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न्यूज क्लिपिंग्स् | गवई बंधुओं की आंखें फोड़ने की अमानुषिक घटना और दलित पैंथर का संघर्ष

गवई बंधुओं की आंखें फोड़ने की अमानुषिक घटना और दलित पैंथर का संघर्ष

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published Published on Apr 15, 2020   modified Modified on Apr 15, 2020

- द कारवां,

आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद दलित आंदोलन खत्म तो नहीं हुए, लेकिन उसकी गति धीमी और राजनीतिक मोर्चे पर दिशाहीन भी हो गई थी. वह 1970 का दशक था जब दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं पूरे देश में हो रही थीं. चूंकि राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर मुखालिफत नहीं हो रहा था, इसलिए दिन पर दिन उत्पीड़कों-शोषकों का हौसला बढ़ता जा रहा था. ऐसे समय में दलित पैंथर का जन्म हुआ जिसने लोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल कर न केवल उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि संघर्ष की वैचारिक जमीन भी तैयार की. इसके सह-संस्थापक ज. वि. पवार द्वारा लिखित और फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास” से हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक लोमहर्षक घटना के बाद दलित पैंथर की कार्रवाई व इसके फलाफल पर आधारित आलेख. यह घटना महाराष्ट्र के अकोला जिले के धाकली गांव की है जहां 26 सितंबर 1974 को दो गवई भाईयों की आंखें निकाल ली गई थीं. इन दोनों को न्याय दिलाने के लिए तब दलित पैंथर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक का ध्यान आकृष्ट किया और जब उन्होंने इस घटना के बारे में जाना तब उनकी आंखें भी नम हो गई थीं.

अकोला जिले के धाकली गांव में 26 सितंबर 1974 को एक भयावह घटना हुई. वहां दो भाइयों को अन्याय का विरोध करने की कीमत अपनी आंखें खोकर चुकानी पड़ी. उन्हें अंधा करने की इस अमानुषिक घटना की तब तक कोई चर्चा नहीं हुई, जब तक कि मैंने 25 जनवरी, 1975 को मुंबई में एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित नहीं की. गांव के लोग यह तर्क दे रहे थे कि दो गुंडों को उनके किए की सजा दी गई है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. वे यह नहीं समझ रहे थे कि अगर उन दोनों व्यक्तियों ने कोई अपराध किया भी था, तब भी कानून अपने हाथ में लेकर उन्हें सजा देने का हक किसी को नहीं था. किसी ने यह पता लगाने का प्रयास भी नहीं किया कि क्या वे सचमुच अपराधी थे और यदि हां तो उनका अपराध क्या था.

मुझे इस भयावह घटना के बारे में जनवरी के तीसरे सप्ताह में वडाळा स्थित सिद्धार्थ विहार हॉस्टल में पता चला. मैं अक्सर वहां जाता रहता था. उस दिन अकोला जिले से आए तीन लोग वहां मेरी राह देख रहे थे, नाना रहाटे, डी.एन. खंडारे और व्ही.टी. अडकणे. धाकली के गवई बंधु उनके साथ थे. गांव के लोगों ने दोनों भाइयों की आंखें निकाल ली थीं. ऐसा नहीं था कि गांव में गवई अल्पसंख्यक थे. वहां 125 घर थे, जिनमें से 45 गवई और उनके रिश्तेदारों के थे. शालिग्राम शिंदे गांव के ‘पुलिस-पाटिल’ थे. वे धनी और बाहुबली थे और गांव वालों को डराते-धमकाते रहते थे. उनके लड़के उद्धवराव का गांव में आतंक था. शायद उसे लगता था कि उसके पिता के कारण वह अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र है. उद्धवराव अपने खेत में काम करने वाली महिलाओं को उसके साथ यौन संबंध स्थापित करने के लिए मजबूर करता था.

