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न्यूज क्लिपिंग्स् | अंगूर के किसानों को पी गई शराब

अंगूर के किसानों को पी गई शराब

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published Published on Sep 22, 2009   modified Modified on Sep 22, 2009

नई दिल्ली [पुण्य प्रसून वाजपेयी]। नासिक शहर से करीब दस किलोमीटर दूर गंगापुर होते हुए करीब चार किलोमीटर आगे बनी देश की सबसे प्रसिद्ध वाइन फैक्ट्री जाने का रास्ता भी देश के सबसे हसीन रास्तो में से एक है। सह्यंाद्री हिल्स के बीच गंगापुर झील और चारो तरफ हरे-भरे खेत। इन सबके बीच सैकड़ों एकड़ की जमीन पर अंगूर की खेती।

इन सबके बीच सांप की तरह शानदार सड़क और उस सड़क पर रफ्तार से भागती आधुनिकतम गाड़ियां। जाहिर है आधुनिक होते भारत की यह तस्वीर किसी भी शहरी को भा सकती है। खासकर जब यह रास्ता वाइन फैक्टरी ले जाए।

यह तस्वीर दिसंबर 2009 में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले ही है, लेकिन इसी तस्वीर को अगर पाच साल पीछे यानी 2004 में विधानसभा चुनाव के दौरान देखें तो नासिक शहर से दस किलोमीटर दूर गंगापुर जाना किसी जंगल में जाने जैसा था। टूटी-फूटी सड़कें।

बैलगाड़ी और टै्रक्टर ही सबसे ज्यादा दौड़ते नजर आते थे। और यहा से वाइन फैक्ट्री तक जाना धूल-मिट्टी उड़ाते हुए। उबड़-खाबड़ सड़क पर कीचड़ से बचते-बचाते हुए फैक्ट्रीनुमा एक शेड में पहुंचना होता था। जहा शेड की छाव में या अंगूर के झाड़ तले शराब की चुस्की ली जाती थी। पाच साल में विकास की यह लकीर इतनी गाढ़ी हो गई कि 2004 में जहा कोई पुलिस-प्रशासन का अधिकारी इस तरफ झाकने नहीं जाता था और नासिक पहुंचा कोई भी पर्यटक त्रयंबकेश्वर मंदिर और पाडव की गुफाओं को देखकर लौट जाता था।

वही वाइन फैक्ट्रियां अब 2009 में पुलिस प्रशासन के अधिकारियों का अड़्डा हैं। पर्यटक अब गंगापुर झील के किनारे वाइन फैक्टरी के हट्स में रात गुजारने यूरोप से भी आते हैं। शुक्रवार-शनिवार की रात रेव पार्टियां आयोजित की जाती हैं।

लेकिन पाच साल के दौर में सिर्फ यही नजारा बदला, ऐसा भी नहीं है। इस बदली तस्वीर की कीमत किसे चुकानी पड़ी और बदली हुई इस तस्वीर का दूसरा रुख भी कैसे नासिक के इसी क्षेत्र में तैयार हुआ यह मनोहर बाबूराव पटोले के परिवार को देखकर भी समझा जा सकता है। 2004 में पटोले परिवार के पास 20 एकड़ जमीन थी। जहां अंगूर उगाकर यह परिवार जिंदगी बसर करता था।

अंगूर का बाजार भाव नासिक में कभी बढ़ा नहीं, इसलिए बढ़ती महंगाई में परिवार का पेट पालने के लिए पटोले परिवार ने शराब बनाने वालों से संपर्क किया। शराब बनाने वालों ने समझौता किया कि अगर 20 एकड़ में वाइन के लिए पटोले परिवार अंगूर उगाएगा तो उसे वह खरीद लेंगे। वाइन का अंगूर सामान्य अंगूर से अलग होता है, इसलिए इस अंगूर को उगाने से लाभ भी था, क्योंकि वाइन फैक्ट्री से उसे तयशुदा अच्छी पूंजी मिल जाएगी। लेकिन खतरा भी था कि इससे अंगूर की पूरी फसल ही शराब बनाने वालों पर निर्भर हो जाएगी।

पहले साल तो लाभ हुआ, लेकिन संकट 2006 से शुरू हुआ, जब वाइन फैक्टरी वालों ने अपने हाल को खस्ताहाल करार देते हुए अंगूर लेने से मना कर दिया फिर औने-पौने दाम में पटोले परिवार को वाइन अंगूर बेचना पड़ा। यह हाल सिर्फ पटोले परिवार का नहीं हुआ, बल्कि शिवाजी पवार, भंधू मोहिते से लेकर मजाम पाटिल सरीखे दर्जनों बड़े किसानों की माली हालत बिगड़ी। तीस से ज्यादा छोटे किसान, जिनके पास पाच एकड़ तक जमीन थी, उनके लिए मुसीबत यही आई कि साल दर साल अंगूर की फसल बोने-उगाने में जो खर्च हो, उसके भी लाले पड़ने लगे।

