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न्यूज क्लिपिंग्स् | सामाजिक न्याय का अधूरा सपना-- प्रमोद मीणा

सामाजिक न्याय का अधूरा सपना-- प्रमोद मीणा

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published Published on Jul 19, 2016   modified Modified on Jul 19, 2016
नौवें दशक के बाद से भारतीय राजनीति में दलित दलों और दलित नेताओं की स्वतंत्र पहचान बनी है और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी का सीधा मौका भी मिला है। पर अब इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है कि इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य को हम किस तरह देख सकते हैं। क्या इसे स्वातंत्र्योत्तर भारत में लोकतंत्र की एक महान उपलब्धि के रूप में गिन सकते हैं, जहां सदियों से उपेक्षित-वंचित रहे तबकों को जातीय उत्पीड़न और दमन की लंबी काली रात के बाद सशक्तीकरण के नए सूर्य के दर्शन हो रहे हैं? या क्या हमें उत्तर भारत की इस दलित राजनीति की संभावनाओं और सीमाओं को तटस्थ रह कर कुछ संशय और आलोचनात्मक नजरिए से भी देखना चाहिए?

यह खुद दलित राजनीति के भविष्य की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि वह कहीं आत्ममुग्धता में अपनी खामियों को नजरअंदाज न करने लगे। अगर दलित राजनीति में सब कुछ ठीक चल रहा है, तो दलित स्वाभिमान की हुंकार भरने वाली बसपा के पिछले लोकसभा चुनाव में अपने ही घर में चारों खाने चित्त हो जाने के मायने क्या हैं? अब समय आ गया है कि दलित राजनीति सामाजिक न्याय के अपने लक्ष्य की दूसरी पारी खेलने का दृढ़ मानस बना ले। जब तक जाति आधारित दलित राजनीति अपने कार्यक्रमों में वर्गीय विषमता को दूर करने पर बल नहीं देगी, आर्थिक समता का समावेश नहीं करेगी, तब तक समस्त दलित समाज के लिए सामाजिक न्याय की प्राप्ति संभव नहीं है।

दलित राजनीतिक दलों ने पहचान की जिस राजनीति का झंडा बुलंद किया हुआ है, उससे दलितों को सीमित लाभ हुआ है। इस पहचान की राजनीति ने जो गिने-चुने अवसर उपलब्ध कराए हैं वे उच्च वर्गीय स्थिति वाले दलितों के खाते में ही चले जा रहे हैं। समान व्यवहार और समान अवसरों की प्राप्ति का लक्ष्य लेकर चली दलित राजनीति तब तक अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकती जब तक कि वह आर्थिक संसाधनों के समतापूर्ण पुनर्वितरण का मुद्दा अपने हाथों में नहीं ले लेती और विस्फोटक होती आर्थिक विषमता के खिलाफ अपनी समतामूलक सक्रियता नहीं दिखाती।

सामाजिक न्याय की पूरी अवधारणा प्राय: दो प्रकार के उपचारात्मक स्तंभों पर आधारित है। एक स्तंभ वस्तुओं और अवसरों के विषमतामूलक वितरण को दूर करके न्यायपूर्ण वितरण की मांग करता है। दूसरा स्तंभ पहचान की अवधारणा लेकर चलता है। वह मांग करता है कि बहुलतामूलक समाज में भिन्न-भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के साथ बराबरी का, मैत्रीपूर्ण व्यवहार किया जाए। उनकी पहचान और अस्मिता को स्वीकृति दी जाए। वास्तव में सामाजिक न्याय के लिए संसाधनों का पुनर्वितरण और अस्मिता की स्वीकृति, दोनों आवश्यक हैं। सामाजिक जीवन में बराबरी की हिस्सेदारी से संस्थागत स्तर पर वंचित रखे गए दलित अर्थव्यवस्था में भी हाशिए पर रखे गए हैं। इसलिए सामाजिक अन्याय से समुचित मुठभेड़ के लिए दोनों स्तंभों को एक साथ मजबूती से पकड़ना जरूरी है।

