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न्यूज क्लिपिंग्स् | शाकाहारवाद महज़ आहार का मामला नहीं है…

शाकाहारवाद महज़ आहार का मामला नहीं है…

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published Published on Sep 13, 2021   modified Modified on Sep 14, 2021

-द वायर,

‘भविष्य की खोज’ – यही शीर्षक था उस दार्शनिक व्याख्यान का, जिसे जाने-माने ब्रिटिश लेखक जनाब एचजी वेल्स ने लंदन के रॉयल इंस्टिट्यूशन के सामने दिया था. (1902) आज के वक्त़ भले ही दुनिया उन्हें ज्यूल वर्न्स के साथ साइंस फिक्शन के जन्मदाता को तौर पर अधिक जानती हो, लेकिन अपने जमाने में वह प्रगतिशील सामाजिक आलोचक के तौर पर मशहूर थे और उन्होंने कई विधाओं में लेखन किया था.

अपने इस व्याख्यान में तमाम अन्य बातों का अनुमान लगाने के अलावा एचजी वेल्स ने पूंजीवादी व्यवस्था के विलोप और अमन एवं समृद्धि की एक दुनिया के उभरने की संभावना प्रकट की थी.

वैसे 21 वीं सदी की तीसरी दहाई की शुरूआत में कोई भारत के भविष्य के बारे में कुछ बात करना चाहें, दुनिया के इस सबसे ‘बड़े जनतंत्र’ के बारे में कोई भविष्यवाणी करना चाहे तो क्या कह सकता है?

दिल्ली से बमुश्किल 150-160 किलोमीटर दूर मथुरा शहर का सूरतेहाल बहुत कुछ संकेत दे सकता है. चंद रोज पहले लगभग 4.5 लाख आबादी (वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक) के इस शहर में- जहां मुसलमानों की आबादी 18 फीसदी है और दलितों की आबादी लगभग 20 फीसदी है, मीट के व्यापार पर पाबंदी लगा दी गई. (इसके साथ ही उन्होंने मद्य के व्यापार को भी पाबंदी के दायरे में रखा.)

सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव के मौके पर यह ऐलान किया, जब वह मथुरा में इस समारोह में भाग ले रहे थे. इस पाबंदी के पीछे सरकार की तरफ से एकमात्र यही तर्क प्रस्तुत किया जा रहा है कि वह ‘आधुनिक टेक्नोलॉजी’ को ‘क्षेत्र की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत’ के साथ जोड़ना चाहती है और इसीलिए यह निर्णय लिया गया है.

फिलवक्त़ यह नहीं बताया जा सकता कि वे तमाम लोग जो इस आकस्मिक कदम से बेरोजगार होंगे या उन्हें अपना व्यापार समेटना पड़ेगा, उनका क्या हाल होगा? क्या वह इस बात में सुकून पा सकेंगे कि ऐसे लोगों को ‘दूध बेचने की’ सलाह दी गई है.

बहरहाल, इस निर्णय से शहर की अच्छी खासी आबादी, जो मीट तथा अन्य गैर शाकाहारी चीज़ों का सेवन करती है, के लिए अपने आसपास अपनी पसंद का भोजन मिलने में दिक्कत होगी. जाहिर-सी बात है कि इसे एक तरह से ‘अपनी पसंद का भोजन करने के लोगों के अधिकार के अतिक्रमण’ के तौर पर देखा जा रहा है और बहुसंख्यक समाज के एक प्रभावी तबके के नज़रिये को शेष आबादी पर लागू करने के तौर पर समझा जा रहा है.

इसकी वजह यही है कि आम धारणा के विपरीत भारतीय आबादी का बहुमत मांसाहारी है. ऐसे तमाम अध्ययन उपलब्ध हैं जो इस बात की ताईद करते हैं.

भारत की जनता का अब तक का सबसे आधिकारिक सर्वेक्षण जिसे ‘पीपुल ऑफ इंडिया सर्वे’ कहा गया था, जिसे एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के तत्वावधान में अंजाम दिया गया, वह 1993 में पूरा हुआ था. आठ साला इस अध्ययन का संचालन सर्वे के महानिदेशक कुमार सुरेश सिंह ने किया था, जिन्होंने भारत के हर समुदाय की हर रिवाज, हर रस्म का गहराई से अध्ययन किया.

सर्वेक्षण के अंत में सर्वे ऑफ इंडिया की टीम ने पाया कि देश में मौजूद 4,635 समुदायों में से 88 फीसदी मांसाहारी हैं.

उन्होंने यही पाया था कि ‘शाकाहारवाद को अधिक मूल्यवान माने जाने के बावजूद हकीकत यही है कि भारत के समुदायों का महज 20 फीसदी तबका शाकाहारी कहा जा सकता है. ऐसे शाकाहारी मिलते हैं जो अंडे खाते है. ऐसे शाकाहारी भी हैं जो प्याज और अदरक से परहेज करते हैं. पुरुष अधिकतर मांसाहारी होते हैं, कई समुदायों में महिलाएं शराब पीती हैं. धूम्रपान बहुत आम है, तंबाकू का सेवन तथा पान का सेवन भी तमाम समुदायों में बड़े पैमाने पर प्रचलित है.’

उनका निष्कर्ष यही था कि ‘हम स्थूलतः खाने पीने वाले, धूम्रपान और मांसाहार करने वाले लोग हैं.’

वर्ष 2006 में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज के तहत ‘हिंदू-सीएनएन-आईबीएन’ के सर्वेक्षण ने भी एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के ऊपरोक्त अध्ययन की ताईद की थी और बताया था कि भारत का बहुमत सामिष भोजन करता है. यह तथ्य भी उजागर हुआ था कि भारत के 31 फीसदी लोग ही निरामिष अर्थात शाकाहारी भोजन करते हैं.

अगर हम नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 (2019-2020) के आंकड़ों पर गौर करें, तो यही प्रवृत्ति दिखती है. जैसा कि यह सर्वेक्षण बताता है कि भले ही इस सर्वे के तहत अब तक महज 18 राज्यों की रिपोर्टं आई है, हम यह देख सकते हैं कि इन 18 राज्यों में से 15 राज्यों के 80 फीसदी लोग अंडा, मांस तथा अन्य सामिष भोजन लेते हैं.

इस पृष्ठभूमि में मथुरा का यह रूपांतरण समग्र परिदृश्य से बेमेल भी जान पड़ सकता है कि उसे ‘शाकाहारी सिर्फ’ क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है. सरकार की तरफ से यह दलील भी दी जा रही है कि मीट/मांस मथुरा के म्युनिसिपल सीमाओं के बाहर उपलब्ध होगा।

कल्पना करें कि कितने लोग बगल के गली के दुकान बंद होने पर शहर के बॉर्डर से परे जाकर मीट/मांस खरीदने पहुंच सकेंगे!

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


सुभाष गाताड़े, http://thewirehindi.com/185955/india-meat-ban-enforced-vegetarianism-society/


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