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न्यूज क्लिपिंग्स् | अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा-- नीलांजन मुखोपाध्याय

अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा-- नीलांजन मुखोपाध्याय

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published Published on Feb 15, 2016   modified Modified on Feb 15, 2016
नई दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चल रहे राजनीतिक विवाद का भिन्न-भिन्न कोणों से विश्लेषण किया जा सकता है। संसद हमले के षड्यंत्रकारी या कश्मीर की आजादी या पाकिस्तान के पक्ष में नारे लगाने का समर्थन कोई नहीं करेगा, ऐसा करना भी नहीं चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह नहीं कि छात्र इसकी सीमा का अतिक्रमण करें। लेकिन इसी आधार पर अफजल गुरु की बरसी पर एक संवाद के आयोजन को राष्ट्र-विरोधी गतिविधि मान लेने का भी कारण नहीं है। भारत माता इतनी छुई-मुई या भंगुर नहीं है कि कुछ कथित समाज-विरोधियों या राष्ट्र-विरोधियों के नारों से वह टूट या बिखर जाएगी। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अलग-अलग विचार रखना या असहमति जताना अपराध या देशद्रोह नहीं है।

देश के अलग-अलग हिस्सों में अनेक लोग कई बार ऐसी राय व्यक्त करते हैं,जो बहुसंख्यक नजरिये के खिलाफ होता है। लेकिन मजबूत कानूनी आधार के बिना उन्हें आतंकवादी, अलगाववादी या देशद्रोही नहीं माना जा सकता। वर्ष 2013 में जब गुरु को फांसी दी गई थी, तब इसी लोकतांत्रिक ताकत के बूते बहुतेरे लोगों ने उसकी आलोचना की थी। वे लोग गुरु को फांसी देने के विरोधी नहीं थे, बल्कि गुरु को अफरातफरी में, और बिना उसके परिवार को सूचित किए जिस तरह फांसी दे दी गई थी, उसके आलोचक थे।

तब माना यह गया था कि नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता में आने से रोकने के लिए यूपीए सरकार ने वह कदम उठाया था। वर्ष 1980 में केहर सिंह को जब इंदिरा गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचने के लिए मृत्युदंड दिया गया था, तब भी कुछ लोगों ने महसूस किया था कि उसे न्याय से वंचित किया गया। लेकिन भारतीय समाज ऐसी राय रखने वालों के प्रति वाजिब आधार के बिना असहिष्णु नहीं हो सकता। जेएनयू मामले में अगर शुरू से ही पर्याप्त संवेदनशीलता से निपटा गया होता, तो संभवतः यह स्थिति नहीं आती। उदाहरण के लिए, जब डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन ने अफजल गुरु पर कार्यक्रम करने का फैसला किया था, तो जेएनयू प्रशासन भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) को भी एक समानांतर कार्यक्रम करने की इजाजत दे सकता था।

इससे उस टकराव से बचा जा सकता था, जो आज सामने है। बेशक विश्वविद्यालयों में राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती; अगर कथित राष्ट्र-विरोधी नारेबाजी के पीछे जेएनयू के बाहर के लोगों का भी हाथ था, जैसा कि बताया जा रहा है, तो यह वाकई गंभीर है। लेकिन हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद जेएनयू का घटनाक्रम यह भी बताता है कि केंद्र की सत्ता में भाजपा के आने के बाद एबीवीपी की सक्रियता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है, जेएनयू मामले में भी यही देखा जा रहा है। देश विरोधी नारे लगाए हैं, तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी चाहिए। हैदराबाद में भी एबीवीपी के छात्रों ने दिल्ली स्थित वरिष्ठ भाजपा नेताओं से शिकायतें की थीं, जिनके जवाब में उन नेताओं ने विश्वविद्यालय प्रशासन को संबंधित छात्रों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का निर्देश दिया था।

