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न्यूज क्लिपिंग्स् | अनरियल एस्टेट- हिमांशु शेखर(तहलका)

अनरियल एस्टेट- हिमांशु शेखर(तहलका)

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published Published on Sep 2, 2011   modified Modified on Sep 2, 2011
उत्तर प्रदेश के बिजनौर के रहने वाले विकास चौहान जब करीब एक दशक पहले दिल्ली आए तो उनके कई सपनों में से एक यह भी था कि देश की राजधानी में उनका एक अपना आशियाना हो. नौकरी मिली और आमदनी बढ़ने लगी तो उन्होंने अपने इस सपने को पूरा करने की कोशिश शुरू कर दी. प्रॉपर्टी की बढ़ती कीमतों की वजह से दिल्ली में तो कोई मकान उन्हें अपने बजट के अनुकूल नहीं दिखा लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शुमार नोएडा में उन्हें अपने बजट का एक मकान जंच गया.

यहीं से चौहान की आपबीती का वह हिस्सा शुरू होता है जिसका ताल्लुक उनके जैसे दूसरे लाखों लोगों की पीड़ा से भी जुड़ता है. दरअसल भारतीय रियल एस्टेट सेक्टर का स्वास्थ्य काफी समय से ठीक नहीं चल रहा है. इस स्थिति का सबसे ज्यादा नुकसान उस आम आदमी को हो रहा है जो अपनी गाढ़ी कमाई से अपनी जिंदगी का सपना पूरा करना चाहता है.

चौहान की कहानी थोड़ी लंबी जरूर है मगर इसमें रियल एस्टेट सेक्टर में मौजूद कई समस्याओं के दर्शन हो जाते हैं. चौहान ने 2008 में नोएडा के सेक्टर-49 में एक बिल्डर द्वारा बनाए जा रहे अपार्टमेंट में एक फ्लैट बुक कराया. हरेराम सिंह नाम के इस बिल्डर ने उनसे कहा कि महीने भर में उन्हें अपने सपनों के घर की चाबी मिल जाएगी. कुल 17.21 लाख रुपये कीमत के इस फ्लैट के लिए चौहान ने बिल्डर को 2.5 लाख रुपये चुका दिए. इससे पहले बिल्डर ने उस इलाके के दो बैंकों के मैनेजरों से चौहान को यह भरोसा दिलवाया था कि उन्हें मकान खरीदने के लिए बैंक से कर्ज भी मिल जाएगा.

पर 2.5 लाख रुपये चुकाने के बाद स्थितियां अचानक चौहान के प्रतिकूल हो गईं. जिस क्षेत्र को बिक्री से पहले बिल्डर और बैंक अधिकृत कह रहे थे वह अचानक अनधिकृत हो गया. बैंक ने कर्ज देने से मना कर दिया और बिल्डर ने पहले से दिया पैसा लौटाने से. बकौल चौहान बिल्डर ने कहा कि वह तो मकान देने को तैयार ही है लेकिन अगर बैंक उन्हें कर्ज नहीं दे रहा तो इसमें वह क्या कर सकता है. चौहान का आरोप है कि बिल्डर और बैंक मैनेजर ने सांठ-गांठ करके उनसे पैसे ठगने का खेल खेला. इसके बाद चौहान ने सेक्टर-49 के थाने में शिकायत दर्ज कराई जिसके बाद बिल्डर ने उन्हें 2.5 लाख का एक चेक दिया. चौहान को लगा बला टली. पर हुआ उलटा. चेक बाउंस हो गया. काफी कहा-सुनी के बाद बिल्डर ने पांच हजार-दस हजार करके चौहान को डेढ़ लाख रुपये लौटाए लेकिन अब भी उनके एक लाख रुपये बिल्डर के पास फंसे हुए हैं. उनके मुताबिक पुलिस भी इस मामले में उनकी कोई मदद नहीं कर रही.

जिस क्षेत्र को बिक्री से पहले बिल्डर और बैंक अधिकृत कह रहे थे, वह पैसा चुकाने के बाद बैंक की नजर में अचानक अनधिकृत हो गयाअपने घर का सपना पूरा करने के लिए चौहान ने एक बार फिर 2010 में नोएडा एक्सटेंशन में आम्रपाली समूह की परियोजना में फ्लैट बुक कराया. पुरानी कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है. चौहान ने भी सावधानी बरती. 'मैंने सोचा कि पिछली बार अनजान और छोटे बिल्डर से फ्लैट लेने की वजह से मुझे परेशानी उठानी पड़ी इसलिए इस बार नामी कंपनी की परियोजना में मकान बुक कराता हूं', चौहान कहते हैं. मकान बुक कराते समय कंपनी ने कहा था कि उन्हें 30 महीने में अपने फ्लैट की चाबी मिल जाएगी. पर बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उस जमीन का आवंटन रद्द कर दिया जिसमें आम्रपाली अपनी रिहायशी परियोजना विकसित कर रही थी. इसके बाद कंपनी ने पूरी परियोजना को नोएडा एक्सटेंशन में ही विकसित की जा रही एक अन्य परियोजना में शिफ्ट कर दिया. उनसे एक बार फिर कहा गया कि अगले 30 महीने में उन्हें अपना मकान मिल जाएगा. हालांकि, इस परियोजना की जमीन भी अब विवादित हो चुकी है और मामला एक बार फिर से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में है. अब इसकी सुनवाई 17 अगस्त को होनी है.

मूलतः बिहार की राजधानी पटना के पास खगौल के रहने वाले और नोएडा में काम करने वाले रवि कुमार सिंह ने भी इसी परियोजना में फ्लैट बुक कराया था. अदालत का फैसला आने से पहले तहलका से उनका कहना था कि परियोजना शिफ्ट करने की वजह से उन्हें अपने फ्लैट की चाबी मिलने में एक साल की अतिरिक्त देरी होगी. उनका कहना था कि नोएडा सेक्टर-37 मेट्रो स्टेशन से पुरानी परियोजना की दूरी काफी कम थी लेकिन नयी परियोजना की दूरी ज्यादा है जिस वजह से उन्हें आने-जाने में खासी असुविधा का सामना करना पड़ेगा. मगर अब जैसा कि ऊपर लिखा है इस नयी परियोजना का क्या होगा इस बारे में भी कुछ कह पाना मुश्किल है.  

एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले अभिषेक जोशी ने 2006 में जयपुर की वाटिका इन्फोटेक सिटी परियोजना में एक प्लॉट 18 लाख रुपये में बुक कराया था. कंपनी ने यह परियोजना 2003 में शुरू की थी. जब जोशी इस परियोजना में बुकिंग करा रहे थे तो कंपनी ने उन्हें बताया कि उनका एचडीएफसी बैंक के साथ गठजोड़ है और इस वजह से उन्हें आसानी से कर्ज मिल जाएगा. कंपनी की बातों में आकर जोशी ने बतौर बुकिंग अमाउंट कुल रकम का 15 फीसदी हिस्सा जमा कर दिया. इसके बाद जब वे कर्ज लेने के लिए एचडीएफसी बैंक पहुंचे तो उन्हें यह कहते हुए कर्ज देने से मना कर दिया गया कि इस परियोजना को अभी अंतिम मंजूरी नहीं मिली है. इसके बाद जब जोशी ने कंपनी से संपर्क साधा तो  जवाब मिला कि बाकी की रकम अभी मत चुकाइए और जल्द ही बैंक से आपको कर्ज मिल जाएगा. 2008 में उन्हें कंपनी ने शेष रकम चुकाने के लिए लिखा और यह बताया कि अब बैंक कर्ज देने लगे हैं. पर एचडीएफसी ने पुरानी वजह को दोहराते हुए कर्ज देने से फिर मना कर दिया.

इसके बाद जोशी को कहा गया कि इस परियोजना के लिए एलआईसी से समझौता किया गया है और वहां से कर्ज लिया जा सकता है. इसके बाद जोशी को अन्य बैंकों की तुलना में ऊंची ब्याज दर पर एलआईसी से कर्ज लेना पड़ा. उस समय से जोशी तकरीबन 17,000 रुपये की मासिक किस्त भर रहे हैं. कंपनी ने उनसे वादा किया था कि उन्हें उनका प्लॉट बुकिंग के तीन साल के भीतर यानी 2009 में मिल जाएगा. पर बुकिंग के पांच साल बाद भी उन्हें अपना प्लॉट नहीं मिला है. जब भी वे कंपनी के अधिकारियों से इस बारे में बात करते हैं तो कहा जाता है कि बस छह महीने के अंदर प्लॉट मिल जाएगा. कंपनी के रवैये से तंग जोशी कहते हैं, 'कुछ दिन और इंतजार कर लेता हूं. उसके बाद भी प्लॉट नहीं मिला तो फिर इस रियल एस्टेट कंपनी से आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी.'

चौहान, सिंह और जोशी की आपबीती से रियल स्टेट सेक्टर की जो तस्वीर बनती है वह चिंता में डालने वाली है. इस तस्वीर के तीन अहम हिस्से हैं. एक उपभोक्ता यानी आम आदमी, दूसरा सेवा प्रदाता यानी बिल्डर और तीसरा यह सेवा ठीक से चले, इसके लिए एक उचित व्यवस्था बनाने वाली सरकार. कायदे से व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि उपभोक्ता को उचित मूल्य पर अच्छी सेवा मिले. उसके साथ वह न हो जो चौहान, सिंह या जोशी के साथ हुआ. हाल ही में एक प्रमुख समाचार समूह द्वारा करवाए गए सर्वे में 97 फीसदी लोगों का मानना था कि भारतीय रियल एस्टेट सेक्टर में पारदर्शिता का अभाव है जिसके चलते बहुत-से सवालों का ठीक-ठीक जवाब ही नहीं मिल पाता. इसकी सबसे ज्यादा मार आम आदमी पर पड़ रही है. सरकार द्वारा इस क्षेत्र के लिए अभी तक कोई नियामक इकाई नहीं बनाई गई है. इसका नतीजा यह है कि उपभोक्ता को यदि बिल्डर से कोई परेशानी हो तो उसके पास करने के लिए कुछ खास नहीं होता.

कोई नियामक नहीं होने की वजह से उपभोक्ता को यदि बिल्डर से कोई परेशानी हो तो उसके पास करने के लिए कुछ खास नहीं होतासमस्याओं को एक-एक करके समझते हैं. अपना आशियाना लेने की चाह रखने वाला कोई शख्स जब इसकी राह में पहला कदम बढ़ाता है तो वह पाता है कि फ्लैटों की कीमतें न सिर्फ आसमान छू रही हैं बल्कि हर गुजरते दिन के साथ उनमें असाधारण रूप से तेजी आ रही है. इंटरनेशनल रिसर्च जनरल ऑफ फायनांस एेंड इकोनॉमिक्स में कुछ समय पहले छपे एक अध्ययन के मुताबिक उत्तर प्रदेश के नोएडा में 2004 में जिस संपत्ति की कीमत 2000 रु प्रति वर्ग फुट थी वह 2008 में बढ़कर करीब 6,850 रु प्रति वर्ग फुट हो गई. यानी चार साल में तीन गुने से ज्यादा बढ़ोतरी.

अर्थशास्त्र का सामान्य सा नियम बताता है कि किसी उत्पाद की कीमत का लेना-देना उसकी मांग और आपूर्ति से होता है. मगर अपने यहां रियल एस्टेट क्षेत्र में यह फाॅर्मूला काम नहीं करता. प्रॉपर्टी कंसल्टेंट जोंस लांग लासाले के एक अध्ययन के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रियल एस्टेट कंपनियों ने जितने फ्लैट बनाए हैं उनमें से 16 फीसदी खाली पड़े हैं. वहीं मुंबई के 25 फीसदी, पुणे के 19 फीसदी और कोलकाता के 12 फीसदी तैयार मकानों को खरीददारों का इंतजार है. साफ है कि इस क्षेत्र में आपूर्ति तो पर्याप्त है लेकिन मांग उतनी नहीं है. इसके बावजूद प्रॉपर्टी की कीमतें बढ़ रही हैं.