भारतीय परिस्थितियों में जाति के दो आयाम हैं। उसका एक आयाम सांस्कृतिक है, तो दूसरा आर्थिक। इसलिए जाति आधारित अन्याय को दूर करने के लिए दलित राजनीति को संस्कृति और अर्थव्यवस्था, दोनों के जातीय चरित्रों के मद्देनजर समावेशी रणनीति अपनानी होगी।

लेकिन भारतीय दलित राजनीति के पैरोकार, खासकर उत्तर और मध्य भारत के दलित राजनीतिक दल पुनर्वितरण की राजनीति की कीमत पर एकांतिक रूप से पहचान की राजनीति पर बल देते हैं। इस प्रक्रिया में वे जाने-अनजाने संपूर्ण न्याय के रास्ते में खुद रोड़ा बने हुए हैं। जातीय राजनीति के दबाव में चाहे गैर-दलित ऊपरी मन से ही सही, दलितों की पहचान के आगे नतमस्तक होने लगे हों, लेकिन आर्थिक सशक्तीकरण के अभाव में अस्मिता और स्वाभिमान का यह दावा आडंबर मात्र बन कर रह जाता है। आर्थिक रूप से अशक्त और पर-निर्भर दलित भला कैसे अपने स्वाभिमान का दावा कर सकते हैं? सांस्कृतिक श्रेणी क्रम में बदलाव लाकर आप चाहे अपने ऊपर लादी गई नकारात्मक पहचान और उससे जुड़े निम्न सामाजिक पदानुक्रम से मुक्ति पा लें, पर संसाधनों और संपत्ति के चले आ रहे अन्यायपूर्ण बंटवारे से मुक्ति नहीं पा सकते।

दूसरे, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संसाधनों का पुनर्वितरण वर्ग के आधार पर ही हो सकता है, जाति के आधार पर नहीं, क्योंकि आज की परिस्थितियों में जाति को सीधे-सीधे वर्ग का पर्याय नहीं माना जा सकता। वह जमाना गया जब एक जाति के सभी लोग अपना परंपरागत व्यवसाय किया करते थे। आज बदली हुई आर्थिक परिस्थितियों में एक जाति के अंदर भी संसाधनों के स्वामित्व, शिक्षा, संपत्ति और आय को लेकर आंतरिक भिन्नताएं पैदा हो चुकी हैं। जैसे-जैसे निचली जातियों में कुछ लोगों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और आरक्षण की राजकीय नीतियों से उनके लिए सरकारी नौकरियों के अवसर खुले हैं, वैसे-वैसे इन जातियों में भी वर्ग भेद की खाई गहरी होती गई है। संपन्न रहे दलितों को विशेष फायदा हुआ है। शहर में रहने वाले शिक्षित दलितों की तुलना में गांव में रहने वाले अशिक्षित दलितों के सामने आगे बढ़ने के अवसर उतने नहीं रहते हैं। इसलिए पहचान की राजनीति अपने आप पुनर्वितरण की राजनीति का रास्ता नहीं खोल देती।

वैसे सीधे-सीधे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता कि आर्थिक संसाधनों के वितरण में बराबरी पहचान और सामाजिक भागीदारी में भी बराबरी दिला देती है, लेकिन आज की भौतिक दुनिया में बिना आर्थिक सशक्तीकरण के आप अपने पर लादी गई कल की पूर्वाग्रही जातीय पहचान की काली छाया से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकते। इसलिए यह भी सच है कि आज की भूमंडलीय दुनिया में जातियों की आर्थिक स्थितियों में चाहे कुछ बदलाव आ गए हैं, लेकिन सदियों से चले आ रहे दलित-विरोधी जातीय पूर्वग्रह कुछ किंतु-परंतु के साथ जस के तस भारतीय समाज के साथ चिपके हुए हैं।

सामाजिक न्याय के संदर्भ में दलित राजनीति की संभावनाओं और सीमाओं को अगर हमें समग्रता में देखना हो तो उसके लिए बसपा की विगत सफलता और वर्तमान विफलता इसकी मिसाल है। दलित जातियों की पहचान और स्वाभिमान की लहर पर चढ़ कर बसपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी मजबूत पैठ बनाई। मगर उत्तर प्रदेश की जमीन का सांस्कृतिक स्तर पर प्रतीकात्मक रूपांतरण करके और सरकारी तंत्र पर दलित नौकरशाही की पकड़ मजबूत करके बसपा क्या व्यापक दलित समाज की सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से मुखातिब हो पाई? बसपा के कारण कुछ दलितों की राजनीतिक-आर्थिक हैसियत में जबर्दस्त उछाल आया, लेकिन उसकी राजनीति सामान्य दलित की आर्थिक स्थिति में कुछ खास बदलाव लाने में विफल रही।

