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न्यूज क्लिपिंग्स् | मलियाना नरसंहार के 34 साल: हाशिमपुरा की तरह क्या यहां के पीड़ितों को न्याय मिल पाएगा?

मलियाना नरसंहार के 34 साल: हाशिमपुरा की तरह क्या यहां के पीड़ितों को न्याय मिल पाएगा?

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published Published on May 23, 2021   modified Modified on May 26, 2021

-द वायर,

22-23 मई को मेरठ जिले के मलियाना गांव में हुए नरसंहार और मेरठ दंगों के दौरान जेलों में हिरासत में हुईं हत्याओं की 34वीं बरसी है. उस दिन उत्तर प्रदेश की कुख्यात प्रांतीय सशस्त्र पुलिस बल (पीएसी) द्वारा मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से 42 मुस्लिम युवकों उठाकर हत्या कर दी गई थी, जबकि अगले दिन 23 मई को पास के मलियाना गांव में 72 से अधिक मुसलमानों को मार डाला गया था.

इसके अलावा उसी दिन मेरठ तथा फतेहगढ़ की जेलों में भी 12 से अधिक मुसलमानों को कथित तौर पर मार डाला गया था. तीन दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद अभी तक इन हत्याकांडों में से दो की सुनवाई पूरी नहीं हो सकी है और पीड़ित परिवारों को न्याय नहीं मिल सका है, जबकि हाशिमपुरा मामले में ढाई वर्ष पहले दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आ गया है और 16 दोषी पीएसी जवानों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई है.

1987 में मेरठ सांप्रदायिक दंगे की आंच
अप्रैल-मई 1987 में मेरठ में भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए थे. मेरठ में 14 अप्रैल 1987 को शब-ए-बारात के दिन शुरू हुए सांप्रदायिक दंगों में दोनों संप्रदायों के 12 लोग मारे गए थे. इन दंगों के बाद शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया और स्थिति को नियंत्रित कर लिया गया.

हालांकि, तनाव बना रहा और मेरठ में दो-तीन महीनों तक रुक-रुक कर दंगे होते रहे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इन दंगों में 174 लोगों की मौत हुई और 171 लोग घायल हुए.

वास्तव में ये नुकसान कहीं अधिक था. विभिन्न गैर सरकारी रिपोर्टों के अनुसार मेरठ में अप्रैल-मई में हुए इन दंगों के दौरान 350 से अधिक लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो गई.

शुरुआती दौर में दंगे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच का टकराव थे, जिसमें भीड़ ने एक दूसरे को मारा. लेकिन 22 मई के बाद ये दंगे दंगे नहीं रह गए थे और यह मुसलमानों के खिलाफ पुलिस-पीएसी की नियोजित हिंसा थी.

हाशिमपुरा नरसंहार में न्याय
उस दिन (22 मई को) पीएसी ने हाशिमपुरा में स्वतंत्र भारत में हिरासत में हत्याओं की सबसे बड़ी और मानव क्रूरता के सबसे शर्मनाक अध्यायों में से एक को अंजाम दिया.

उस दिन हाशिमपुरा को पुलिस और पीएसी ने सेना की मदद से घेर लिया. घर-घर जाकर तलाशी ली गई. फिर पीएसी ने सभी पुरुषों को घरों से निकालकर बाहर सड़क पर लाइन में खड़ा किया और उनमें से लगभग 50 जवानों को पीएसी के एक ट्रक पर चढ़ने के लिए कहा गया.

324 अन्य लोगों को अन्य पुलिस वाहनों में गिरफ्तार कर ले जाया गया. जिन 50 लोगों को एक साथ गिरफ्तार किया गया था, उन्हें एक ट्रक में भरकर मुरादनगर ले जाया गया और ऊपरी गंग नहर के किनारे पीएसी ने उनमें से करीब 20 लोगों को गोली मार कर नहर में फेंक दिया. वहां 20 से अधिक शव नहर में तैरते मिले.

इस घटना की दूसरी किस्त को करीब एक घंटे बाद दिल्ली-यूपी सीमा पर हिंडन नदी के किनारे अंजाम दिया गया, जहां हाशिमपुरा से गिरफ्तार किए गए बाकी मुस्लिम युवकों को पॉइंट-ब्लैंक रेंज से मारकर उनके शवों को नदी में फेंक दिया गया.

राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने गंग नहर और हिंडन नदी पर हुईं हत्याओं की सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. सीबीआई ने 28 जून 1987 को अपनी जांच शुरू की और पूरी जांच के बाद अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी. लेकिन इस रिपोर्ट को कभी भी आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक नहीं किया गया.

उत्तर प्रदेश की अपराध शाखा- केंद्रीय जांच विभाग (सीबी-सीआईडी) ने इस मामले की जांच शुरू की. इसकी रिपोर्ट अक्टूबर 1994 में राज्य सरकार को सौंपी गई और इसने 37 पीएसीकर्मियों पर मुकदमा चलाने की सिफारिश की.

अंत में 1996 में गाजियाबाद के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया था. आरोपियों के खिलाफ 23 बार जमानती वारंट और 17 बार गैर-जमानती वारंट जारी किए गए, लेकिन उनमें से कोई भी 2000 तक अदालत के समक्ष पेश नहीं हुआ.

वर्ष 2000 में 16 आरोपी पीएसी जवानों ने गाजियाबाद की अदालत के सामने आत्मसमर्पण किया. उन्हें जमानत मिल गई और वह फिर से अपनी सेवा पर बहाल हो गए.

गाजियाबाद अदालत की कार्यवाही में अनुचित देरी से निराश पीड़ितों और बचे लोगों के परिजनों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस मामले को दिल्ली स्थानांतरित करने की प्रार्थना की, क्योंकि दिल्ली की स्थिति अधिक अनुकूल थी.

सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में इसे मंजूर कर लिया. फिर इस मामले को दिल्ली की तीस हजारी अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया, लेकिन मामला नवंबर 2004 से पहले शुरू नहीं हो सका, क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने मामले के लिए सरकारी वकील की नियुक्ति नहीं की थी.

अंतत: एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद तीस हजारी कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने इस मुकदमे के पूरा होने पर 21 मार्च 2015 को फैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन द्वारा पेश किए गए सबूत अपराध दर्ज करने के लिए पर्याप्त नहीं थे, जिन अपराधों के लिए आरोपी व्यक्तियों को आरोपित किया गया था. यह देखना दर्दनाक था कि कई निर्दोष व्यक्तियों को आघात पहुंचाया गया था और उनकी जान राज्य की एक एजेंसी (पीएसी) द्वारा ली गई, लेकिन जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष दोषियों की पहचान स्थापित करने और जरूरी रिकॉर्ड लाने में विफल रहे, इसलिए मुकदमे का सामना कर रहे आरोपी व्यक्ति संदेह का लाभ पाने के हकदार हैं.

इसके साथ ही कोर्ट ने सभी आरोपियों को उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों से बरी कर दिया.

उत्तर प्रदेश सरकार ने सत्र अदालत के इस फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी और अंत में दिल्ली हाईकोर्ट ने 31 अक्टूबर 2018 को, 1987 के हाशिमपुरा मामले में हत्या और अन्य अपराधों के 16 पुलिसकर्मियों को बरी करने के निचली अदालत के फैसले को पलट दिया, जिसमें 42 लोग मार डाले गए थे.

हाईकोर्ट ने 16 पीएसी जवानों को हत्या का दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई.

दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर और जस्टिस विनोद गोयल की पीठ ने इस नरसंहार को ‘पुलिस द्वारा निहत्थे और रक्षाहीन लोगों की लक्षित हत्या’ करार दिया.

अदालत ने सभी दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा कि पीड़ितों के परिवारों को न्याय पाने के लिए 31 साल इंतजार करना पड़ा और आर्थिक राहत उनके नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती. सभी 16 दोषी तब तक सेवानिवृत्त हो चुके थे.

मलियाना नरसंहार
हाईकोर्ट के फैसले से हाशिमपुरा नरसंहार मामले में तो न्याय हो गया, लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब नहीं मिले हैं. आखिर मलियाना नरसंहार का क्या हुआ, जहां हाशिमपुरा नरसंहार के अगले दिन 23 मई, 1987 को पीएसी की 44वीं बटालियन के एक कमांडेंट आरडी त्रिपाठी के नेतृत्व में 72 मुसलमानों को मार डाला गया था?