एक प्रमुख रियल एस्टेट कंपनी के एक अधिकारी इस क्षेत्र में कीमत बढ़ाने के खेल को समझाते हुए कहते हैं, 'कीमतों में बढ़ोतरी के दो आधार हैं. पहला आधार है अटकलबाजी. इसमें बड़े बिल्डरों का समूह शामिल है. यह समूह अपनी अटकलबाजी को हवा देने के लिए सकारात्मक खबरें प्लांट करता है. कुछ अखबारों में खबरें प्रकाशित होने लगती हैं कि आने वाले दिनों में प्रॉपर्टी की कीमतों में बढ़ोतरी होने वाली है. कुछ छोटे प्रॉपर्टी कंसल्टेंट्स से भी इस बात को मजबूती देने के लिए कोई सर्वे रिपोर्ट जारी करवा दी जाती है.'

कीमतों में बढ़ोतरी का दूसरा खेल बिल्डरों और डीलरों का गठजोड़ मिलकर करता है. जैसा कि ये अधिकारी हमें बताते हैं, 'मान लें कि किसी परियोजना में 2000 फ्लैट हैं. कंपनी पहले चरण में 500 फ्लैट बुकिंग के लिए खोलती है. मान लें कि इसमें से 450 एक ही डीलर 2000 रुपये प्रति वर्ग फुट की दर पर खरीद लेता है. इसके बाद वह अपनी मर्जी से कीमतों में बढ़ोतरी करता है. पर ज्यादातर मामलों में लिखा-पढ़ी में सौदा 2000 रुपये पर ही होता है. जो अतिरिक्त पैसा आता है वह काले धन में बदल जाता है. अब कंपनी फिर अगले चरण में 500 फ्लैट बुकिंग के लिए खोलेगी और फिर यही खेल दोहराया जाएगा लेकिन हर बार प्रॉपर्टी की दर में 10 से 15 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी. इसी तरह से ये खेल तब तक चलेगा जब तक सारे फ्लैट बिक न जाएं.'

सरपट भागती कीमतों के बावजूद अगर आदमी जमीन-आसमान एक करके कुछ पैसा जुटा ले या बैंक से लोन का इंतजाम कर ले तो भी यह गारंटी नहीं कि उसे तय समय पर अपने फ्लैट की चाबी मिल जाएगी. दरअसल परियोजनाओं का समय पर पूरा न होना भी  एक बड़ी समस्या है. इस क्षेत्र में काम कर रही रिसर्च फर्म प्रॉपइक्विटी के मुताबिक देश में इस समय करीब नौ लाख 30 हजार आवासीय इकाइयां निर्माणाधीन हैं जिनके 2011 से 2013 के बीच पूरा होने का वादा किया गया है. लेकिन इसकी काफी संभावना है कि इनमें से आधी इकाइयों का निर्माण पूरा होने में 18 महीने तक की देरी हो जाए.

जानकारों के मुताबिक बिल्डरों द्वारा लालच में अपनी वित्तीय क्षमता से बड़े प्रोजेक्ट लांच कर देना, निर्माण की बढ़ती लागत, मजदूरों की कमी और वित्तीय स्रोतों का सूखा इसके मुख्य कारण हैं. हाल में नोएडा एक्सटेंशन मामले में अदालत द्वारा भूमि अधिग्रहण रद्द कर देने के बाद इसमें एक पहलू अदालती फैसलों का भी जुड़ गया है. हालांकि आम्रपाली समूह के चेयरमैन अनिल कुमार शर्मा तहलका से बातचीत में कहते हैं, 'हमारी जिस परियोजना को शिफ्ट किया गया है उसके ग्राहकों को हमने पहले से भी कह रखा था कि अगर किसी वजह से इस परियोजना में कोई अड़चन आती है तो हम आपको बेहतर परियोजना में शिफ्ट कर देंगे. पहले से तय था कि इसके लिए ग्राहकों पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डाला जाएगा.

जिस दस्तावेज पर फ्लैट खरीदते वक्त ग्राहक और बिल्डर दस्तखत करते हैं वह बिल्डर पूरी तरह से अपने हितों को ध्यान में रखकर तैयार करते हैंशर्मा के इस तर्क के बावजूद देरी से ग्राहकों को होने वाली परेशानी की बात तो अपनी जगह है ही. बिल्डरों के नजरिए से देखें तो उनका तर्क है कि मार उन पर भी पड़ रही है. यह बात एक हद तक सही भी लगती है. जानकार बताते हैं कि निर्माण की बढ़ती लागत, मजदूरों की कमी और फंड की किल्लत से उनके सामने भी मुश्किलें खड़ी हैं. पैसा जुटाने के उनके पास मुख्य रूप से तीन तरीके होते हैं. ग्राहकों से आने वाला पैसा, बैंक से मिलने वाला उधार और बाजार से जुटाई गई पूंजी. तीनों ही मोर्चों पर स्थिति खराब है. ग्राहक पास नहीं आ रहे, वित्तीय हालत को देखकर बैंक लोन नहीं दे रहे और बाजार का हाल तो यह है कि पिछले साल नवंबर से अब तक मुंबई शेयर बाजार के सूचकांक सेंसेक्स में अगर 13.7 फीसदी गिरावट आई है तो उसी बाजार का रियल्टी इंडेक्स 47 फीसदी फिसला है. इसके अलावा जानकार बताते हैं कि 2009 से 2011 के बीच स्टील, सीमेंट जैसी निर्माण सामग्री की कीमतों में भी 25 फीसदी का उछाल आया है. यानी काम पूरा करने के लिए पहले से ज्यादा पैसा चाहिए लेकिन उसके आने के रास्ते बंद हैं. बिल्डरों का तर्क है कि इसी वजह से प्रोजेक्टों के पूरा होने में देर हो रही है.

