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न्यूज क्लिपिंग्स् | बाहुबलियों- नेताओं और पुलिस के सांठ-गांठ को लेकर ऐसा क्या है एनएन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट में जिसे सार्वजनिक नहीं कर रही है सरकार

बाहुबलियों- नेताओं और पुलिस के सांठ-गांठ को लेकर ऐसा क्या है एनएन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट में जिसे सार्वजनिक नहीं कर रही है सरकार

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published Published on Jul 7, 2020   modified Modified on Jul 7, 2020

-द प्रिंट,

कानपुर में पुलिसकर्मियों की नृशंस हत्या की घटना के बाद एक बार फिर संगठित अपराधियों, माफिया, नेताओं और पुलिस तथा प्रशासन की सांठगांठ की ओर इशारा कर रही है. यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक अपराधी की तलाश में पुलिस दबिश करती है और इसकी सूचना पहले ही लीक हो जाती है, नतीजा संगठित तरीके से पुलिस पर गोलीबारी के रूप में होता है.

अब समय आ गया है कि केन्द्र सरकार संगठित अपराधियों, माफिया, नेताओं और पुलिस तथा प्रशासन के नौकरशाहों की सांठगांठ को बेनकाब करने वाली एन एन वोहरा समिति में 27 साल पहले की गयी सिफारिशों पर सख्ती से अमल किया जाये. मुंबई के 1993 के सिलसिलेवार बम विस्फोट कांड के बाद पूर्व गृह सचिव एन एन वोहरा की अध्यक्षता में उसी साल जुलाई में इस समिति का गठन हुआ था जिसने मात्र तीन महीने के भीतर ही अक्टूबर में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी.

सरकार को यह रिपोर्ट मिल जाने के बावजूद दो साल तक इसे सदन में पेश नहीं किया गया. विपक्षी दलों के दबाव में अंतत: 1995 में इसके कुछ अंशों को सार्वजनिक किया गया जो संगठित अपराधियों, नेताओं और पुलिस तथा नौकरशाहों की सांठगांठ की ओर संकेत दे रहे थे.

इस रिपोर्ट को आज तक पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किया गया है. इस रिपोर्ट को सार्वजनिक कराने के लिये मामला उच्चतम न्यायालय भी पहुंचा था लेकिन याचिकाकर्ता सांसद दिनेश त्रिवेदी को इसमें विशेष सफलता नहीं मिली.

हां, इतना जरूर हुआ कि न्यायालय ने दिनेश त्रिवेदी बनाम भारत सरकार मामले में 20 मार्च 1997 को जानकारी प्राप्त करने के अधिकार के मुददे पर अपनी व्यवस्था दी. तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ए एम अहमदी और न्यायमूर्ति वी सुजाता मनोहर की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि आधुनिक लोकतंत्र में नागरिकों को अपनी निर्वाचित सरकार के कामकाज के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन दूसरे अधिकारों की तरह ही इस अधिकार की भी सीमायें हैं और यह मुकम्मल नहीं है.

जांच एजेंसी और गोपनीयता
न्यायालय ने वोहरा समिति की रिपोर्ट के साथ संलग्न सामग्री सार्वजनिक करने का निर्देश देने से इंकार कर दिया था. न्यायालय का विचार था कि इस सामग्री में विभिन्न सुरक्षा एजेन्सियों के प्रमुखों द्वारा उपलब्ध करायी गयी तमाम संवेदनशील सूचनायें हैं और इन्हें सार्वजनिक करने का निर्देश देने से इन एजेन्सियों और गोपनीयता के साथ काम करने के उनके तरीकों को बहुत अधिक नुकसान पहुंचेगा.

न्यायायल ने अपने फैसले में कहा था कि इस रिपोर्ट में प्रदत्त जानकारी को ध्यान में रखते हुये राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष की सलाह से एक उच्च स्तरीय समिति गठित करनी चाहिए जो इस तरह की सांठगांठ से संबंधित मामलों की जांच की निगरानी करेगी ताकि वोहरा समिति की रिपोर्ट में दी गयी जानकारियों के आलोक में अपेक्षित नतीजे हासिल किये जा सकें.

वोहरा समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक ऐसी नोडल एजेन्सी गठित करने की सिफारिश की गयी थी जिसे मौजूदा सभी गुप्तचर और प्रवर्तन एजेन्सियां देश में संगठित अपराध के बारे में मिलने वाली सारी जानकारियां तत्परता से उपलब्ध करायेंगी.

यही नहीं, रिपोर्ट में कहा गया था कि नोडल एजेन्सी को इस तरह से मिली सूचनाओं का उपयोग आपराधिक सिन्डीकेट को राजनीतिक नफे नुकसान का अवसर प्रदान किये बगैर ही पूरी सख्ती के साथ करना होगा. रिपोर्ट में ऐसा करते समय गोपनीयता का पूरी तरह ध्यान रखने पर भी जोर दिया गया था.

न्यायालय के इस फैसले को भी 23 साल हो चुका है. सरकार ने निश्चित ही इस ओर कदम उठाये हैं लेकिन इसके बावजूद संगठित अपराधियों की नेताओं, राजनीतिक दलो और पुलिस तथा नौकरशाहों के साथ सांठगांठ पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. इसी का नतीजा है कि आज भी इन अपराधियों को नेताओं ओर राजनीतिक दलों का संरक्षण पहले की तरह ही प्राप्त है. कानपुर का विकास दुबे भी इसका अपवाद नहीं है.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


अनूप भटनागर, https://hindi.theprint.in/opinion/nexus-between-musclemen-leaders-and-police-in-report-of-nn-vohra-committee-government-not-making-public/152521/


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