोर्ट बताती है, भारत में लगभग एक भी आतंकी घटना की जांच पूरी हो पाने की स्थिति में नहीं है. फोरेंसिक सबूत के आधार पर होनेवाली जांच गायब है और पुराने मॉडल से अब कोई नतीजा नहीं निकल सकता है.

वर्ष 1996 में मुंबई के सत्र न्यायालय में एक रिपोर्टर के तौर पर काम करते समय कथित मादक पदार्थों का कारोबार करनेवाले इकबाल मिर्ची, जिसे भारत इंग्लैंड से प्रत्यर्पित करने की मांग कर रहा था, का मुकदमा लड़नेवाले वकील श्याम केसवानी ने मुझसे संपर्क किया था.

सीबीआइ ने बो स्ट्रीट मजिस्ट्रेट की अदालत में इस मामले की पैरवी के लिए चार लोगों का एक दल भेजा था. केसवानी ने लगभग 200 पन्नों की चार्जशीट की एक प्रति मुझे दी. मैंने उसे पूरा पढ़ा और उस पूरी फाइल में उसके क्लाइंट के बारे में महज एक जगह ही चर्चा की गयी थी. उसके बारे में अंतिम पन्ने में एक पंक्ति में लिखा था, 'इस मामले में इकबाल मेमन उर्फ मिर्ची की तलाश भी है.' यही पूरा सबूत था, जिसे भारत सरकार ने जमा किया था.

मुझे यह कहना चाहिए कि इसमें भारतीय पुलिसकर्मियों का कोई दोष नहीं है, वे जो बेहद मेहनती हैं. लेकिन, वे एक ऐसे तंत्र में काम कर रहे हैं, जो ब्रिटिश शासन द्वारा पड़ोसी 'कानून व व्यवस्था' का प्रबंधन करने के लिए बनाया गया था, न कि जांच-पड़ताल के जरिये अपराध को हल करने के लिए.

जापान में सजा का अनुपात 95 प्रतिशत है. इसका अर्थ है कि अगर पुलिस अपराध के मामले में किसी को गिरफ्तार करती है, तो इस बात की पूरी गारंटी है कि अदालत उसे दोषी ठहरायेगी. हालांकि, इस तंत्र के आलोचक हैं, जो भारत की तरह ही सजा कबूल करने पर निर्भर है, जो अक्सर प्रताड़ित कर उगलवाया जाता है. लेकिन, इस तरह की कमियों के बावजूद, भारत में सजा का अनुपात 50 प्रतिशत से भी कम है.

अपराध करनेवाले, यहां तक कि गंभीर अपराध करनेवाले अपराधी भी अपने यहां बच निकलते हैं. बस इसी कारण से गौरी लंकेश को मारनेवाले और उन्हें पैसा देनेवाले व्यक्ति के कभी भी न पकड़े जाने पर भी मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा. यह असफलता पूरे तंत्र में है और हमारे लिए यह उम्मीद करना कि विशिष्ट मामले में यह काम करेगा, वास्तविकता के मूल्यांकन से परे जाकर महज आशावाद का प्रदर्शन होगा.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1053652.html


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