लेकिन वजह जो भी हो, इस देरी से चौहान और सिंह जैसे न जाने कितने लोग बेहाल हैं जिन्हें तय वक्त पर मकान तो नहीं मिलने वाला, मगर इसके लिए उन्होंने जो कर्ज लिया था उसकी ब्याज दरें पिछले कुछ समय में कई बार बढ़ चुकी हैं. नतीजतन ऐसे लोगों पर कर्ज की बढ़ती मासिक किस्त की मार भी पड़ रही है.

एक और मसला धोखाधड़ी का भी है. लेकिन कोई नियामक नहीं है इस वजह से धोखा खाने वाले लोगों के सामने कहीं शिकायत दर्ज कराकर न्याय पाने का विकल्प भी नहीं है. हालांकि, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बिल्डरों के शोषण से त्रस्त होकर इनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं.

दिल्ली से सटे गाजियाबाद के राज नगर एक्सटेंशन में भी कई छोटी-बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां अपनी रिहायशी परियोजनाएं विकसित कर रही हैं. इन्हीं कंपनियों में से एक है श्रेया डेवलपवेल प्राइवेट लिमिटेड. इस कंपनी ने हिंडन हाइट्स के नाम से यहां एक परियोजना विकसित करने की घोषणा 2006 की शुरुआत में की थी. बाद में जब इस कंपनी ने अपने ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी शुरू की तो इस परियोजना में फ्लैट बुक कराने वालों ने एक संगठन बनाकर बिल्डर के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. संगठन का नाम है हिंडन हाइट्स फ्लैट अलॉटीज एसोसिएशन.

नोएडा की एक निजी कंपनी में काम करने वाले सुनील रस्तोगी ने भी इस परियोजना में एक फ्लैट बुक कराया था. बकौल रस्तोगी कंपनी ने यह वादा किया था कि बुकिंग के 18 महीने के अंदर उन्हें फ्लैट दे दिए जाएंगे लेकिन अब तक इस परियोजना पर कोई प्रगति नहीं हुई है. एसोसिएशन के सचिव पीसी गोयल थोड़ा विस्तार से बताते हुए कहते हैं, 'कंपनी ने कुल 445 फ्लैट बेचे और वादा किया कि 2008 के दिसंबर तक ग्राहकों को उनके फ्लैट की चाबी सौंप दी जाएगी. पर ऐसा हुआ नहीं और वक्त निकलता गया.'

गोयल का कहना है कि ऐसा लग रहा था जैसे कंपनी की माली हालत खराब हो गई हो. उन्होंने बताया कि हमारी इस आशंका की पुष्टि तब हो गई जब यह पता चला कि कंपनी ने एक ही जमीन दो बैंकों के पास गिरवी रख दी है. कंपनी ने जीआईसी हाउसिंग फायनांस के पास 17 करोड़ रुपये के एवज में जमीन गिरवी रखी थी और पीएनबी हाउसिंग फायनांस से भी इसी जमीन को गिरवी रख 16 करोड़ रुपये लिए थे. ऐसा तभी हो सकता है जब बिल्डर और बैंक अधिकारियों की आपसी सांठ-गांठ हो. आम तौर पर बैंक कोई भी कर्ज देने से पहले संबंधित प्रॉपर्टी के कानूनों पहलुओं की जांच कराते हैं. इसके बावजूद अगर एक ही प्रॉपर्टी पर दो बैंक कर्ज दे रहे हैं तो इससे बैंकों की कार्यप्रणाली और इन बैंकों के प्रबंधकों की नीयत पर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है. गोयल का आरोप यह भी है कि कंपनी ने 800 लोगों से भूखंड देने के नाम पर भी प्रति व्यक्ति 6 से 6.5 लाख रुपये वसूले पर अब तक किसी को कुछ नहीं मिला.

अब ऐसे मामलों में शिकायत के बाद कार्रवाई का जो ढर्रा होता है वह भी एक बड़ी मुश्किल है. जैसा कि गोयल बताते हैं, 'जब बिल्डर ने काम रोक दिया और हमारी लगातार कोशिशों के बावजूद ठोस तौर पर हमें कुछ नहीं बताया तो हमने राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग का दरवाजा खटखटाया. दो साल आयोग में शिकायत दर्ज कराए हुए हो गए लेकिन इतने लोगों को अब तक न्याय मिलने की बात तो दूर अंतरिम राहत भी नहीं मिली.' हालांकि, गाजियाबाद की एक अदालत ने इस मामले में कंपनी के तीन निदेशकों राजीव गुप्ता, मनोज कुमार शर्मा और अनुज सरीन के खिलाफ वारंट जारी कर दिया था. लेकिन ये लोग इलाहाबाद उच्च न्यायालय से इस वारंट के खिलाफ स्टे ऑर्डर ले आए.

एसोसिएशन ने कंपनी के खिलाफ दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा में भी शिकायत दर्ज कराई पर गोयल कहते हैं कि अब तक इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई. इस बीच एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को भी पत्र लिखकर बिल्डर के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है. जब 'तहलका' ने इन आरोपों पर कंपनी की राय जानने की कोशिश की तो कंपनी का कोई भी अधिकारी जवाब देने को तैयार नहीं हुआ.

वैसे कई और भी चीजें हैं जिनके चलते मकान बुक कराने वाला एक आम ग्राहक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है. इसकी व्यवस्था उसी दस्तावेज के जरिए हो जाती है जिस पर फ्लैट खरीदते वक्त ग्राहक और बिल्डर दस्तखत करते हैं. यह दस्तावेज बिल्डर पूरी तरह से अपने हितों को ध्यान में रखकर तैयार करते हैं. नोएडा में रिहायशी परियोजना विकसित कर रही एक कंपनी के बिक्री एग्रीमेंट से यह पता चला कि अगर कोई ग्राहक तय समय पर पैसा चुकाने में देर करेगा तो कंपनी उससे 18 फीसदी सालाना की दर से ब्याज वसूलेगी और अगर इसमें वह तीन महीने की देरी करता है तो उसके मकान का आवंटन रद्द हो जाएगा. जबकि अगर बिल्डर फ्लैट की चाबी देने में देरी करता है तो उसे छह महीने का अतिरिक्त समय मिलेगा और इसके बाद भी यदि वह फ्लैट नहीं सौंपता तो महज पांच रुपये प्रति माह प्रति वर्ग फुट की दर से ग्राहक को मुआवजा देगा.