बड़े किसानों को जमीन का टुकड़ा-दर-टुकड़ा बेचना पड़ा तो छोटे किसानों को जिंदा रहने के लिए जमीनें गिरवी रखनी पड़ी। विकास की अनूठी लकीर के गाढ़ेपन में 2004 के किसान 2009 में मजदूर से लेकर माल ढोने वाले तक हो गए। कुछ किसान तो जीते जी अपनी जमीन से पूरी तरह उजड़ गए। खासकर जिनकी जमीन गंगापुर झील केकिनारे थी और जो कई तरह की फसलों के जरिए जिंदगी की गाड़ी चलाते थे। जब उनकी फसल शराब पर टिकी और धीरे-धीरे फसल उगाने की पूंजी तक नहीं बची तो जमीन बेच दी।

महत्वपूर्ण है कि झील के किनारे की जमीन को शहरीकरण के दायरे में लाने की बात अधिकारियों ने की और मुआवजा लेकर जमीन बेचने का सुझाव भी नासिक विकास प्रधिकरण से ही निकला। इस जमीन को भी पर्यटन के लिए वाइन फैक्ट्री वालों ने ही हथियाया यानी पाच साल पहले जो अपनी जमीन पर मेहनत कर जिंदगी की गाड़ी को खींचता था, वह 2009 में तेज रफ्तार से साप सरीखी सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों के रुकने का इंतजार कर उनके सामानों को ढोकर अपनी ही जमीन पर बने हट्स यानी रईसी की झोपड़ियों में पहुंचाता है। जहा एक रात गुजारने की कीमत उसके साल भर की कमाई पर भी भारी पड़ती है।

इन पाच सालों में कितना फर्क बाजार और खेती में आ गया, इसका अंदाज इससे भी लग सकता है कि बाजार ने वाइन की प्रति बोतल में औसतन तीन सौ फीसदी की बढ़ोतरी की और खेती में जुटे किसान की फसल में दस फीसदी की बढ़ोतरी भी नही हो पाई। पाच साल पहले भी नासिक शहर में अंगूर आठ से दस रुपये किलोग्राम मिलता था, वहीं 2009 में भी अंगूर की कीमत बारह रुपये प्रति किलो नहीं हो पाई है।

नासिक से सटे इलाको में नादगाव, चादवाड़ा से लेकर येवला और मालेगाव तक केकरीब बीस लाख किसानों के सामने इन पाच सालों में सबसे बड़ा संकट यही आया है कि उनकी खेती में लगने वाले बीज, खाद और बास जिस पर अंगूर की झाड़ को टिकाया जाता है, उसकी कीमत में पचास फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है, लेकिन अंगूर की कीमत पाच साल में पच्चीस रुपये पेटी से तीस रुपये पेटी तक ही पहुंची है।

ऐसे में किसान मजदूर बनने से भी नही कतराता, लेकिन जब बर्बाद होकर मजदूर बनने वाले किसानों की तादाद मजदूरों से कई गुना हो तो मजदूरों को भी कौन पूछता है। नासिक में एक दर्जन से ज्यादा वाइन की फैक्ट्रियों में करीब पाच हजार कर्मचारी हैं।

इन कर्मचारियों को औसतन सौ रुपये रोज के मिलते है, जो खेत मजदूर से पैंतीस रुपये ज्यादा है और नरेगा में मिलने वाले काम केबराबर है। स्थाई मजदूर कोई नहीं है चाहे वह बरसों बरस से काम कर रहा हो। दूसरी तरफ बडे़ किसान और वाइन फैक्ट्री मालिक का अंतर जमीन आसमान का है। जिसमें पटोले परिवार 20 एकड़ जमीन का मालिक होकर भी सालाना तीन लाख से ज्यादा 2004 तक कभी नहीं कमा पाया। और अब सालाना एक लाख भी नहीं जुगाड़ पाता।

वहीं 2004 में जिस वाइन फैक्ट्री की लागत बीस लाख थी, वह 2009 में 200 करोड़ पार कर चुकी है। विकास की यह मोटी, लेकिन अंधी लकीर नेताओं को कितनी भाती है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नासिक के भाजपा नेता और डिप्टी मेयर अजय बोरस्ते ने इसी दौर में वाइन फैक्ट्री खोल ली।

एनसीपी नेता वंसत पवार निफाड में वाइन फैक्ट्री चलाते हैं तो राच्य के पूर्व गृह मंत्री और अभी के गृहमंत्री यानी आरआर पाटील और जयंत पाटील दोनों सागली में वाइन फैक्ट्री खोल रहे हैं। और तो और कृर्षि मंत्री शरद पवार भी बारामती में वाइन फैक्ट्री खोलने की दिशा में कदम उठा चुके हैं।

[लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं]


दैनिक जागरण, २३ सितंबर, २००९
 

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