गोपाल नाथू गवई और बबरूवाहन नाथू गवई सगे भाई थे. गोपाल की 16 साल की बेटी गिन्यानाबाई भी खेतों में मजदूरी करती थी. वह शालिग्राम शिंदे के खेत में काम करती थी. उद्धवराव ने उससे प्रेम का नाटक करना शुरू कर दिया. गिन्यानाबाई उसके जाल में फंस गई और गर्भवती हो गई. जब गोपाल को इसका पता चला तो वे और उनके भाई बबरूवाहन शालिग्राम से मिले और उनसे कहा कि वे गिन्यानाबाई से अपने लड़के की शादी करें. गवई बंधुओं को शायद यह पता नहीं था कि किसी महिला के साथ बलात्कार करते समय वह केवल महिला होती है, परंतु जब बात विवाह की आती है तब जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति आदि महत्वपूर्ण बन जाते हैं.

शालिग्राम ने न सिर्फ उनकी मांग खारिज कर दी, वरन गवई बंधुओं पर धमकाने और लड़की पर बलात्कार की झूठी कथा गढ़ने का आरोप लगाते हुए मुकदमें भी दर्ज करवा दिए. अदालत ने दोनों भाइयों और लड़की को बरी कर दिया. इससे पुलिस-पाटिल के जातिगत अहंकार को चोट पहुंची. उसने 26 सितंबर को गवई बंधुओं को अपने घर बुलवाया. जब वे वहां पहुंचे, तब पुलिस-पाटिल के 20 गुंडों ने उन पर हमला कर दिया. यह हमला पूर्व-नियोजित था.

धाकली, पिंजर पुलिस थाने के क्षेत्राधिकार में था. थाना प्रभारी आर.टी. पाटिल ने पहले ही शालिग्राम को यह आश्वासन दे दिया था कि वे बेखौफ होकर अपनी मनमानी कर सकते हैं. शालिग्राम के गुंडे, गवई बंधुओं पर हावी हो गए. उनमें से नौ, दोनों भाइयों के ऊपर बैठ गए और बाकी ने किसी धारदार औजार से उनकी आंखें निकाल लीं. दोनों भाइयों की आंखों से खून की धारा बह रही थी और वे उनकी आंखों के सामने छाए अंधेरे में राह ढूंढने का प्रयास कर रहे थे. इस बीच, उन्हें शालिग्राम की आवाज सुनाई पड़ी- “तुम्हें न्याय चाहिए था न? ये लो न्याय.”

धाकली, अकोला शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर था. पीड़ितों को सरकारी अस्पताल पहुंचने के लिए कोई वाहन, यहां तक कि बैलगाड़ी भी नहीं मिली, क्योंकि सारे इलाके में पुलिस-पाटिल का आतंक था. पीड़ितों की पत्नियां उन्हें पिंजर पुलिस थाने ले गई, परंतु पुलिसवालों ने उनकी शिकायत दर्ज करने से इंकार कर दिया और उन्हें थाने से भगा दिया. गवई बंधुओं को अगले दिन अकोला के एक अस्पताल में भर्ती किया गया. इस मामले में आरोपी शालिग्राम शिन्दे, उद्धवराव शालिग्राम शिन्दे, भीमराव कापले, नामदेव जाधव, तारासिंह वंजारी, मोतीराम इंगले, बंडू इंगले, सुदाम जाधव और मानिक गावंडे थे. इस घटना की रिपोर्ट स्थानीय समाचारपत्रों में इस शीर्षक से छपी : “ग्रामीणों ने अपराधियों को सजा दी.”

दलित पैंथर के कार्यकर्ताओं, जिनमें नाना रहाटे, डी. एन. खंडारे और व्ही. टी. अडकणे शामिल थे, ने नागपुर के बबन लव्हात्रे की मदद से पीड़ितों को न्याय दिलवाने का प्रयास किया. परंतु उनके प्रयास सफल नहीं हुए क्योंकि जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक ने स्थानीय पुलिस द्वारा उन्हें सुनाई गई कहानी को ही दोहरा दिया. अमरावती के उप पुलिस महानिरीक्षक ने भी स्थानीय पुलिस का समर्थन किया. इस तरह यह साफ हो गया कि स्थानीय स्तर पर गवई बंधुओं को न्याय मिलना संभव नहीं था.

पूरी स्टोरी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.


ज वि पवार, https://hindi.caravanmagazine.in/caste/dalit-panther-history-book-excerpt
 

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