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न्यूज क्लिपिंग्स् | ‘सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को मरने के लिए छोड़ दिया है, क्या वे देश की नागरिक नहीं हैं’

‘सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को मरने के लिए छोड़ दिया है, क्या वे देश की नागरिक नहीं हैं’

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published Published on Aug 13, 2020   modified Modified on Aug 14, 2020

-द वायर,

देश में कोरोना महामारी के जोखिम के बीच शहरों से लेकर दूरदराज के गांवों तक घर-घर जाकर आंकड़े जुटाने का काम कर रहीं मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा कार्यकर्ताओं ने सरकार की भेदभावकारी नीतियों के खिलाफ बिगुल बजा दिया है.

सरकारी नीतियों से खफा इन आशा कार्यकर्ताओं ने अपनी कुछ मांगों के साथ बीते नौ अगस्त को दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन भी किया था, जिसके बाद इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है.

आशा कार्यकर्ताओं ने प्रशासन के समक्ष अपनी कई मांगें रखी हैं, जिनमें इनका नियमित वेतन सुनिश्चित करना, सरकारी कर्मचारियों के तौर पर मान्यता देना, कोरोना वॉरियर्स के तौर पर इनके लिए बीमा राशि का बंदोबस्त करना शामिल हैं.

कोरोना के खतरे और निश्चित वेतन नहीं होने की दोहरी मार से जूझ रहीं आशा कार्यकर्ता बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने को मजबूर हैं.

असुरक्षित माहौल के बीच काम कर रहीं आशा कार्यकर्ता न आर्थिक रूप से सुरक्षित हैं और न ही स्वास्थ्य की दृष्टि से महफूज हैं. इनके लिए सामाजिक सुरक्षा की बात करना भी बेमानी हैं, क्योंकि ड्यूटी के दौरान आशा कार्यकर्ताओं पर हमले के कई मामले सामने आ चुके हैं.

दिल्ली आशा कामगार यूनियन की अध्यक्ष श्वेता राज ने द वायर  से बातचीत में कहा, ‘आशा कार्यकर्ता कोरोना के खिलाफ लड़ाई में फ्रंट वॉरियर्स के तौर पर काम कर रही हैं. केंद्र सरकार की योजनाओं के तहत काम करने पर उन्हें कर्मचारी के तौर पर मान्यता नहीं दी गई है. वह वॉलेंटियर के तौर पर काम कर रही हैं.’

वे कहती हैं, ‘ये सरकार की निष्ठुरता है कि आशा कार्यकर्ताओं से जोखिम भरा काम कराया जा रहा है, जिसमें वह या तो कोरोना संक्रमित लोगों के सीधे संपर्क में होती हैं या कंटेनमेंट जोन में, लेकिन मेहनताने के रूप में उन्हें महीने में दो से तीन हजार रुपये ही बेमुश्किल मिल पाते हैं.’

श्वेता आगे बताती हैं, ‘सिर्फ दिल्ली की बात करूं तो हर दो डिस्पेंसरी के अधीन कार्यरत एक से दो आशा कार्यकर्ता कोरोना संक्रमित हैं. प्रशासन की तरफ से इनको पीपीई किट, मास्क, ग्लव्ज और सैनेटाइजर कुछ भी मुहैया नहीं कराया जाता. कोविड केयर सेंटर से लेकर आइसोलेशन वॉर्ड तक में इनकी ड्यूटी लगी होती है. इतनी असुरक्षा के माहौल के बीच ये काम कर रही हैं, लेकिन कर्मचारी तक का दर्जा इन्हें नहीं दिया गया.’

कौन हैं आशा कार्यकर्ता

देश में मौजूदा समय में लगभग आठ लाख आशा कार्यकर्ता हैं. ग्रामीण आबादी के स्वास्थ्य देखभाल के लिए साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की स्थापना की गई थी, लेकिन 2013 में इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कर दिया गया, जिसके तहत आशा कार्यकर्ता ग्रामीण इलाकों के साथ-साथ शहरी इलाकों में भी काम करने लगीं.

