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न्यूज क्लिपिंग्स् | जेट्टी पर ज़िंदगी: मलिम में मालिक और मछलियों के बीच खट रहे प्रवासी आदिवासियों की व्यथा-कथा

जेट्टी पर ज़िंदगी: मलिम में मालिक और मछलियों के बीच खट रहे प्रवासी आदिवासियों की व्यथा-कथा

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published Published on Oct 6, 2021   modified Modified on Oct 8, 2021

-जनपथ,

गोवा में गणपति विसर्जन की छुट्टियों के बीच वह एक ऊंघती हुई दोपहर थी। प्रवासी मज़दूरों के बीच काम करने वाली संस्था ‘दिशा फाउंडेशन’ के कुछ साथियों के साथ मैं एक थोक मछली बाज़ार में खड़ा था। बाज़ार बंद था। इलेक्ट्रॉनिक तराजुओं की लाल बत्तियां गुल थीं। मछलियाँ नहीं आयी थीं। ग्राहक ग़ायब थे। मालिक नदारद। अलबत्ता उनके मुलाज़िम मोबाइल की नशीली दुनिया में खोये हुए थे। तभी किसी के मोबाइल में झारखंड के छोटानागपुर इलाके में बोली जाने वाली सदरी भाषा में लोकप्रिय गीत बजा, “साइकल से आया सनम साइकिल से रे… राँची से राउरकेला तेरे लिए…!” बीस-बाईस साल के दो युवक प्लास्टिक की चादर पर लेटे हुए इस गाने का वीडियो देख रहे थे।

हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, ये दृश्य आम होते गए। यह नज़ारा था राँची से क़रीब 2000 किलोमीटर दूर गोवा की मलिम जेट्टी का, जहां झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के कोई पांच हजार आदिवासी मजदूर बड़ी नावों में मछली पकड़ने का काम करते हैं।

गोवा अपने आकर्षक समुद्री किनारों, आधुनिक जुआघरों और उन्मुक्त जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध है। इसकी इन लोकप्रिय ख़ासियतों से दूर हम मलिम जेट्टी नाम की ऐसी जगह पर थे जो फिशिंग की गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है। समुद्र से लौटी नावें यहां पनाह पाती हैं। यहां मछलियों का एक थोक बाज़ार है, जहां इन नावों से उतारी गयी मछलियाँ बेचने के लिए लायी जाती हैं। कुछ दिनों बाद वापस ये नावें यहां से ज़रूरी ईंधन, बर्फ, पानी और राशन लेकर हफ़्ते-दो हफ़्तों की फिशिंग यात्रा पर गहरे समुद्र की ओर निकल जाती हैं। वे जब लौटती हैं, तो कई क़िस्म की मछलियों से भरी होती हैं।


मछली पकड़ने का सामान
‘डायरेक्टरेट ऑफ़ फिशरीज़, गोवा-2015’ के एक आंकड़े के मुताबिक़ 2015 में यहां से क़रीब 89,230 मीट्रिक टन मछलियाँ पकड़ी गयी थीं। यहां फिशिंग के कारोबार में करीब 350 बोट शामिल हैं और मछलियों से भरे 15 से 20 बोट रोज़ डॉक पर पहुँचते हैं। इस जेट्टी की अपनी एक सोसाइटी है। सोसाइटी का अपना डीजल पम्प है जहां से सारे ट्रॉलर को डीजल मिलता है। बर्फ की एक फैक्ट्री भी है। समुद्र में 10-15 दिनों तक मछलियों को ताज़ा रखने के लिए ज़रूरी बर्फ की आपूर्ति यहीं से होती है। एक वर्कशॉप है, जहां बोट में आयी दिक्कतों को दुरुस्त किया जाता है। मजदूरों के राशन के वास्ते एक ग्रोसरी शॉप है, जहां से समुद्र में उतरने से पहले राशन लिया जाता है।

ताज़ा मछली के प्रेमियों के लिए जेट्टी जैसी जगहें जन्नत सरीखी होती हैं। 2018 में मछलियों में हानिकारक फार्मलीन रसायन पाये जाने की ख़बर के बाद गोवा के कई बाशिंदे सीधे जेट्टी पर आकर मछलियाँ ख़रीदने लगे थे। उनके अनुसार बोट से उतारी गयी मछलियाँ ताज़ा और किसी किस्म की छेड़छाड़ से मुक्त होती हैं, हालांकि गोवा की स्थानीय आबादी यहां पकड़ी जाने वाली सभी प्रजाति की मछलियाँ खाना पसंद नहीं करती। यहां ज्यादातर लोग मुलेट, सोल, सुरमई, रावस खाते हैं। ग्रे मुलेट को गोवा की स्टेट फिश का दर्ज़ा हासिल है। गोवा में मैकरेल, टूना, लेदर जैकेट जैसी मछलियाँ भारी मात्रा में पकड़ी जाती हैं, लेकिन इनका बाज़ार केरल में हैं। गोवा के लोग इन मछलियों को पसंद नहीं करते।

