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न्यूज क्लिपिंग्स् | बाघ तो बच रहे हैं...पर बेटियां!! - मृणाल पांडे

बाघ तो बच रहे हैं...पर बेटियां!! - मृणाल पांडे

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published Published on Oct 31, 2017   modified Modified on Oct 31, 2017
खबर है कि गए सालों में हमारे देश में बाघों की तादाद बढ़ी है, लेकिन खबर यह भी है कि इस दौरान 0 से 6 साल की उम्र की बच्चियों की तादाद तेजी से घटी है। बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है और आरक्षित श्रेणी में आता है। पर उसकी खाल, हड्डी, दिल, गुर्दा सबको एशियाई बाजारों में भारी मुनाफे पर बेचा जा सकता है इसलिए पिछले सालों में लालची तस्करों द्वारा बडी तादाद में बाघों की चोरी छुपे हत्या कर अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उनके अवशेषों की कालाबाजारी से यह प्रजाति दुर्लभ हो चली थी। इसीलिए एक 'बाघ बचाओ की बड़ी मुहिम छेड़ी गई जिससे तमाम स्कूल, टीवी चैनल व एनजीओ जुड़े। उनके दबाव तथा निशानदेही से तस्करों पर छापे पड़े, पकड़-धकड़ हुई और मीडिया को जनचेतना जगाने वाले विज्ञापनों से पाट दिया गया। अब जाकर अच्छी खबर आई है कि बाघों की तादाद लगभग हर संरक्षित वन में बढ़ रही है। पर हमारी उस कन्या शिशु की प्रजाति का क्या होगा जो आज भी उपेक्षित-अरक्षित है? सबसे ज्यादा खुद मां के पेट में अपने परिवार के भीतर। परिवार के अपनों के दबाव से वह कई बार गर्भ में लिंग निर्धारण के बाद गर्भपात से, जन्म ले लिया तो गुपचुप सौरी में, और फिर भी बची रही तो लगातार उपेक्षा और कुपोषण से सुखाकर पांच की उम्र तक पहुंचने से पहले ही आज भी मारी जा रही है। नतीजतन दस साला जनगणना के जो सरकारी आंकड़े आए हैं उनके अनुसार 0 से 6 साल के आयु वर्ग में वर्ष 2001 में जहां 1000 लड़कों पर 927 बच्चियां थीं, आज सिर्फ 914 हैं।

वैसे कहने को देश में औरत-मर्दों के बीच औसत लिंगानुपात में सामान्य सुधार हुआ है। लेकिन यह बात पूरी सांत्वना का विषय नहीं। पिछले दस सालों में आबादी में औरतों की तादाद बढ़ी दिखने की असल वजह यह है कि इन बरसों में कुल आबादी भी बढ़ी है। बच्चियों के क्रमश: लोप होने के असल आंकड़े तो कुल वयस्क औरतों, मर्दों के बीच आबादी में बड़े असंतुलन के रूप में तनिक आगे जाकर उजागर होंगे। यह भी चिंता का विषय है कि बच्चियों की तादाद जिन राज्यों (दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर , दादरा नगर हवेली, नगालैंड , मणिपुर तथा सिक्किम) में सबसे तेजी से घटी है, उनका स्तर आर्थिक, स्वास्थ्य कल्याण सुविधाओं और शैक्षिक पैमानों पर देश के सामान्य औसत से बेहतर है। यानी मात्र पिछड़े राज्यों में व्यापक गरीबी और अशिक्षा के कारण उतनी बच्चियां नहीं मर रहीं जितनी कि खाते-पीते तरक्की कर रहे राज्यों में खाते-पीते लोगों के बीच। कन्या भ्रूण का पता करने की खर्चीली निजी चिकित्सा सुविधाओं की (गैरकानूनी) मदद लेते हुए जन्म से पहले ही गर्भपात करवाकर उनके घरों में बच्चियों का ऐसा सफाया हो गया है कि अब पंजाब या हरियाणा जैसे राज्यों में नवरात्रि में कन्या पूजन को आठ कन्याएं जुटाना भी कठिन हो चला है।


अभी विश्व खाद्यान्न् दिवस पर बालिका दिवस के चंद दिन बाद ही झारखंड में एक 11 साल की गरीब बच्ची भूख से भात! भात! चिल्लाती मर गई। उसके परिवार का राशन कार्ड आधार से नहीं जुड़ा होने से लोकल राशनवाले ने परिवार का राशन बंद कर रखा था। गोद में बेटे को थामे निरीह मां ने यह टीवी के सामने बताया। सुनकर कइयों ने कहा कि चलो बेटा तो बच गया। यह किसी ने शायद ही सोचा हो कि उतनी गरीबी में भी बेटे ही कैसे बचे रह जाते हैं? कटु सच्चाई यह है कि बढ़ती शिक्षा दर और परिवार तथा माता-पिता का सहारा बनती जा रही कमासुत लड़कियों की तादाद में भारी बढ़ोतरी के बावजूद बच्ची का जन्म आज भी हमारे परिवारों में अनचाहा ही होता है। परिवार में नवजात के आने की खबर मिलते ही परिवार जनों और पड़ोसियों से लेकर दाई और बधावा गाने वाले किन्न्र तक सभी अपनी फीस या नेग इस आधार पर वसूल करते हैं कि लड़का हुआ या लड़की! लड़का कहते ही उल्लास छा जाता है, दाई-किन्न्र भरपूर नेग मांगने लगते हैं और पड़ोसी पार्टी। पर बेटी के आगमन की खबर पाने पर एक सकपकाई करुणामय प्रतिक्रिया होती है : चलो जी जान बच गई, कोई नहीं जी, चलो जो ऊपरवाला भेज दे। कोई न कोई यह भी कह ही देता है कि हाय घर पर डिक्री आ गई बेचारों के। तीसरी, चौथी बेटी हुई तो रोना-धोना और प्रसूता की कोख को कोसना भी होने लगता है।


