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न्यूज क्लिपिंग्स् | संसद में स्त्री होने के मायने- सुजाता

संसद में स्त्री होने के मायने- सुजाता

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published Published on Mar 2, 2016   modified Modified on Mar 2, 2016
एक मर्दाना संसद में एक स्त्री की एेतिहासिक, नाटकीय, भावुक हुंकार से देश कुछ वक्त सकते में आ गया. संसद में मौजूद नये-पुराने खिलाड़ियों को यह दांव स्तब्ध कर गया और जनता को अभिभूत. माननीय मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी की इस बाजी से खेल पलटा तो नहीं, तथ्यात्मक गलतियां भी बाद में सामने आयीं.

लेकिन, संसद में स्त्री राजनेता के व्यवहार को लेकर जेहन में बहुत सारे सवाल जरूर उठे. क्या वाकई स्त्रियों के राजनीति करने के अंदाज पुरुषों से अलग हैं? अगर हैं, तो क्यों उन्हें अलग नहीं होना चाहिए? क्या संसद में नाटकीय भाषा और शारीरिक भंगिमाओं के बहाने मुद्दों को दबाया जा सकता है? यही संसद अगर पचास प्रतिशत स्त्रियों से भरी होती, तो भी क्या सदन की कार्यवाहियों, भाषा, तौर-तरीकों का स्वरूप वही होता? मंत्री महोदया के इस व्यवहार को हमें कैसे देखना चाहिए?

जेंडर की दृष्टि से दुनिया कभी बराबरी पर नहीं रही है और संसद में तो यह और भी मुश्किल है, क्योंकि नेतृत्व की स्थिति में स्त्री को रख कर देखने की आदत पितृसत्तात्मक समाज को कभी नहीं रही, स्वयं स्त्री को भी नहीं. राजनीति एक पूरी तरह 'मर्दाना स्पेस' रहा है, जिसकी राह स्त्रियों के लिए आसान नहीं है. पुलिस, आर्मी और इसी तरह की अन्य संरचनाएं,

जहां ताकत और सत्ता है, ये पूरी तरह से अपने स्वरूप में मर्दाना हैं और स्त्री के लिए इनमें अपने लिए जगह बनाना हमेशा एक चुनौती रही है. मर्दों के स्पेस में घुसते हुए स्त्री से अपेक्षा की ही जाती है कि वह मर्दाना लक्षणों, स्वभाव और सोच को अपनाये. स्वीकृति पाने के लिए वे जब मर्दाना तौर-तरीकों को अपनाने की कोशिश करती हैं, तो मर्दों के उपहास का विषय बनती हैं.

तथाकथित स्त्रियोचित तौर-तरीकों को अपनाती हैं, तो बचकाना, नाटकीय, भावुक चिल्लाने और चीखनेवाली कह कर आलोचनाएं की जाती हैं. अपने एक साक्षात्कार में हिलेरी क्लिंटन ने स्वीकार किया था कि राजनीति में आने से पहले सबका रवैया उनके प्रति सम्मानजनक था, लेकिन यहां कदम रखते ही चीजें उनके लिए बदल गयीं. कई जरूरी काम करने होते थे, तो अक्सर टिप्पणियों को नजरअंदाज ही किया. यूं स्त्रियों की आसानी से आलोचना कर देने की कोई ‘वजह' हो ही, यह जरूरी नहीं है.

सिर्फ उनके काम पर बात किये जाने के अलावा उनके रूपाकार, उनके अतीत, मैरिटल स्टेटस भी उनकी आलोचना के कारण बन जाते हैं.

निश्चित रूप से पहली नजर में मंत्री जी का भाषण ‘खूब लड़ी मर्दानी' वाले अंदाज में अभिभूत करता है, लेकिन ठीक दूसरे पल एक सचेत मन इसके खतरों से आगाह होने के लिए कहता है. पूरी स्क्रिप्ट का विश्लेषण किया जाये, तो यह एक भावुक आक्रोश और परंपरागत घरेलू भाषा दिखाई देती है. कुछ वाक्य हैं- ‘मैंने बार बार कहा मेरी किसी ने नहीं सुनी',

‘मुझे सूली पे लटकाओगे! अमेठी लड़ने की यह सजा दोगे मुझे?' इसी क्रम में सुषमा स्वराज की वह प्रतिज्ञा याद कीजिए, जब उन्होने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना पर ‘अपना सिर मुंडवा दूंगी' कहा था. मुद्दों पर बात करते हुए उसे निजी परिप्रेक्ष्य में देखना स्त्री सांसदों के साथ अक्सर देखा गया है. मुख्य नेतृत्व में दिखनेवाली तीन सशक्त स्त्री नेताओं को भी आखिरकार दीदी, अम्मा और बहनजी जैसे पारिवारिक संबोधन दिये गये हैं.