जेट्टी के मजदूरों की दुनिया            
मुझे रात की ‘गोवन थाली’ की सुरमई मछली के एक कुरकुरे तले टुकड़े की याद हो आती है और मैं अपने प्लेट तक की उसकी यात्रा को समझना चाहता हूं। नावों से उतरकर डॉक की तरफ आते मज़दूर मुझे यह बताने के लिए सबसे उचित पात्र लगते हैं। यहां एक मिश्रित गंध है, डॉक से सटे पानी की। एक-दो रोज़ पहले उतारी गयी मछलियों की। समुद्र से निकले जालों की और अधजले डीजल की। सामने रंग-बिरंगे जालों से बने क़रीब छह फुट ऊँचे ढेर पर कई मज़दूर बैठे सुस्ता रहे हैं। यह किसी टीले पर बैठने की तरह है। ऐसा लगता है जैसे यह ढेर कई जालों से मिलकर बना है पर आश्चर्य! यह महज़ एक जाल का इतना ऊँचा ढेर है।

“यह जाल इतना बड़ा होता है कि फेंकने पर पानी में दूर तक फ़ैल जाता है। फिर सब जन मिलकर उसको खींचते हैं”, बीच में बैठा 21 साल का सुनील सोरेन जाल को लेकर मेरी अनभिज्ञता पर मुस्कुराता है। वह झारखंड में राँची से सटे खूंटी जिले के रनिया गाँव का है। दो साल पहले अपने ही गाँव के ‘संगी लोग’ के कहने पर गोवा आया है। ‘इस तरह ऊपर क्यों बैठे हो’ के जवाब में सुनील हँसता है। मैं आसपास देखता हूं। बैठने की कोई दूसरी जगह नहीं दिखती। क़रीब 120 मीटर फैले जेट्टी में महज़ दस मीटर का एक शेड है। बाक़ी हिस्से में चमकीली धूप फैली है। कहीं कोई बेंच नहीं है। मज़दूर या तो लंगर पड़े अपने ट्रॉलर पर बैठे नज़र आ रहे हैं या जाल के ऊँचे ढेर पर।

मलिम जेट्टी में ट्रॉलर मालिकों की एक सोसाइटी है जो यहां के विकास और फिशिंग से जुड़ी समस्याओं पर काम करती है। जनवरी 1984 में बने इस ‘मोंडोवी फिशरीज़ मार्केटिंग को-ऑपरेटिव सोसाइटी’ ने 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के सामने मलिम जेट्टी की कई समस्याओं के बीच छोटे शेड की समस्या भी रखी थी, लेकिन इस चिंता में मज़दूरों के बैठने-सुस्ताने का सवाल नहीं था। शेड बढ़ाने की माँग मछलियों के ऑक्शन वाली जगह बढ़ाने से जुड़ी थी।

मेरे इस सवाल पर कि दिन तो यहां गुजार लोगे पर रात में कहाँ सोओगे, उसके साथ बैठे कर्मा नाम के लड़के ने सामने लंगर पड़े ट्रॉलर की ओर इशारा किया- “दामोदर ही हम सबका घर-दुआर है।”

सामने डॉक से सटा दामोदर ट्रॉलर पानी में अविचल खड़ा है। दामोदर के ठीक बगल में गंगा नाम का ट्रॉलर खड़ा है। फिशिंग के लिए तीन साइज के ट्रॉलर इस्तेमाल किये जाते हैं। इन्हें बोट, ट्रॉलर, वेसल कुछ भी कहा जाता है। इनमें इंजन लगे होते हैं जिन्हें डीजल से चलाया जाता है। सबसे छोटे साइज का ट्रॉलर 9-10 मीटर का होता है जिसमें पांच से आठ लोग मछली मारने जाते हैं। मध्यम आकार के ट्रॉलर 15-16 मीटर लम्बे होते हैं जिसकी क्षमता 11-12 लोगों की होती है। दामोदर एक बड़ा ट्रॉलर है जो 20 से 23 मीटर लम्बा है। इसमें ड्राइवर और मजदूरों को मिलाकर कुल 30-35 लोग सवार हो सकते हैं।    

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


मिथिलेश प्रियदर्शी, https://junputh.com/lounge/lifesketch-of-migrant-tribal-fishermen-working-on-goa-malim-jetty/


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