बच्चियों की लगातार घटती आबादी इस बात का भी डरावना प्रमाण है कि हमारे यहां कानून का डर खत्म होता जा रहा है। बलात्कार निरोधक कानून सख्त बनाए जाने के बाद भी हर गली-मुहल्ले, यहां तक कि स्कूली परिसरों में भी आए दिन बच्चियों के साथ दुष्कर्म हो रहे हैं। आधी आबादी को गरिमा से जीने का हक देने के लिए बने 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ सरीखे नारे नाकाफी हैं, यह झारखंड की स्कूली बच्ची की मौत से जाहिर है। भ्रूण हत्या या दहेज या यौन उत्पीड़न अथवा वेश्यावृत्ति के निषेध विषयक सुधारवादी कानून भी जमीनी तौर पर अपने यहां आज भी एक किताबी कवायद ही बने हुए हैं। अगर हमारे राज-समाज में पर्याप्त आदर्शवादिता होती तो शायद सुधारवादी कानूनों का फायदा उठाकर हमारे शिक्षा संस्थान और महिला आरक्षण से लैस पंचायतें महिलाओं के महत्व को एक प्रखर राष्ट्रीय सच्चाई की शक्ल दे सकते थे। लेकिन जहां जान ही नहीं, वहां प्रखरता कैसी? हमारी शिक्षा और पंचायती राज इकाइयों में (आरक्षण के बावजूद) जान नहीं , यह बात आपको एक उलटबांसी लग सकती है। लेकिन हमारे राज और समाज में ताकत का असली स्रोत आज भी जाति और निजी कानूनों पर टिकी वे संस्थाएं हैं जिनकी कमान पुरुषों के हाथ में है। वाराणसी विवि की हाल की घटनाएं गवाह हैं कि उच्चशिक्षा परिसरों तक किसी तरह जा पहुंची बच्चियों का भविष्य भी पुरुष पोषित फैकल्टी की मेहरबानी से लगातार लोकतांत्रिक संविधान तथा कानून पर आज भी कितना भारी साबित होता है। स्कूल से संसद तक भले ही नारी सशक्तीकरण पर सैकड़ों सुधारवादी बहसें होती रहें, 8 मार्च को नारेबाज जुलूस निकलें, लेकिन स्टाफ रूम, घरों, चायखानों या टीवी के रियालिटी शोज में झांकने पर हमारी सीधी मुलाकात होती है तमाम तरह के नए-पुराने ठिकानेदारों, सामंतों और जागीरदारों की मानसिकता से। इन सबको आज डबल रोल मिल गया है : एक तरफ नए और युवा शाइनिंग इंडिया की चमक बनाए रखना, और दूसरी तरफ यह सुनिश्चित करना कि पुराने अजर-अमर सामाजिकता वाले हिंदुस्तान की परंपराओं को भी खरोंच गहरी न लगे। लिहाजा वे अपने क्षेत्र में धर्म, गोत्र आधारित खाप पंचायतों और मुल्लाओं के हुक्म से प्रेम विवाह को दंडित कराना या कॉलेज की लड़कियों के लिए जीन्स पहनने पर पाबंदी लगाना भी स्वीकार करते हैं, और अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर स्त्रीशक्ति का गुणगान करते हुए महिला थानों का उद्घाटन कर महिलाओं को साइकिलें, मशीनें बांटते फोटो खिंचाते भी दिखते हैं।


टीवी फुटेज गवाह है कि खुद त्रस्त महिलाएं जब न्याय या राशन खोजती हैं तो उनको इन तथाकथित सशक्तीकृत स्कूलों, पंचायतों, महिला थानों या सरकारी राशन की दुकान में आशा की किरण या संवेदनशीलता नहीं दिखाई देती। उनको अपनी और अपनी बच्चियों की जान और आबरू बचाने को नेताओं के सरेआम पैर पकड़कर न्याय या राशन मांगना कहीं अधिक आश्वस्तिकारक लगता है। पर चंद शिखर नायकों के निजी हस्तक्षेप के भरोसे उन बेजुबान लड़कियों को कितने दिन बचाया जा सकता है, जिनको लेकर मदर टेरेसा ने एक बार कहा भी था कि अगर परिवार ही बच्चियों को नहीं बचाना चाहते, तो उन्हें कोई नहीं बचा सकता। क्या समाज को अपनी बेटियों की बाघों जितनी फिक्र भी नहीं होनी चाहिए?

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं)


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