आज अगर उत्तर प्रदेश का दलित जातीय विषमताओं की परंपरागत वैधता को चुनौती देने में खुद को बेहतर स्थिति में पाता है तो इसका श्रेय बसपा की पहचान की राजनीति को जाता है, लेकिन बसपा की तमाम सफलताओं के बावजूद यह प्रश्न बना हुआ है कि वह अपने ही गढ़ में पहले विधानसभा के चुनाव में और फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत के चुनाव में क्यों पराजित हुई। इन पराजयों के मूल में है जमीन और मजदूरी से जुड़े विवादों में बसपा और उसकी सरकार का कोई निर्णायक हस्तक्षेप न कर पाना। असमानता और निर्धनता दूर करने के लिए वह कोई नीतिगत पहल करने में भी नाकाम रही।

दरअसल, आर्थिक और सामाजिक अवसरों के वितरण में बिना कोई क्रांतिकारी बदलाव लाए पहचान की राजनीति संस्थागत शक्ति संबंधों को कोई विशेष चुनौती नहीं दे सकती। यही कारण है कि पहचान की राजनीति से सुलभ होने वाले अवसरों को भुनाने में भूमिहीनता और गरीबी दलित का रास्ता रोक लेती हैं। यही कारण है कि चाहे बसपा की सरकार ने शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के क्रियान्वयन पर कितना ही बल दिया हो, लेकिन बहुसंख्यक दलित इससे कोई खास फायदा नहीं उठा सके। वर्गीय श्रेणीक्रम में जो थोड़े से दलित बेहतर स्थिति में थे, वे ही आरक्षण से सरकारी नौकरियां हासिल कर सके हैं।

आंबेडकर ने दलितों की दुर्दशा के संदर्भ में भारतीय गांवों को चाहे जीता-जागता नर्क कहा हो, लेकिन आज भी बहुसंख्यक दलित समाज इन्हीं नर्कों में रहने को अभिशप्त हैं। और पुनर्वितरण रहित पहचान की राजनीति ग्रामीण परिवेश में खासकर अपने उद्देश्य में नाकाम साबित हुई है। गांव में जहां इज्जत और अस्मिता का भूस्वामित्व से सीधा जुड़ाव होता है, वहां बहुसंख्यक दलित जातियां कैसे अपने से उच्च मानी जाने वाली भूस्वामी जातियों के सामने सम्मान का दावा कर सकती हैं, जबकि वे भूमिहीन होने के कारण गांव की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में अपने जीवन निर्वाह के लिए भी भूस्वामी जातियों पर निर्भर करती हैं? गांव में दलित की भूमिहीनता उसे सवर्ण भूस्वामी द्वारा अपमानित और उत्पीड़ित होने का विषय बना डालती है।

दलित स्वाभिमान की बहाली का उद्देश्य यहां श्रम संबंधों में सीधे हस्तक्षेप की मांग करता है। न्यूनतम कृषि मजदूरी में वृद्धि और भूमि के पुनर्वितरण से लेकर अन्य संसाधनों का पुनर्वितरण यहां दलित अस्मिता की प्रतिष्ठा का कारण साबित होगा। लेकिन पहचान की दलित राजनीति अभी तक तो आर्थिक पुनर्वितरण के लिए जो इच्छाशक्ति अपेक्षित है, उसे साबित नहीं कर पाई है। अब तक की दलित राजनीति अर्थव्यवस्था और सामाजिक संबंधों के परस्पराश्रित रिश्तों की पहचान करने में विफल रही है। हाशिए पर पड़े वंचितों का सामाजिक-आर्थिक समावेश किए बिना भारतीय लोकतंत्र अपनी सफलता और महानता का दंभ नहीं भर सकता।


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