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न्यूज क्लिपिंग्स् | फेक न्यूज़, कोरोना महामारी, मुसलमान और सूचना की राजनीति

फेक न्यूज़, कोरोना महामारी, मुसलमान और सूचना की राजनीति

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published Published on Apr 28, 2020   modified Modified on Apr 28, 2020

-न्यूजलॉन्ड्री,

सरकार और फेक न्यूज़

यह बड़ा विरोधाभासी लगता है कि हम कोरोना महामारी का इलाज बड़ी गंभीरता से खोज रहे हैं. जिसका इलाज भरसक कोशिशों के बावजूद अब तक संभव नहीं हुआ है. लेकिन ‘फेक न्यूज़’ से उत्पन्न हो रहे निरंतर खतरों को खतरा या बीमारी मानने को तैयार नही हैं, जबकि इसका इलाज हमारे नियंत्रण में है.

इसमें एक तर्क हो सकता है कि अभी हमारी सरकार को ‘फेक न्यूज़’ से उत्पन्न हो रहे या होने वाले व्यापक खतरों का अंदाजा नही है. लेकिन इसके विपरीत मेरा तर्क यह है कि सरकार को इससे उत्पन्न होने वाले खतरों का भलीभांति अंदाजा है लेकिन वह जिस राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है उसका यह एक अभिन्न अंग बन गया है, और उसको चुनावी राजनीति में अथाह फायदा पहुंचाता है. ‘फेक न्यूज़’ शब्द को 2017 में कॉलिंस शब्दकोष ने ‘वर्ड ऑफ़ द इयर’ कहा. जो कि मुख्यतया 2016-2017 में प्रचलन में आया.

महाराष्ट्र के पालघर में गुरुवार को ‘फेक न्यूज़’ की वजह से हुई तीन लोगों की भीड़ द्वारा निर्मम हत्या की घटना इस बात का प्रमाण है. हमें इन खतरों को समझ कर जल्द ही स्थायी समाधान खोजना होगा इससे पहले कि ये कोरोनो जैसा भयंकर आपदा का रूप धारण कर लें. एक लोकतान्त्रिक समाज का नैतिक पतन तब शुरू हो जाता जब उसके नागरिक गलत या भ्रमिक खबरों से सूचित होते हैं.

संयुक्त राष्ट्र में ‘सूचना-समाज’ की नैतिकता पर भारत और विश्व का नजरिया

वर्ल्ड समिट ऑन द इनफार्मेशन सोसाइटी के नाम से संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार ‘सूचना-समाज’ के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा के लिए एक संगोष्ठी का आयोजन 2003 में किया, उसमें भारत के तत्कालीन संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अरुण शौरी अपने प्रतिनिधित्व मंडल के साथ, जेनेवा में सम्मलित हुए थे. 12 दिसम्बर 2003 को उसी समिट ने वैश्विक सिद्धांतों का घोषणापत्र जारी किया. उसके बिंदु क्रमांक बी-10 में ‘सूचना-समाज’ के नैतिक पहलुओं पर बात की गयी है. उसके अनुसार, जितने भी देश या संस्थाएं समिट का हिस्सा हैं उनको सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के गैर-कानूनी और अनुचित उपयोग को रोकने के लिए भरसक प्रयास करने चाहिए जिससे किसी भी तरह के ‘जातीय तथा भाषायी भेदभाव, नफरत, हिंसा और असहिष्णुता को रोका जा सके.’

इससे उलट आज खुले तौर पर, कोरोनो की आड़ में, सूचना-समाज में भ्रम और नफरत को मुसलमानों के ख़िलाफ़ फैलाया जा रहा है. भारतीय मुसलमान लॉकडाउन में दोहरे ‘सामाजिक अलगाव’ को महसूस कर रहे हैं-

· एक, सरकारी स्तर पर (जो की सबके लिए समान है)

· दूसरा, फेक न्यूज़ से निर्मित बीमारी जिसे समस्या के रूप में देखा ही नहीं जा रहा है. इसके परिणामस्वरुप, मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार करने की बातें सोशल मीडिया में आम हो गयी हैं, जिसके परिणाम दूरगामी होंगे. यह एक नयी तरह की छुआछूत को जन्म दे रहा है. जोकि भारत के उदारवादी और लोकतान्त्रिक चरित्र को सांप्रदायिक बनाना चाहता है.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.


मोहम्मद इरशाद, https://www.newslaundry.com/2020/04/27/fake-news-coronavirus-pandemic-lockdown


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