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न्यूज क्लिपिंग्स् | खत्म होने के कगार पर है 15वीं शताब्दी में विकसित एक प्राचीन और वैज्ञानिक व्यवस्था

खत्म होने के कगार पर है 15वीं शताब्दी में विकसित एक प्राचीन और वैज्ञानिक व्यवस्था

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published Published on Nov 12, 2020   modified Modified on Nov 12, 2020

-डाउन टू अर्थ,

पश्चिमी राजस्थान के पारंपरिक जल प्रबंधों की गुण-गाथा तब तक पूरी नहीं होगी जब तक हम खड़ीनों की चर्चा न कर लें। यह बहुत पुरानी और वैज्ञानिक व्यवस्था है। शुष्क क्षेत्र के वैज्ञानिकों का मानना है कि इनकी आज भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। खड़ीन या धोरा की तकनीक 15वीं सदी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों ने विकसित की थी। दरबार उन्हें जमीन देते थे और खड़ीनें विकसित करने को कहते थे। जमीन राजा की रहती थी और उपज का एक-चौथाई हिस्सा उन्हें जाता था। इस प्रकार पालीवालों ने पूरे जैसलमेर में खड़ीनें खड़ी कीं। आज भी करीब 500 छोटी-बड़ी खड़ीनें यहां हैं और इनसे 12,140 हेक्टेयर जमीन सिंचित होती है। पास के जोधपुर, बाड़मेर और बीकानेर जिले में भी खड़ीनेें हैं।

सिंचाई की यह विधि 4500 ईसा पूर्व के आसपास उर (मौजूदा ईरान) और बाद में मध्य-पूर्व में प्रयोग में लाई जाने वाली सिंचाई विधियों से बहुत ज्यादा मेल खाती है। नेगेव रेगिस्तान में भी ऐसी एक विधि 4,000 वर्ष पूर्व प्रयोग में लाई जाती थी और करीब 500 वर्ष पूर्व दक्षिण-पश्चिमी कोलोराडो में भी यही विधि अपनाई गई थी। खड़ीन बरसाती पानी को खेती वाली जमीन में रोकने और बाद में इस पानी से नम जमीन पर खेती करने वाली प्रणाली है। जैसलमेर के शुष्क इलाके में अधिकांश फसलों की पानी संबंधी जरूरतें सिर्फ मॉनसून की बरसात से पूरी नहीं होतीं। एक तो बरसात भी बहुत भरोसे की नहीं होती और जमीन भी रेत की ढूह और कंकरीली या चट्टानी है। इसलिए बरसात के सहारे बड़े पैमाने पर खेती कर पाना संभव नहीं है। पर ऐसी प्रतिकूल जलवायु में भी लोगों ने खड़ीनों के सहारे खेती का विकास किया है।

शुरुआती ब्रिटिश अधिकारियों के अनुसार, इस इलाके में सर्दियों वाली अर्थात रबी की फसल को सींचने की किसी भी कोशिश को दंडनीय अपराध माना जाता था। यह माना जाता था कि प्रकृति सबका पेट भरेगी और उसके कायदे-कानूनों से छेड़छाड़ करना गलत है।

माना जाता है कि यह खयाल सलीम सिंह नामक कुख्यात मंत्री ने पालीवाल ब्राह्मणों को तबाह करने के लिए प्रचारित कराया था। पालीवालों ने खड़ीनें खड़ी करने में अपनी काफी पूंजी लगा रखी थी। यहां बारहमासी सोते नहीं हैं, कुएं बहुत गहरे हैं और बरसात बहुत कम होती है। ऐसी जगह में भी जब आसपास पहाड़ियों हों और जमीन चट्टानी हो तो खड़ीनों से सिंचाई संभव बना दी गई थी। जब पालीवाल ब्राह्मणों को निकाल बाहर किया गया तब खड़ीनें भी उपेक्षित हो गईं। तब राजदरबार ने लोगों से खड़ीनें बनाने और उनकी देखभाल करने को कहा।

खड़ीन मिट्टी का एक बड़ा बांध है जो किसी ढलान वाली जमीन के नीचे बनाया जाता है जिससे ढलान पर गिरकर नीचे आने वाला पानी रुक सके। अक्सर यह 1.5 मीटर से 3.5 मीटर तक ऊंची होती है। यह ढलान वाली दिशा को खुला छोड़कर बाकी तीन दिशाओं को घेरती है। जमीन की बनावट के हिसाब से इनकी लंबाई 100 से 300 मीटर तक होती हैं। इससे घिरी जमीन की नमी ही नहीं बढ़ती, बरसाती पानी के प्रवाह पर अंकुश लगाने लगाने के चलते यह उपजाऊ मिट्टी के बहाव को भी रोकती है।

खड़ीनें ऐसी कंकरीली और चट्टानी जमीन को भी खेती लायक बना देती है जो आमतौर पर सिर्फ पशुओं की चराई के लिए ही प्रयोग होती है। पानी को निचले मैदानी इलाके में घेर दिया जाता है, जहां पानी की मात्रा के हिसाब से एक या दो फसलें ली जाती हैं। जब कम बरसात हो तो सिर्फ खरीफ की फसल ही ली जाती है। बरसात अच्छी हो तो रबी की फसल भी उसी जमीन पर उगा ली जाती है। यह प्रणाली सबसे शुष्क इलाके में भी किसानों को कम-से-कम एक फसल तो दे ही देती है।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


https://www.downtoearth.org.in/hindistory/water/traditional-water-harvesting/An-ancient-and-scientific-system-developed-in-the-15th-century-on-the-verge-of-ending-74064
 

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