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न्यूज क्लिपिंग्स् | बुनियादी बदलाव की राजनीति -- राजेन्द्र तिवारी

बुनियादी बदलाव की राजनीति -- राजेन्द्र तिवारी

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published Published on Jan 23, 2017   modified Modified on Jan 23, 2017
बिहार के लोग बधाई के पात्र हैं. उन्होंने शराबबंदी और नशाबंदी जैसे सामाजिक मुद्दे पर एकजुटता दिखा कर पूरी दुनिया और खासतौर पर देश के अन्य राज्यों को विशिष्ट संदेश दिया है. शराब जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ व्यापक स्तर पर लोगों को तैयार करने का श्रेय निश्चित रूप से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जाता है.

नतीजा यह है कि शुरुआत में शराबबंदी का किसी-न-किसी बहाने विरोध करनेवाले लोगों को भी मानव शृंखला कार्यक्रम का न सिर्फ समर्थन करने पर मजबूर होना पड़ा, बल्कि वे खुद इसमें शामिल होते हुए भी दिखाई दिये. नि:संदेह, बिहारी समाज और राजनीति में यह बड़े बदलाव की तरफ इशारा है.अहम सवाल यह नहीं है कि यह मुद्दा कितना बड़ा है, बल्कि यह है कि मौजूदा समय में कितने राजनेता ऐसे हैं जो तमाम तरह के खतरे उठाते हुए समाज में बदलाव के मुद्दों पर समाजहित में स्टैंड लेकर फैसले लेने और फिर उनका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन का माद्दा रखते हैं? जब पूर्ण शराबबंदी की घोषणा हुई थी, तब तमाम तरह की आशंकाएं जाहिर की जा रही थीं. कहा जा रहा था कि यह फैसला कोर्ट में नहीं ठहर पायेगा, राज्य की आय कम हो जायेगी और इसका असर विकास कार्यों पर पड़ेगा, कई राज्यों में ऐसी घोषणा हुई लेकिन कुछ दिन में ही वापस ले ली गयी, सिर्फ वाहवाही लूटने के लिए घोषणा की गयी है जो गठबंधन की मजबूरियों में ढीली पड़ जायेगी, आदि-आदि. लेकिन आज करीब साढ़े नौ महीने बाद ऐसी आशंकाओं के लिए कोई जगह नहीं बची है. जो लोग आशंकाएं जाहिर कर रहे थे, वे गलत साबित हुए. ऐसा कैसे हो सका? इसका जवाब तलाशने के लिए एक नजर देश की राजनीति और राजनीति कर रहे लोगों पर डालना जरूरी है. आज की राजनीति समाज को दिशा देने की राजनीति नहीं रह गयी है, न ही नेता समाज हित के मुद्दों पर माहौल बनाने का काम करते हैं.

 


आज की राजनीति पॉपुलिस्ट मुद्दों को उठा कर, लोगों की भावनाओं को भड़का कर और जोड़-तोड़ कर सत्ता हासिल करनेभर की राजनीति बची है. चुनाव में जिन मुद्दों को नेता और पार्टियां उठाती हैं, चुनाव खत्म होते ही उनको भूल जाती हैं. यही नहीं, लोग उनकी विफलताओं पर ध्यान न केंद्रित कर सकें, इसके लिए नये-नये नारे व मुद्दे सामने रख दिये जाते हैं. फिर आंख बंद कर विरोध या समर्थन होता है. समाज में फैली कुरीतियों पर इसलिए चुप्पी साध ली जाती है, या फिर उनका रणनीतिक समर्थन कर दिया जाता है, कि वोट न खिसकें. ऐसी राजनीति और राजनेता अब बहुत कम बचे हैं, जो बेहतर समाज के लिए अपना राजनीतिक कैरियर भी दांव पर लगाने का माद्दा रखते हों. नीतीश कुमार ऐसे ही गिनती के राजनीतिज्ञों में से हैं. 

 

उनकी राजनीति पर नजर डालिए और उसकी अंतर्धारा को समझिए तो स्पष्ट है कि उनके अनेक राजनीतिक फैसले उनके लिए जोखिम भरे थे, लेकिन कहीं-न-कहीं उनमें बेहतर बिहार के सपने थे. जनता दल से अलग होने से लेकर भाजपा से गंठबंधन तोड़ने और महागंठबंधन बनाने तक. आप पिछले 12 साल पर नजर डालें, तो पाएंगे कि बिहार का विकास मॉडल महिलाओं के सशक्तीकरण पर आधारित है. इस तरह की दृष्टि के साथ काम करने के नतीजे सामने आने में समय लगता है. बिहार में भी लगा. लेकिन, अब नतीजे सामने आ रहे हैं, जो टिकाऊ हैं.

शराबबंदी या नशाबंदी भी इसी का परिणाम है. पिछले दो साल में जिन सरकारी फैसलों की सबसे ज्यादा चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई, उनमें दिल्ली सरकार का अॉड-इवेन फार्मूला, बिहार सरकार का पूर्ण शराबबंदी का फैसला और केंद्र सरकार का नोटबंदी का फैसला प्रमुख है.

लेकिन, न तो दिल्ली सरकार अपने फैसले के इंपैक्ट को बताते आकड़े पेश कर पायी और न ही केंद्र सरकार कोई पुख्ता आकड़े दे पायी कि नोटबंदी से कितना कालाधन नष्ट हुआ, कितने नकली नोट बेकार गये और आतंकवाद पर क्या असर पड़ा. दूसरी तरफ, शराबबंदी का क्या इंपैक्ट समाज पर पड़ा, मुख्यमंत्री खुद आकड़े देकर बताते रहे हैं. वह इसलिए बता पा रहे हैं, क्योंकि न तो उनका यह फैसला सस्ती लोकप्रियता का हथकंडा था और न ही इसमें कोई और स्वार्थ देखा जा सकता है. बिहार ने शनिवार को एक मजबूत संदेश पूरे देश को दिया है. उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि नशामुक्ति न सिर्फ बिहार में, बल्कि पूरे देश में मजबूत आंदोलन का रूप ग्रहण करेगी और जरूरी सामाजिक बदलावों का वाहक बनेगी.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/930177.html


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