अब ज्यादातर लोग बैंक से कर्ज लेकर ही मकान खरीदते हैं. मान लेते हैं कि किसी ने 3000 रुपये प्रति वर्ग फुट पर अपने मकान को खरीदा है और 12 फीसदी प्रति वर्ष की दर से बैंक से कर्ज लिया है. तो मकान मिलने में छह महीने से ज्यादा देरी होने पर बिल्डर तो उसे सिर्फ 5 रुपये प्रति वर्ग फुट प्रति माह दे रहा होगा मगर वह व्यक्ति बैंक को करीब 25 रुपये प्रति वर्ग फुट प्रति माह चुका रहा होगा. मकान मिलने में होने वाली देरी से उसे जो असुविधा होगी सो अलग. मगर बिल्डर ऐसा न कर सके ऐसा कोई नियम-कानून है ही नहीं. ग्राहक पहले ही बुकिंग की रकम बिल्डर को देकर फंस चुका होता है, इसलिए उसके पास किसी भी करार पर दस्तखत करने के सिवा कोई और चारा नहीं होता.

ग्राहकों को बेवकूफ बनाने के लिए कंपनियां और भी कई तिकड़म कर रही हैं. देश की प्रमुख आईटी कंपनी विप्रो के अमेरिकी कार्यालय में काम करने वाले सॉफ्टवेयर इंजीनियर चंद्रप्रकाश सिंह ने नोएडा के सेक्टर-70 में पैन ओएसिस की परियोजना में 39.10 लाख रुपये में फ्लैट बुक कराया था. उस वक्त उनसे बरामदे के नाम पर बिल्डर ने 2.25 लाख रुपये वसूल लिए. पर बाद में उन्हें पता चला कि कंपनी ने जो जगह बरामदे के नाम पर बेची है वह तो आग लगने की हालत में निकासी के लिए छोड़ी गई जगह थी. कानूनन यह जगह बिल्डर को छोड़नी ही पड़ती है. पर कंपनी ने सिंह को यह सच्चाई नहीं बताई. सिंह बताते हैं कि इस तरह से कंपनी ने 66 लोगों को बेवकूफ बनाया. परेशान सिंह ने नोएडा प्राधिकरण में इसकी शिकायत भी की लेकिन हुआ कुछ नहीं.

मुंबई रियल एस्टेट कारोबार का एक बड़ा बाजार है. देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां भी संबंधित प्राधिकरणों की मदद से बिल्डरों की मनमर्जी चल रही है. मुंबई में एक रियल एस्टेट कंपनी है आरएनए. इसने कुछ साल पहले ओशीवाड़ा के सोमानी ग्राम में आरएनए एक्जोटिका के नाम से एक परियोजना शुरू की. कंपनी ने जब बुकिंग शुरू की तो अपनी वेबसाइट पर यह जानकारी दी कि इस परियोजना में पार्किंग के लिए 12 मंजिलें होंगी, 2 मंजिलों पर स्वीमिंग पूल होगा और रहने के लिए 36 मंजिलें तैयार की जाएंगी. मुंबई में ऐसी किसी भी रिहायशी परियोजना के लिए मुंबई महानगर क्षेत्रीय विकास निगम (एमएमआरडीए) की मंजूरी जरूरी होती है. एमएमआरडीए ने आरएनए को ग्राउंड फ्लोर के अलावा पार्किंग के लिए दो मंजिल और रहने के लिए 14 और मंजिल की ही अनुमति दी थी. कंपनी को मिली मंजूरी से संबंधित जानकारी आरटीआई कार्यकर्ता सुलेमान भिमानी ने सूचना के अधिकार के तहत जुटाई. भिमानी कहते हैं कि इससे साफ हो जाता है कि किस तरह से कंपनी एमएमआरडीए से मिली मंजूरी का उल्लंघन कर रही थी. भिमानी बताते हैं, 'हमें मंजूरी के जो दस्तावेज मिले उनमें से ज्यादातर पर कोई तारीख ही नहीं थी. इससे साफ है कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि दस्तावेजों के साथ कभी भी छेड़छाड़ की जा सके'

कंपनी को जो जमीन मिली थी उस पर पहले से रहने वाले लोग आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए थे. इनका पुनर्वास कंपनी को कराना था. कंपनी ने इसके लिए जो मकान बनाए उनमें कई तरह की खामियां हैं और बुनियादी सुविधाओं का भी टोटा है. इस आधार पर कंपनी पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगा. भिमानी कहते हैं कि इस शिकायत को आधार बनाकर ही इस परियोजना पर निर्माण कार्य रोकने का आदेश जारी हुआ. अभी यह मामला महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग के पास है. भिमानी बताते हैं कि अन्य एजेंसियों के पास दर्ज शिकायतों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है. जिन लोगों ने इस परियोजना में फ्लैट बुक कराए थे वे अब हैरान-परेशान घूम रहे हैं.

रियल एस्टेट क्षेत्र के जानकारों की मानें तो इस क्षेत्र में बिल्डरों की मनमर्जी इसलिए भी है कि यहां किसी परियोजना के पहले से आखिरी चरण तक भ्रष्टाचार और घूसखोरी का बोलबाला है. एक बिल्डर बताते हैं कि अगर किसी प्रस्तावित परियोजना की जमीन की कीमत 20 करोड़ रुपये हो तो इतना ही पैसा घूस में भी जाता है. इस बिल्डर के मुताबिक नोएडा में यह पैसा एक ही जगह देना होता है. फिर वहां से लेकर लखनऊ तक इसकी बंदरबांट होती है. बिल्डर की मानें तो सत्ता में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों से लेकर प्राधिकरण के अधिकारियों के बीच यह पैसा बंटता है. घूसखोरी की इस प्रवृत्ति की पुष्टि करते हुए एक नामी रियल एस्टेट कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, 'जब भी उत्तर प्रदेश में सत्ता बदलती है तो नोएडा विकास प्राधिकरण में भी वरिष्ठ अधिकारी बदल जाते हैं.' इस अधिकारी का यह दावा भी है कि पूरे देश में ही यह घूसखोरी चल रही है. कहीं कम है तो कहीं ज्यादा. हरियाणा का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि इस राज्य में घूस की रकम प्रति एकड़ के हिसाब से तय होती है. इसमें सबसे ज्यादा दर गुड़गांव की है. ये अधिकारी यह भी बताते हैं कि राज्य की हर परियोजना को अंतिम मंजूरी मुख्यमंत्री कार्यालय से ही मिलती है.

