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न्यूज क्लिपिंग्स् | मैं इसलिए नहीं लगवाउंगा कोविड वैक्सीन

मैं इसलिए नहीं लगवाउंगा कोविड वैक्सीन

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published Published on Jan 16, 2021   modified Modified on Jan 19, 2021

-आउटलुक,

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर विकास बाजपेयी कहते हैं कि वह कई कारणों से वैक्सीन नहीं लेंगे। वैक्सीन को लेकर कोई गर्व करने या उदास होने के लिए इसमें कुछ भी नहीं है। सबसे बड़ा सवाल वैक्सीन की प्रमाणिकता का है जिसका सरकार के पास डेटा ही नहीं है। मुझे लगता है कि सरकार के पास वैक्सीन की बीन बजाने के अलाना कोई विकल्प नहीं है, केवल लोगों का ध्यान उन मुद्दों से हटाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। सरकार लोगों की रक्षा करने के लिए नहीं बल्कि वैक्सीन शील्ड के पीछे खुद की रक्षा करने के लिए चिंतित है। यह कई खतरों के साथ एक खतरनाक गेम प्लान है।

उनका कहना है कि जीवन के 55 साल में मुझे कई बीमारियों से जूझना पड़ रहा है जिसने मुझे नियमित रूप स  कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। मुझे हृदय संबंधी समस्याएं हैं (मुझे दो-ओपन सर्जरी हुई हैं), उच्च रक्तचाप, हाइपर्यूरिसीमिया, हाइपरलिपिडिमिया जैसी बीमारियों के कारण थकान रहती है और इम्यून सिड्रोंम सबसे खराब हैं। मुझे लगता है कि मेरी स्थितियों के कारण मुझे कोरोना वैक्सीन लेनी चाहिए। हालाकि दिल्ली में कोरोना के हालात काफी खराब रहे हैं, बावजूद इसके मैं अभी तक इससे बचा रहा हूं लेकिन वैक्सीन को लेकर कुछ सवाल भी हैं।

वाजपेयी का कहना है कि सरकार खुद कह रही है कि तीसरे चरण का परीक्षण अधूरा है। यहां तक कि चरण एक और चरण दो परीक्षण की सुरक्षा और प्रभावकारिता डेटा पब्लिक डोमेन में नहीं हैं। तो, सुरक्षा का दावा कहां तक ठीक है। मेरी दूसरी चिंता प्रभावकारिता डेटा की प्रामाणिकता है जिसे सरकार ने एक महीने के भीतर सार्वजनिक डोमेन में डालने का वादा किया है।

सरकार हमें आत्मानिर्भर भारत के पक्ष में अपने तर्क के आधार पर या एक टीका विकसित करने में देश की उपलब्धि के आधार पर वैक्सीन पर भरोसा करने के लिए कह रही है, लेकिन इसकी सुरक्षा और प्रभावकारिता रिपोर्ट के आधार पर नहीं है। इसलिए, हमारे पास एक वैक्सीन है जिसकी प्रभावकारिता ज्ञात नहीं है और सुरक्षा का केवल दावा किया जा रहा है, लेकिन किसी भी तरह से वैज्ञानिक रूप से नहीं लगाया जा रहा है। सवाल है कि फिर वह प्रामाणिक प्रभावकारिता डेटा कैसे उत्पन्न करेंगे?

मैंने अखबार में पढ़ा कि मध्य प्रदेश में एक स्वयंसेवक की मृत्यु हो गई और एक की हालत गंभीर है। भारत में, पहले से ही मानदंडों के उल्लंघन का एक ट्रैक रिकॉर्ड है, और नियामक स्वयं विनियमित दिखाई देते हैं। अभी भी पश्चिमी देशों में वैज्ञानिक और रिसर्च कर रहे संस्थानों की अधिक मजबूतता विफलताओं का दस्तावेजीकरण करने और निवारण की अधिक संभावना प्रदान करती है।

 उदाहरण के लिए 1000 लोगों में से 500 लोगों को प्लेसबो दिया जाता है और बाकी बचे 500 को एक टीका दिया जाता है। प्रयोगशाला जानवरों के विपरीत, हम संभवतः इन 1000 लोगों को नियंत्रण और वैक्सीन समूहों में वायरस को जानबूझकर जीवित कर नहीं कर सकते हैं ताकि हम यह पता लगा सकें कि दोनों में से कितने समूह को संक्रमित होने से रोका गया और उनमें से कितने सुरक्षित रहे। यह अनैतिक और नैदानिक परीक्षण के सिद्धांतों के खिलाफ है।

इसलिए, सभी 1000 लोग सावधानी बरतते हैं जैसे वह मास्क पहनते हैं, सामाजिक दूरी बनाए रखते हैं और हाथ साफ करते हैं। इसका अर्थ है कि इन 1000 स्वयंसेवकों में वैक्सीन की प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिए हमें उनके पर्यावरण में होने वाले संक्रमण के प्राकृतिक पाठ्यक्रम पर निर्भर रहना होगा।

जब संक्रमण कम हो रहा है, तो सरकार एक या एक महीने में प्रभावकारिता डेटा का तैयार करने का वादा कैसे कर सकती है?  ऐसी स्थिति में सही ढंग से प्रभावकारिता का पता लगाने के लिए, नमूने का आकार बहुत बड़ा होना चाहिए और अध्ययन की समय अवधि भी लंबी होनी चाहिए।

जब महामारी बढ़ रही थी, तब भी एक छोटे नमूने के आकार ने उद्देश्य को पूरा किया होगा। मेरी तीसरी आपत्ति यह है कि ये सभी चीजें सार्वजनिक स्वास्थ्य तर्क और वैक्सीन विज्ञान की पूरी तरह से अवहेलना कर रही हैं। यह संभव नहीं है कि सरकार को इसकी जानकारी न हो या उसे सबसे अच्छी चिकित्सा राय न मिल सके। वह इसे आसानी से अनदेखा कर रहे हैं जैसा कि इस महामारी के दौरान कई उदाहरणों से स्पष्ट हुआ है। इससे पता चलता है कि इसका एक अलग एजेंडा है।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.


विकास वाजपेयी, https://www.outlookhindi.com/view/general/heres-why-i-will-not-take-the-covid-19-vaccine-jnu-professor-vikas-bajpai-54894


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