इसके अलावा पार्टीलाइन से अलग जाने और अकेले पड़ जाने के राजनीतिक खतरे भी अपनी जगह हैं. खुद राजनीतिक दल अपने स्त्री सदस्यों को कमतर करके आंकते हैं. न केवल चुनाव लड़ने के दौरान स्त्री प्रत्याशी को भाषिक हमले झेलने पड़ते हैं, बल्कि महिला सुरक्षा का दम भरनेवाले दलों के पुरुष बलात्कार जैसे मुद्दे पर भी स्त्रियों के कपड़ों और रहन-सहन पर भद्दी टिप्पणियां करते पाये जाते हैं. शरद यादव की मिसोजिनिस्ट टिप्पणियों को हम कैसे भूल सकते हैं!

संसद में खराब व्यवहार और बचकानेपन का ठीकरा सिर्फ स्त्रियों के सिर नहीं फोड़ा जा सकता. पुरुषों द्वारा छिछोरेपन का और असंसदीय भाषा के इस्तेमाल के कई उदाहरण हैं. हिंसा के भी. असत्यकथन के भी. सदन में अश्लील फिल्म देखना, नोट उछालना, फर्नीचर तोड़ना शौर्य प्रदर्शन है? तो फिर, एक मर्दाना स्पेस में स्त्री राजनीतिज्ञ से किस बर्ताव की उम्मीद करनी चाहिए हमें? अक्सर लगाया जानेवाला इल्जाम है कि स्त्रियां होर्मोंस (आंतरिकता) से सोचती हैं. यूं पुरुष भी अपनी सोच और व्यवहार में प्रभुत्व और ताकत के जरिये संसद को फैलिक (लिंगीय) प्रतिनिधित्व का गढ़ बनाते हैं.

ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि पितृसत्ता की स्वीकृति राजनीति में स्त्री के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है, तो इसे स्त्री सशक्तीकरण की मिसाल कैसे मानें! ‘पब्लिक मैन' और ‘प्राइवेट वुमन' की परंपरागत व्यवस्था से बाहर निकले स्त्रियों को बहुत दिन नहीं हुए. दुनियाभर में संसद में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व का औसत बेहद कम है. भारत में 2014 के चुनाव में पहली बार यह आंकड़ा 59 तक पहुंचा. जैसे-जैसे स्त्रियों का प्रतिशत संसद में बढ़ेगा,

इस स्पेस और इसकी भाषा में बदलाव आयेंगे ही, इस बात पर भी फर्क पड़ेगा कि पेश किये गये किसी बिल में क्या बदलाव होंगे या बिल पेश भी होगा या नहीं. कल्पना करना कि संसद में 50 प्रतिशत स्त्रियां हैं, अगर यह किसी को सुरक्षा और आत्मविश्वास के भाव से भरता होगा, तो किसी को अनगिन आशंकाओं से भी भर देता होगा.

याद रहे कि संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का बिल रखा गया था, तो पुरुष नेताओं में हड़बड़ाहट और घबराहट फैल गयी थी. हम पंचायतों में, नगर निगमों में और यहां तक कि रेल के डब्बों तक में स्त्रियों के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण रख सकते हैं, लेकिन संसद में नहीं. यह ताकत और निर्णय के अधिकार में अपनी स्पेस न छोड़ने का एकदम सीधा मामला है.

सबरीमाला का मंदिर हो या देश की संसद हो, स्त्री को अपनी जगह हासिल करनी है और उधार के हथियारों से नहीं, बल्कि अपने औजार भी उसे स्वयं ईजाद करने हैं. अपने पद की गरिमा और जिम्मेवारी व दृढ़ता के साथ! न पुरुष होकर और न ही अपनी सहजता खोकर!

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/733041.html


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