हरियाणा के कुछ शहरों में रिहायशी परियोजना विकसित करने वाले एक बिल्डर हरियाणा में संस्थागत घूसखोरी के बारे में विस्तार से बताते हैं. चूंकि हरियाणा में बिल्डर सीधे किसानों से जमीन खरीद सकते हैं, इसलिए वे यहां एकमुश्त खेती की जमीन खरीद लेते हैं. जब मास्टर प्लान बनने की कवायद शुरू होती है तो ये बिल्डर इस जमीन को रिहायशी की श्रेणी में डलवाने के लिए भागदौड़ शुरू करते हैं. लैंड यूज बदलते ही जमीन की कीमतें अचानक काफी बढ़ जाती हैं. लैंड यूज बदलवाने के लिए बिल्डरों को काफी पैसा खर्च करना पड़ता है. इसके बाद किसी भी परियोजना को संबंधित प्राधिकरण से मंजूरी दिलाने के लिए एक नक्शा तैयार करना पड़ता है. नक्शा तैयार करने का काम आर्किटेक्ट करते हैं. पर हर क्षेत्र के आर्किटेक्ट बंधे हुए हैं. ऐसा नहीं है कि कोई भी आर्किटेक्ट जाकर उस इलाके का नक्शा पास करा लेगा. जिस आर्किटेक्ट का जो इलाका है, उस इलाके का नक्शा वही पास कराएगा. आम तौर पर हर इलाके में चार से पांच आर्किटेक्ट होते हैं. इसके बाद फिर अन्य मंजूरियों के लिए प्राधिकरण का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और यहां बिल्डर को काफी पैसा घूस के तौर पर खर्च करना पड़ता है.

अब नियम-कायदों की बात. केंद्र सरकार रियल एस्टेट कंपनियों द्वारा चलाई जा रही मनमर्जी पर नकेल कसने की योजना बना रही है. अभी एक बड़ी हद तक हालत यह है कि कंपनियां अपनी मनमर्जी चला रही हैं और कोई नियामक नहीं होने की वजह से इन पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो पा रही है. सरकार की योजना मानसून सत्र में रियल एस्टेट नियमन विधेयक, 2011 संसद में पेश करने की है. विधेयक का मसौदा तैयार हो गया है. इस विधेयक को लाने की कोशिश 2007 से ही हो रही है. ऐसा ही एक विधेयक 2009 में संसद में पेश किया गया था, लेकिन उस वक्त इसे मंजूरी नहीं मिल सकी. मंत्रालय का दावा है कि इस मर्तबा जो मसौदा तैयार हुआ है उससे ग्राहकों के हितों का संरक्षण सुनिश्चित होगा. बिल्डरों के संगठन क्रेडाई (कन्फेडरेशन ऑफ रियल एस्टेट डेवलेपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया) के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अध्यक्ष पंकज बजाज इस बारे में कहते हैं, 'हम सरकार द्वारा इस विधेयक को लाए जाने का स्वागत करते हैं. इससे रियल एस्टेट क्षेत्र में पारदर्शिता बढ़ेगी जिससे ग्राहकों के साथ-साथ कंपनियों को भी फायदा होगा. हालांकि, हमारा मानना है कि इस विधेयक के कई मौजूदा प्रावधानों पर बातचीत करने की जरूरत है. कई प्रावधान इस उद्योग के लिए बेहद खतरनाक हैं.'

एक बड़ा सवाल काले धन का भी है. जानकारों के मुताबिक रियल एस्टेट क्षेत्र में काले धन का खेल कई तरह से होता है. इसमें सबसे पहला है किसी परियोजना में बड़े पैमाने पर काले धन का निवेश. कनॉट प्लेस में मुख्यालय वाली एक बड़ी रियल एस्टेट कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, 'यह एक भ्रम है कि छोटी कंपनियां काले पैसे का खेल करती हैं. दरअसल, इस खेल को तो बड़ी कंपनियां ही अंजाम देती हैं. सरकार ने यह नियम बना रखा है कि विदेशी निवेश हासिल करने वाली रियल एस्टेट कंपनी का टर्नओवर 100 करोड़ रुपये से कम नहीं होना चाहिए. नियमों के मुताबिक प्रवासी भारतीय कुछ शर्तों के साथ रियल एस्टेट क्षेत्र में 100 फीसदी तक निवेश कर सकते हैं. इसी प्रावधान का लाभ बड़ी-बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां उठाती हैं.' अधिकारी के मुताबिक माना कि किसी कंपनी की परियोजना में कुल निवेश 1,000 करोड़ रुपये का होना है जबकि कंपनी के पास सिर्फ 200 करोड़ रुपये हैं. ऐसे में यह कंपनी कुछ कर्ज जुटाती है. कुछ पैसा परियोजना को मंजूरी मिलने के बाद एकमुश्त बुकिंग से आता है. आम तौर पर हर बड़ी रिहायशी परियोजना विशेष के लिए रियल एस्टेट कंपनियां एक अलग कंपनी बना देती हैं. इसे स्पेशल परपज व्हीकल कहा जाता है. अब इस कंपनी में निवेश के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को तलाशा जाता है जिसके पास काला धन हो. अगर यह व्यक्ति निवेश के लिए राजी हो जाता है तो फिर फटाफट किसी कर पनाहगाह देश में किसी प्रवासी भारतीय के नाम से फर्जी कंपनी बनवाई जाती है.

