Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | अदालत बनाम हुकूमत की नौबत! - संतोष कुमार

अदालत बनाम हुकूमत की नौबत! - संतोष कुमार

Share this article Share this article
published Published on Nov 7, 2015   modified Modified on Nov 7, 2015
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) कानून को असंवैधानिक ठहराने के सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद से ही इस पर सरकार और न्यायपालिका के बीच ठनी हुई है। सर्वोच्च अदालत कॉलेजियम प्रणाली पर अडिग है, अलबत्ता उसने इसमें सुधार के लिए लोगों से सुझाव जरूर मांगे हैं। सरकार भी इस मत पर कायम है कि एनजेएसी को असंवैधानिक ठहराने का फैसला संसदीय संप्रभुता को झटका है।

वर्ष 1788 में प्रकाशित 'फेडरलिस्ट नं. 51" में जेम्स मैडिसन ने कहा था कि 'सर्वोच्च कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, तीनों में ही नियुक्ति का आधार एक ही होना चाहिए : जनभावना।" दु:खद है कि सर्वोच्च अदालत के हाल के फैसले में इसका पर्याप्त ध्यान नहीं रखा गया। न्यायाधीशों की नियुक्ति के अधिकार से देश की जनता या उनके प्रतिनिधियों को वंचित रखने के निर्णय के पीछे एक तर्क यह दिया गया कि सिविल सोसायटी के रूप में हम आज भी पूर्णत: विकसित नहीं हैं। सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश जस्टिस खेहर ने कहा कि भारत में सिविल सोसायटी का क्रमिक विकास अभी तक अपनी पूर्णता को अर्जित नहीं कर सका है। अभी देश में सिविल सोसायटी की जो स्थिति है, उसके मद्देनजर सर्वोच्च न्यायपालिका के लिए जजों के चयन और नियुक्ति में राजनीतिक कार्यपालिका का हस्तक्षेप बहुत उचित नहीं कहा जा सकता।

न्यायपालिका द्वारा ये तर्क भी दिए गए कि कार्यपालिका पर भी अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता और वह देश पर आपातकाल थोपने में सक्षम है। हालांकि इस दलील का यह कहकर प्रतिवाद भी किया गया कि आपातकाल के दौरान भी हाईकोर्ट जजों के तबादले भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश की सहमति से ही किए गए थे। कॉलेजियम प्रणाली के पक्ष में यह तर्क तक दिया गया कि यदि राजनीतिक कार्यपालिका को जजों की नियुक्ति करने का अधिकार दिया गया तो इस तरह नियुक्त किए गए जज कार्यपालिका के हित में निर्णय देंगे। इस तरह का तर्क देना तो सर्वोच्च न्यायपालिका के जजों की निष्ठा में संदेह व्यक्त करना ही है।

सर्वोच्च न्यायपालिका के तर्कों का लब्बो-लुआब यह था कि चूंकि हमारे देश की सामाजिक चेतना आज भी पूर्ण विकसित नहीं है, लिहाजा जज स्वयं की नियुक्ति के अधिकार को अपने पास ही रखें, उसमें किसी और का हस्तक्षेप स्वीकार न करें। मुझे लगता है कि कुछ-कुछ इसी तरह का तर्क सौ से भी अधिक साल पहले अंग्रेजों ने भी दिया था। उन्होंने कहा था कि चूंकि भारतीय अपना राजकाज स्वयं संभालने में अभी सक्षम नहीं हैं, लिहाजा उन्हें ब्रिटिश राज के ही अधीन रहना चाहिए! क्या न्यायपालिका द्वारा इस तरह का रुख अख्तियार करना लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अवमानना नहीं है?

ऐसा राजशाही में होता था कि सम्राट अपने उत्तराधिकारियों को मनोनीत करते थे। दुनिया के अधिकांश देशों से राजशाही का तो उन्मूलन हो गया, लेकिन ऐसा लगता है कि केवल न्यायपालिका का ही क्षेत्र ऐसा है, जिसे आज भी उत्तराधिकारियों के मनोनयन का विशेषाधिकार प्राप्त है। शेष सभी क्षेत्रों में आज नियुक्ति की प्रक्रिया ही प्रभावी है। लगभग हर दूसरी उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आज जजों की नियुक्ति कार्यपालिका या एक ऐसे समूह द्वारा की जाती है, जिसके सदस्यगण न्यायपालिका से पृथक हों। यही प्रणाली उचित भी है।

भारतीय संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायपालिका में नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका को ही दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के अनुसार कार्यपालिका सर्वोच्च अदालत और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श के बाद जजों की नियुक्ति कर सकती है। सर्वोच्च अदालत ने अपने दो निर्णयों के द्वारा संविधान में वर्णित इन प्रावधानों को उलटकर रख दिया और न्यायिक नियुक्तियों के अधिकार को पूरी तरह सर्वोच्च अदालत के चार-पांच शीर्ष न्यायाधीशों में केंद्रित कर दिया था, जबकि नियुक्ति में विधायिका, कार्यपालिका, अधिवक्ताओं, विधिवेत्ताओं आदि का भी दखल होना चाहिए। कॉलेजियम प्रणाली में तो यह स्थिति है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई अन्य जज भी चयन प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

कॉलेजियम प्रणाली के पक्ष में जो तर्क दिया जाता है, वह है न्यायपालिका की स्वतंत्रता। इसमें किसी को कोई ऐतराज नहीं हो सकता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि जजों की नियुक्ति स्वयं जज ही करेंगे। स्वतंत्रता कोई अमूर्त अवधारणा नहीं होती और न ही यह आपको अनियंत्रित अधिकार देती है। वर्ष 2014 में एक संवैधानिक संशोधन के मार्फत जब एनजेएसी की स्थापना की गई थी तो उसकी भावना यही थी। यह कानून लगभग सर्वसम्मति से पारित हुआ था। उसमें पचास प्रतिशत सदस्य सुप्रीम कोर्ट के जज थे, तो शेष में अन्य क्षेत्रों और वर्गों के प्रतिनिधि थे। लेकिन आज फिर ढाक के वही तीन पात वाली स्थिति बन गई है।

-लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्‍ता हैं।

 


- See more at: http://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-situation-of-court-vs-govt-548808#sthash.CvXWKpss.dpuf


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close