इस हत्याकांड की एफआईआर-प्राथमिकी तो दर्ज की गई थी, लेकिन उसमें पीएसीकर्मियों का कोई जिक्र नहीं है. राज्य की एजेंसियों द्वारा की गई जांच और अभियोजन पक्ष द्वारा एक कमजोर आरोप पत्र तैयार करने के कारण इस मामले में मुकदमा अभी पहले चरण को भी पार नहीं कर पाया है.

hashimpura

पिछले 34 सालों में सुनवाई के लिए 800 तारीखें पड़ चुकी हैं, लेकिन अभियोजन पक्ष ने 35 गवाहों में से सिर्फ तीन से मेरठ की अदालत ने जिरह की है. इस मामले में पिछली सुनवाई करीब चार साल पहले हुई थी.

यह मामला मेरठ के सत्र अदालत में विचाराधीन है. अभियोजन पक्ष की ढिलाई का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मामले की एफआईआर अचानक ‘गायब’ हो गई है. मेरठ की सत्र अदालत ने बिना एफआईआर मामले की सुनवाई के आगे बढ़ने से इनकार कर दिया है. एफआईआर-प्राथमिकी की एक प्रति और प्राथमिकी की ‘खोज’ अभी भी जारी है.

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पीएसी 23 मई 1987 को दोपहर करीब 2:30 बजे 44वीं बटालियन के कमांडेंट आरडी त्रिपाठी सहित वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के नेतृत्व में मलियाना में घुसी और 70 से अधिक मुसलमानों को मार डाला.

तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने आधिकारिक तौर पर 10 लोगों को मृत घोषित किया. अगले दिन जिलाधिकारी ने कहा कि मलियाना में 12 लोग मारे गए, लेकिन बाद में उन्होंने जून 1987 के पहले सप्ताह में स्वीकार किया कि पुलिस और पीएसी ने मलियाना में 15 लोगों की हत्या की थी. एक कुएं में भी कई शव मिले.

27 मई 1987 को तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मलियाना हत्याकांड की न्यायिक जांच की घोषणा की. इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस जीएल श्रीवास्तव ने आखिरकार 27 अगस्त को इसका आदेश दिया. 29 मई 1987 को यूपी सरकार ने मलियाना में फायरिंग का आदेश देने वाले पीएसी कमांडेंट आरडी त्रिपाठी को निलंबित करने की घोषणा की.

दिलचस्प बात यह है कि उन पर 1982 के मेरठ दंगों के दौरान भी आरोप लगाए गए थे, लेकिन तथ्य यह है कि आरडी त्रिपाठी को कभी भी निलंबित नहीं किया गया था और उनकी सेवानिवृत्ति तक सेवा में पदोन्नति से सम्मानित किया गया था.

जेलों में हिरासत में हत्याएं. विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, 1987 के मेरठ दंगों के दौरान 2,500 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया था. जिनमें से 800 को मई (21-25) 1987 के अंतिम पखवाड़े के दौरान गिरफ्तार किया गया था. जेलों में भी हिरासत में हत्या के मामले थे.

3 जून 1987 की रिपोर्ट और रिकॉर्ड बताते हैं कि मेरठ जेल में गिरफ्तार किए गए पांच लोग मारे गए, जबकि सात फतेहगढ़ जेल में मारे गए, सभी मुस्लिम थे. मेरठ और फतेहगढ़ जेलों में हिरासत में हुई कुछ मौतों की प्राथमिकी और केस नंबर अभी भी उपलब्ध हैं.

राज्य सरकार ने मेरठ जेल और फतेहगढ़ जेल की घटनाओं में दो अन्य जांच के भी आदेश दिए. फतेहगढ़ जेल में हुईं घटनाओं की मटिस्ट्रेट जांच के आदेश से यह स्थापित हुआ कि ‘जेल के अंदर हुई हाथापाई’ में अन्य स्थानों के अलावा चोटों के परिणामस्वरूप छह लोगों की मौत हो गई.

रिपोर्ट के अनुसार, आईजी (जेल) यूपी ने चार जेल वार्डन, दो जेल प्रहरियों (बिहारी लाई और कुंज बिहारी), दो दोषी वार्डन (गिरीश चंद्र और दया राम) को निलंबित कर दिया.

विभागीय कार्यवाही जिसमें स्थानांतरण शामिल है, मुख्य हेड वार्डन (बालक राम), एक डिप्टी जेलर (नागेंद्रनाथ श्रीवास्तव) और जेल के उप अधीक्षक (राम सिंह) के खिलाफ शुरू की गई थी.