इसके बाद भारत से काला धन उस फर्जी कंपनी के खाते में पहुंचता है और फिर वह कंपनी भारत की रियल एस्टेट कंपनी में विदेशी निवेश के नाम पर पैसा लगा देती है. इस अधिकारी की मानें तो भारत में यह काम मॉरीशस रूट से ज्यादा हो रहा है. इसे सबसे अधिक सुरक्षित भी माना जाता है. हालांकि, इस उद्योग के लोग औपचारिक तौर पर काले धन के मसले पर सीधे-सीधे जवाब देने से परहेज कर रहे हैं. पंकज बजाज कहते हैं, 'अगर काले धन का इस्तेमाल रियल एस्टेट क्षेत्र में हो रहा है तो संबंधित विभागों को कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए. मॉरीशस रूट से देश में बड़े पैमाने पर वैध तरीके से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है. हमें इन्फ्रास्ट्रक्चर और रियल एस्टेट क्षेत्र के तेज विकास के लिए विदेशी पूंजी चाहिए.'

बहरहाल, कई डीलर ऐसे भी हैं जो फ्लैट की पूरी कीमत को दो हिस्से में करने का प्रस्ताव भी दे रहे हैं. इनमें एक हिस्सा तो यह होता है जो कागजों में दर्ज होता है, जिसके आधार पर स्टांप शुल्क और अन्य कर वसूले जाते हैं. वहीं दूसरा हिस्सा वह है जिसकी कहीं कोई लिखा-पढ़ी नहीं होती है. नोएडा एक्सटेंशन में बहुत बड़ी रिहायशी परियोजना विकसित करने वाली देश की एक जानी-मानी रियल एस्टेट कंपनी के एक परियोजना अधिकारी बताते हैं कि इस तरह से फ्लैट बुक कराने वालों में नौकरशाह और कारोबारी प्रमुख हैं. ये अधिकारी सार्वजनिक क्षेत्र की एक बड़ी कंपनी के उतने ही बड़े अधिकारी का नाम लेकर बताते हैं कि उन्होंने हमारी परियोजना में इसी तरह से चार फ्लैट बुक कराए हैं.

यानी अ से लेकर ज्ञ तक सब गोलमाल है और इस गोलमाल में आम आदमी का क्या हाल है इसकी चिंता फिलहाल तो किसी को नहीं.

ऐसे बनती है फर्जी कंपनी

नयी दिल्ली में एक रियल एस्टेट कंपनी चलाने वाले और कई चीजों के आयात-निर्यात कारोबार में सक्रिय एक महोदय बताते हैं कि फर्जी कंपनी कैसे बनाई जाती है. ऐसी कंपनियां उन देशों में बनाई जाती हैं जिन्हें कर पनाहगाह यानी टैक्स हैवेन कहा जाता है. इस कारोबारी ने इस संवाददाता को बताया कि अगर आप कहें तो आपके नाम से 12 घंटे के अंदर एक कंपनी मॉरीशस में बनवा देता हूं. यह पूरा खेल इंटरनेट के जरिए चलता है.

कर पनाहगाहों के तौर पर कुख्यात देशों की कमाई का एक अहम जरिया काले धन को सफेद करने की सुविधा मुहैया कराना है. इसलिए इन देशों में कई ऐसी एजेंसियां सक्रिय हैं जो कुछ ही घंटों में फर्जी कंपनी बनवा देती हैं. इंटरनेट के जरिए आपको अपनी जानकारी देनी होगी और प्रस्तावित कंपनी का नाम बताना होगा. ऑनलाइन ही ये एजेंसियां अपना शुल्क भी वसूल लेती हैं. ये एजेंसियां फर्जी कंपनी बनवाने वालों को कई सुविधाएं देती हैं. कंपनी बनवाने के साथ-साथ ये बैंक खाता भी खुलवा देती हैं. इसके बाद भारत से काला धन सीधे उस खाते में पहुंचता है और फिर फर्जी कंपनी के जरिए विदेशी निवेश के नाम पर भारत की कंपनी में दोबारा आकर लग जाता है.

खेल छिपे शुल्क का

रियल एस्टेट कंपनियों द्वारा लोगों को सबसे ज्यादा बेवकूफ बनाने का जरिया है हिडेन चार्ज यानी छिपे हुए शुल्क. इसके तहत कई तरह के शुल्क लोगों से वसूले जा रहे हैं. आम तौर पर जब एक आदमी मकान खरीदने जाता है तो उसे डीलर यह बताते हैं कि प्रति वर्ग फुट प्रॉपर्टी की क्या कीमत है. अक्सर यह देखा जाता है कि डीलर छिपे हुए शुल्कों की बात भी छिपा जाते हैं. इन बातों का पता तब चलता है जब मकान के लिए पूरा पैसा चुकाने की बारी आती है या फिर बिक्री एग्रीमेंट पर दस्तखत करना होता है.

दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में रियल एस्टेट कंपनियां पार्किंग शुल्क के नाम पर लोगों से दो-ढाई लाख रुपये तक वसूल रही हैं. वहीं प्रिफरेंशियल लोकेशन यानी पसंद की जगह पाने के नाम पर बिल्डर काफी पैसे वसूल रहे हैं. अगर किसी को भूतल पर फ्लैट चाहिए तो उससे कंपनियां प्रॉपर्टी की कीमत का 7.5 फीसदी तक अतिरिक्त रकम वसूल रही हैं. वहीं टॉप फ्लोर वाले को छत मिलने की वजह से उससे 5 फीसदी अतिरिक्त रकम वसूली जा रही है. कई बिल्डर बिजली के मीटर और फिनिशिंग के लिए जरूरी अन्य छोटे-मोटे कामों के लिए भी पैसे वसूल रहे हैं. जबकि क्लब सदस्यता और अन्य कई तरह की सदस्यताओं के नाम पर भी बिल्डर पैसे वसूल रहे हैं. किसी भी रिहायशी परियोजना में घर लेने के बाद रखरखाव के लिए हर महीने चार से आठ हजार रुपये चुकाने पड़ते हैं. पर बहुत कम लोगों को पता है कि फ्लैट की चाबी सौंपने से पहले बिल्डर इसके लिए 50,000 रुपये से एक लाख रुपये का सिक्योरिटी डिपॉजिट भी ले रहे हैं.

