Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | मीडिया आजाद है!

मीडिया आजाद है!

Share this article Share this article
published Published on Sep 7, 2020   modified Modified on Sep 7, 2020

-आउटलुक,

न कोई मीडिया मुगल है, न ही मीडिया की अपनी कोई ताकत बची है। रेंगते लोकतंत्र के साथ मीडिया का रेंगना उसके वजूद को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है, जहां लोकतंत्र को घुटने के बल लाने वाली सत्ता से कोई सवाल नहीं करना है, बल्कि सत्ता की ताकत को अपने साथ जोड़ना है। इस दौर में खबरों की गुणवत्ता या फिर देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण और लोगों की जिंदगी से जुड़े मुद्दों से आंख मूंद कर आगे बढ़ने की सोच ही जैसे वजूद का वायस बन गई है।

खबरें दिखाने-बताने का मंत्र खबरों को उत्पाद या प्रोडक्ट मानना ही रहा है। विज्ञापनों की जगह अलग से निर्धारित कर कमाई करना परंपरा रही है। लेकिन खबर ही विज्ञापन में तब्दील हो जाए, मीडिया संस्थान के मुनाफे का मॉडल सत्ता से डर या पाने वाली सुविधाओं पर जा टिके, कॉरपोरेट-सत्ता गठजोड़ सूचना देने की जमीन पर ही कब्जा कर ले, न्यूज चैनल हो या इंटरनेट तमाम माध्यमों से सत्तानुकूल नव-उदारवादी विचारों को परोसने की होड़ हो, जिसे अति-राष्ट्रवाद की चाशनी में डुबोया गया हो, सवाल की जगह न हो, विरोध बर्दाश्त न हो तो कौन-सा मीडिया आपके सामने होगा। नंगी आंखों से देख सकते हैं कि निराधार खबरों, झूठ और गलत जानकारी का ऐसा सैलाब होगा, जिसे सच मानना ही सही लगेगा।

मौजूदा वक्त का बड़ा सवाल यही है कि मीडिया जिस भूमिका में आ चुका है, वह उसकी मजबूरी है या बिजनेस मॉडल की जरूरत। या फिर मीडिया लोकतंत्र को सत्तानुकूल परिभाषित करने का सबसे बेहतरीन हथियार है जिसे राजनैतिक सत्ता ने समझा और कॉरपोरेट मित्रों के जरिए अंजाम तक पहुंचाना शुरू किया। लोकतंत्र के चार स्तंभों में मीडिया ही है जो सीधे करदाता के पैसे से नहीं चलता, बाकी तीन स्तंभ कार्यपालिका-विधायिका-न्यायपालिका करदाता के पैसे से चलते हैं। उन्‍हें सत्ता कब्जे में ले ले तो मीडिया ही लोकतंत्र के प्रतीक के तौर पर बरकरार रहता है। इसीलिए अखबारों की रिपोर्ट सरकारी ऐलान की तारीफ में लगी हो और न्यूज चैनल बेसिरपैर की खबरों से भरे हों, तो भी लोकतंत्र के राग गाए जा सकते हैं क्योंकि सोशल मीडिया आजाद है। आखिर सोशल मीडिया देश के 85 करोड़ लोगों तक पहुंच जो रखता है। चाहे-अनचाहे अखबार के संपादक या न्यूज चैनल के प्रबंध संपादक की हैसियत सत्ता के दरबारी वाली हो गई। राजनैतिक सत्ता के आगे जब दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाएं ढहने लगीं तो मीडिया ने न सिर्फ आंखें बंद कर लीं, बल्कि जनविरोधी हो गया।

एक आरटीआइ जवाब के मुताबिक, सत्ता ने जून 2014 से दिसबंर 2019 के बीच 6,500 करोड़ रुपये मीडिया में सिर्फ अपने प्रचार के लिए बांटे। चुनावी प्रचार और योजनाओं के प्रचार की रकम अलग है। सभी तरह के प्रचार की रकम को जोड़ दिया जाए तो इन पांच बरस में न्यूज चैनलों को व्‍यावसायिक विज्ञापनों के मुकाबले सत्ता के प्रचार से कई गुना ज्यादा रकम हासिल हुई। न्यूज चैनलों को व्यावसायिक विज्ञापनों से हर साल औसतन 2,000 करोड़ रुपये मिले, तो बीते छह बरस में सरकारी प्रचार औसतन हर साल 5,000 करोड़ रुपये तक हासिल हुए। विधानसभा चुनाव हों या 2019 का लोकसभा चुनाव, भाजपा ने प्रचार खर्च के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों के पास न तो रकम थी, न ही उन्हें कहीं से फंडिंग मिली। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट (एडीआर) के मुताबिक कॉरपोरेट या औद्योगिक घरानों ने जो भी राजनैतिक चंदा दिया उसका 72 फीसदी सत्ताधारी भाजपा के खाते में गया। पूंजी के इस खेल ने लोकतंत्र की बिसात पर विपक्ष को गायब कर दिया और न्यूज चैनलों के एंकर सत्ता के प्रवक्ता नजर आने लगे। यह नई पत्रकारिता थी जिसे सत्ता के साथ खड़े रहकर ही पाया जा सकता था।

सवाल है कि मीडिया की भूमिका क्या होगी। मुनाफा कमाना उसकी जरूरत है या फिर जनता से जुड़े मुद्दे उठाना। बिजनेस के तौर-तरीकों ने मीडिया की साख पर सवाल खड़े कर दिए। शुरुआत में साख का डगमगाना सत्ता की चकाचौंध में खोना था। विपक्ष की चुनावी हार को जोर-शोर से उठा कर जीत के पक्ष में खड़ा होना था। संवैधानिक संस्थाएं नतमस्तक हुईं तो मीडिया उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या को भी राजनैतिक चश्मे से देखने लगा। नोटबंदी में लाइन में खड़े लोगों की मौत को भी कालेधन के खिलाफ देशभक्ति की मुहिम का असर माना गया। जीएसटी में व्यापारियों के धंधे चौपट हो गए। सूरत में कपड़ा व्यापारियों के विरोध को भी ‘एक देश-एक टैक्स’ के विरोध के रूप में देखने का प्रयास हुआ।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


पुण्य प्रसून वाजपेयी, https://www.outlookhindi.com/view/punya-prasoon-vajpayee-on-media-behavior-in-sushant-singh-rajput-death-case-51376


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close