इस रिपोर्ट के आधार पर मेरठ कोतवाली थाने में इन छह हत्याओं से जुड़े तीन हत्या के मामले दर्ज किए गए, लेकिन एफआईआर में कुछ अधिकारियों के जांच में आरोपित होने के बावजूद किसी नाम की सूची नहीं है, इसलिए पिछले 34 वर्षों में कोई अभियोजन शुरू नहीं किया गया था.

जस्टिस श्रीवास्तव आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई
परिणाम उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मलियाना की घटनाओं पर न्यायिक जांच की घोषणा के बाद मई 1987 के अंतिम सप्ताह में जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस जीएल श्रीवास्तव की अध्यक्षता में आयोग ने अपनी शुरुआत की.

तीन महीने बाद 27 अगस्त 1987 को कार्यवाही शुरू हुई. हालांकि मलियाना में पीएसी की निरंतर उपस्थिति से मलियाना के गवाहों से पूछताछ में बाधा उत्पन्न हुई.

अंतत: जनवरी 1988 में आयोग ने सरकार को पीएसी को हटाने का आदेश दिया. आयोग द्वारा कुल मिलाकर 84 सार्वजनिक गवाहों, 70 मुसलमानों और 14 हिंदुओं से पूछताछ की गई. साथ ही पांच आधिकारिक गवाहों से भी पूछताछ की गई, लेकिन समय के साथ-साथ जनता और मीडिया की उदासीनता ने इसकी कार्यवाही को प्रभावित किया है.

अंत में जस्टिस जीएल श्रीवास्तव की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग ने 31 जुलाई 1989 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, लेकिन इसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया.

स्वतंत्र रूप से सरकार ने 18 से 22 मई तक हुए दंगों पर एक प्रशासनिक जांच का आदेश दिया, लेकिन उन्होंने मलियाना की घटनाओं और मेरठ और फतेहगढ़ जेलों में हिरासत में हत्याओं को बाहर कर दिया.

भारत के पूर्व नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ज्ञान प्रकाश की अध्यक्षता वाले पैनल में गुलाम अहमद, एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और अवध विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति तथा आईएएस राम कृष्ण शामिल थे.

पैनल को 30 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट देने को कहा गया, जो उसने किया. इस आधार पर कि जांच एक प्रशासनिक प्रकृति की थी, जिसे अपने उद्देश्यों के लिए आदेश दिया गया था, सरकार ने अपनी रिपोर्ट विधायिका या जनता के सामने नहीं रखी. हालांकि, दैनिक अखबार द टेलीग्राफ ने नवंबर 1987 में पूरी रिपोर्ट प्रकाशित की.

अब इस रिपोर्ट के लेखक और उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक विभूति नारायण राय और पीड़ित इस्माइल द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के समक्ष एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई है. इस्माइल ने अपने परिवार के 11 सदस्यों को मालियाना में खो दिया था.

23 मई 1987 और एक वकील एमए राशिद, जिन्होंने मेरठ ट्रायल कोर्ट में मामले का संचालन किया, ने एसआईटी द्वारा निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई और पीड़ितों के परिवारों को पर्याप्त मुआवजा देने की मांग की.

तीन दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी 1987 के दंगों के दौरान मेरठ में मलियाना हत्याकांड और हिरासत में अन्य हत्याओं के मामले में ज्यादा प्रगति नहीं हुई है, क्योंकि मुख्य अदालती कागजात रहस्यमय तरीके से गायब हो गए थे.

याचिकाकर्ताओं ने यूपी पुलिस और पीएसीकर्मियों पर पीड़ितों और गवाहों को गवाही नहीं देने के लिए डराने-धमकाने का भी आरोप लगाया है. इस जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश संजय यादव और जस्टिस प्रकाश पाडिया ने 19 अप्रैल 2021 को उत्तर प्रदेश सरकार को जवाबी हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया.

इसके बाद पीठ ने कहा था, ‘शिकायत और मांगी गई राहत को ध्यान में रखते हुए हम उत्तर प्रदेश सरकार से इस रिट याचिका पर जवाबी हलफनामा और पैरा-वार जवाब दाखिल करने का आह्वान करते हैं. याचिकाकर्ताओं के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस मामले में पेश हुए.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


कुरबान अली, http://thewirehindi.com/170530/1987-meerut-communal-riots-34-years-since-hashimpura-maliana-anti-muslim-carnage/
 

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