‘क्रियान्वयन में ईमानदारी से सुलझेंगी समस्याएं’

नोएडा एक्सटेंशन में रिहायशी परियोजनाएं विकसित करने के लिए हुए जमीन अधिग्रहण पर पैदा हुआ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा. कुछ मामलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जमीन अधिग्रहण को अवैध ठहराया है और कुछ मामलों में किसानों की याचिका पर फैसला अभी टल गया है. अब अदालत की बड़ी पीठ इस मसले की सुनवाई 17 अगस्त को करेगी. अदालत ने प्राधिकरण, बिल्डरों और किसानों को 12 अगस्त तक का समय दिया है और कहा कि इस समय सीमा में आपस में समझौता कर सकते हैं तो कर लें. न्यायालय के मुताबिक जिन किसानों को मुआवजा लेना है वे 12 अगस्त तक ले सकते हैं. इस पूरे इलाके में तकरीबन एक लाख फ्लैट तैयार करने की योजना थी. बड़ी संख्या में फ्लैट बुक हो गए थे. खरीददारों की गाढ़ी कमाई इन परियोजनाओं में फंस गई है. उन्हें इसका ब्याज चुकाना पड़ रहा है. बिल्डर भी आर्थिक नुकसान का रोना रो रहे हैं.  किसानों के असंतोष की यह आग नोएडा में भी फैल चुकी है. इलाके के किसान अधिक मुआवजा, विकसित जमीन में हिस्सेदारी और आबादी की जगह को नियमित करने की मांग कर रहे हैं. कुछ किसानों का आरोप यह भी है कि उनसे उनकी जमीन जबरन ली गई थी. ऐसे में तमाम रिहायशी परियोजनाओं के भविष्य और अन्य संबंधित मामलों पर नोएडा विकास प्राधिकरण के नव नियुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी बलविंदर कुमार से  हिमांशु शेखर की बातचीत के मुख्य अंशः

नोएडा में किसानों के असंतोष की वजहें क्या हैं?

जिन किसानों से जमीन ली गई थी उनसे यह वादा किया गया था कि उन्हें कुछ निश्चित सुविधाएं दी जाएंगी. ये सुविधाएं मुआवजे के अतिरिक्त थीं. किसानों को दी जाने वाली सुविधाओं में से एक है विकसित जमीन का पांच फीसदी हिस्सा किसानों को लौटाना और दूसरी आबादी की जगह को नियमित करना. ये दोनों काम नहीं किए गए. आज जो असंतोष दिख रहा है उसकी एक वजह इन दोनों वादों को नहीं पूरा किया जाना है.

अब मामला अदालत में भी चला गया है. ऐसे में सभी पक्षों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस पूरे विवाद के सुलझने की कितनी संभावना है?

हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं. मैं खुद हर रोज प्रभावित गांवों का दौरा कर रहा हूं. हम विकसित जमीन का पांच फीसदी हिस्सा किसानों को लौटाने की शुरुआत कर रहे हैं. जिस तारीख में अधिग्रहण किया गया था उस समय की आबादी की जगह नियमित करने को प्राधिकरण तैयार है. पर कहीं न कहीं तो हर किसी को अपनी इच्छाओं की सीमा निर्धारित करनी होगी. किसान अब अधिक मुआवजा मांग रहे हैं. यह उचित नहीं है. क्योंकि जब जमीन ली गई थी तब उस समय की दर के हिसाब से किसानों को मुआवजा मिला था. हर रोज दो नयी मांग सामने आ रही हैं. आज की तारीख वाली आबादी की जगह को नियमित करने की मांग उठ रही है. फिर भी हमें पूरा भरोसा है कि विवाद सुलझेगा और सभी पक्षों के हितों की रक्षा होगी.

नयी जमीन अधिग्रहण नीति आने वाली है. आगे ऐसे विवाद पैदा नहीं हों, इसके लिए नीतियों में क्या बदलाव की जरूरत है?

नीतियों में कोई खामी नहीं है. समस्या अगर कहीं है तो वह है नीतियों के क्रियान्वयन में. अगर क्रियान्वयन ठीक ढंग से हो तो ऐसा कोई भी विवाद पैदा नहीं होगा.

भविष्य में ऐसी समस्याएं न खड़ी हों, इसके लिए प्राधिकरण के स्तर पर क्या करने की योजना है?

हम यह सुनिश्चित करने की योजना बना रहे हैं कि अब जब भी जमीन का अधिग्रहण हो उसके प्रभावितों को साथ-साथ उचित मुआवजा मिले, उन्हें विकसित जमीन का हिस्सा मिले और आबादी की जगह नियमित हो.

नोएडा में लैंड यूज बदलने के कई मामले सामने आए हैं और विवाद की एक वजह इसे भी बताया जा रहा है. आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है?

मास्टर प्लान और अन्य जरूरतों के हिसाब से लैंड यूज बदलने का अधिकार प्राधिकरण को है और समय-समय पर प्राधिकरण ऐसा करता है. यह हमारा संवैधानिक अधिकार है. यह काम किसी को फायदा पहुंचाने के मकसद से नहीं बल्कि विकास को ध्यान में रखकर किया जाता है.

जमीन अधिग्रहण समेत प्राधिकरण के अन्य कामों में पारदर्शिता की कमी को दूर करने की क्या कोई योजना है?

पारदर्शिता हमारी प्राथमिकता में सबसे ऊपर है. हम इस दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं. हम ज्यादा से ज्यादा सूचनाओं को ऑनलाइन करने की योजना बना रहे हैं.

हाल ही में नोएडा में बिल्डरों को दी गई जमीन के पैसे उन्हें 10 साल में किस्तों पर चुकाने हैं. ऐसे में क्या बिल्डर मकानों की रजिस्ट्री खरीददारों को कर सकते हैं?

हां, प्राधिकरण की तरफ से बिल्डरों को मकान की रजिस्ट्री का अधिकार दिया गया है और वे खरीददारों को फ्लैट की रजिस्ट्री कर सकते हैं. 

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