आशा कार्यकर्ता सरकार के 60 से अधिक कार्यक्रमों और योजनाओं में अपनी सेवाएं दे रही हैं, जिनमें प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य कार्यक्रम, मातृ एवं शिशु सेवाएं, परिवार कल्याण, सर्वेक्षण, मलेरिया, कुष्ठ, एड्स जैसी बीमारियों के नियंत्रण, एनसीडी टीकाकरण कार्यक्रम, गर्भवती एवं महिलाओं के प्रसव बाद की देखभाल, कुपोषण नियंत्रण जैसे कार्यक्रम शामिल हैं.

आशा कार्यकर्ताओं के कामों की इस लंबी फेहरिस्त में कोरोना भी शामिल हो गया है, जिसके तहत वह चिह्नित किए गए इलाकों में रोजाना जाकर घर-घर दस्तक देकर सूचनाएं और जरूरी आंकड़ें इकट्ठा कर रही हैं.

आशा कार्यकर्ताओं का मानदेय

आशा कार्यकर्ता रोजाना लगभग आठ घंटे काम करती हैं और इनका कोई निश्चित मानदेय निर्धारित नहीं है. आशा कार्यकर्ताओं को मिलने वाले मानदेय को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि इन्हें पॉइंट्स के आधार पर मेहनताना मिलता है यानी इनका मानदेय इंसेंटिव आधारित है.

महीने में छह पॉइंट हासिल करने पर आशा कार्यकर्ताओं को 3,000 रुपये मिलते हैं, जबकि छह पॉइंट हासिल करने में एक पॉइंट की कमी रहने पर इन्हें प्रतिमाह 500 रुपये ही मिलते हैं.

हालांकि, इसमें भी एकरूपता नहीं है, क्योंकि यह मानदेय अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है. जैसे दिल्ली में जहां इन्हें टारगेट पूरा करने पर प्रतिमाह 6,000 रुपये मिलते हैं तो बिहार में यह 3,000 रुपये ही हैं.

केंद्र सरकार ने कोविड-19 से संबंधित काम के लिए आशा कार्यकर्ताओं को अलग से प्रतिमाह 1,000 रुपये दिए जाने का ऐलान किया था, लेकिन बीते दो महीनों से उसका भी भुगतान नहीं किया गया है.

श्वेता कहती हैं, ‘यह हास्यास्पद है. मार्च, अप्रैल और मई महीने में तो सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं से नि:शुल्क काम कराया था, वो भी बेहद खतरनाक काम, जहां उन्हें संक्रमित इलाकों में आंकड़े इकट्ठा करने के काम में लगाया गया.’

उन्होंने कहा, ‘विरोध के बाद सरकार को होश आया और तब सरकार ने कोविड-19 से जुड़े काम के लिए आशा कार्यकर्ताओं को 1,000 रुपये दिए जाने का ऐलान किया, जिसे बाद में बढ़ाकर 2,000 रुपये प्रतिमाह किया गया.’

वह कहती हैं, ‘आशा कार्यकर्ताओं का काम कितना जटिल है, उसे समझना जरूरी है, घर-घर जाकर ओआरएस के पैकेट बांटने से लेकर संबंधित इलाके में गर्भवती महिला की डिलीवरी तक उसके स्वास्थ्य का लेखा-जोखा तैयार करने तक का काम इनके जिम्मे होता है.’

उनके अनुसार, ‘अगर ऐसे में कोई गर्भवती महिला किसी निजी अस्पताल में शिशु को जन्म दे दे तो आशा कार्यकर्ता के पॉइंट में कटौती कर दी जाती है, जिससे से उसे मिलने वाला मानदेय घट जाता है.’

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


रीतू तोमर, http://thewirehindi.com/134926/coronavirus-and-the-plight-of-asha-workers/


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