अगर हैदराबाद विश्वविद्यालय में एबीवीपी से जुड़े छात्रों को कुछ मुद्दों पर शिकायत थी, तो उनके समाधान के लोकतांत्रिक तरीके निकाले जा सकते थे। पर उसके बजाय केंद्रीय सत्ता से शिकायत की गई, जिसके जवाब में विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव बनाया गया। गौरतलब है कि एबीवीपी एक बहुत पुराना छात्र संगठन है, जिसका गठन वर्ष 1949 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक एम एस गोलवलकर की रिहाई के बाद हुआ था। यह बेहद प्रभावशाली छात्र संगठनों में से है। वस्तुतः शिक्षा परिसरों में राजनीतिक लड़ाइयां खुद ही लड़ी जाती हैं, लेकिन भाजपा के केंद्र की सत्ता में आने के बाद यह उसकी मदद से मजबूत होना चाहता है। बेशक ऐसा सिर्फ एबीवीपी के साथ ही नहीं है, छात्र राजनीति अब सत्ता राजनीति का ही विस्तार हो चुकी है। पर यह भी सच है कि खुली विचारधारा का विरोधी होने के कारण जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में पूरी तरह वर्चस्व हासिल करना एबीवीपी के लिए अब तक कठिन रहा है। बेहतर होता कि जेएनयू में पैठ बना चुकने के बाद एबीवीपी अपने दम पर आगे बढ़ती।

यह ठीक है कि जेएनयू मुद्दे पर सभी राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हो गई हैं, लेकिन इससे संसद के बजट सत्र से पहले अगर किसी एक पार्टी की राजनीतिक मुश्किलें बढ़ने की आशंका होती है, तो वह भाजपा ही है। यह ध्यान देने की बात है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में पहली बार किसी मुद्दे पर कांग्रेस, जदयू, आप और वाम पार्टियां एकजुट हुई हैं। बल्कि जेएनयू में नारेबाजी को देशद्रोह का मुद्दा बना चुकी भाजपा अगर इस मामले में अकेली पड़ जाती है; उसका कोई गठबंधन सहयोगी भी इस मुद्दे पर उसके साथ नहीं होता, तो उसका यह दांव गलत ही माना जाएगा। फिलहाल वह इस मुद्दे पर भले ही मजबूत जमीन पर खड़ी दिख रही हो, लेकिन आगामी बजट सत्र उसके लिए मुश्किल होने वाला है। संसद के पिछले सत्रों में भी कामकाज नहीं हुए थे।

अब बजट सत्र जैसे महत्वपूर्ण सत्र में भी यह कहानी दोहराई जाएगी, तो इससे सरकार के कामकाज और छवि पर असर पड़ेगा। उसकी राजनीतिक मुश्किल यहीं खत्म नहीं होने वाली। जेएनयू मुद्दे के बाद अब इसी साल पश्चिम बंगाल में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच गठजोड़ बनाने की हिचक भी दूर हो जाएगी। सरकार का मुख्य ध्यान संसद को सुचारु रूप से चलने देने और बेहतर प्रशासन पर होना चाहिए। आखिर देश के मतदाताओं ने उम्मीदों के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए को सत्ता सौंपी है। लेकिन वे उम्मीदें अभी पूरी नहीं हुई हैं। अर्थव्यवस्था का हाल बुरा है। ऐसे में, जरूरी सुधारों के बारे में सोचने के बजाय जेएनयू मुद्दे पर भाजपा के आक्रामक रुख की वजह ध्रुवीकरण की राजनीति भी हो सकती है; जो हालांकि कई विधानसभा चुनावों में बेअसर रही है, लेकिन अगले साल उत्तर प्रदेश के चुनाव को देखते हुए भाजपा संभवतः उसकी तैयारी में भी लगी हो सकती है।

वरिष्ठ पत्रकार, और नरेंद्र मोदी-द मैन, द टाइम्स के लेखक


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/limits-of-freedom-of-expression-hindi/


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