Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में- रविभूषण

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में- रविभूषण

Share this article Share this article
published Published on Mar 30, 2015   modified Modified on Mar 30, 2015
मुक्तिबोध और फैज जैसे कवियों ने जब ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने' और ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे' का आह्वान किया था, वे राज्यसत्ता के चरित्र और उसके द्वारा समय-समय पर लगायी गयी पाबंदियों से भली भांति परिचित थे. मुक्तिबोध ने तो नहीं, पर फैज ने राज्यसत्ता के दमन को ङोला भी था. अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का काम सर्वसत्तात्मक और एकदलीय शासन प्रणाली मनमाने ढंग से करती रही है. संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व न्यायमूर्ति राबर्ट जैकसन ने एक फैसले में कहा था कि विचारों पर नियंत्रण सर्वाधिकारवाद और एकदलीय शासन पद्धति का कॉपीराइट है और सरकारों का काम अपने नागरिकों को गलतियों से रोकना नहीं है, यह नागरिकों का कर्तव्य है कि वह सरकार को गलतियां करने से रोके.

21वीं सदी के आरंभ (2000) में राजग के कार्यकाल में सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम लागू किया गया था. आठ वर्ष बाद (2008 में) संप्रग-2 ने इसमें संशोधन कर धारा 66-ए को शामिल किया, जिसकी अधिसूचना फरवरी, 2009 में जारी हुई. प्रोफेसर हों या काटरूनिस्ट, लड़कियां हों या लेखक, व्यापारी हों या कर्मचारी, किशोर हों या वयस्क-अधेड़- सभी सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधित) बिल, 2008 की धारा 66-ए की गिरफ्त में आये. इस धारा के खिलाफ 21 याचिकाएं दायर की गयीं, जिनमें पहली याचिका कानून की छात्र श्रेया सिंघल ने 2012 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी. बाल ठाकरे के निधन के निधन के बाद मुंबई बंद के विरोध में महाराष्ट्र की पालघर की दो लड़कियों- शहीन हाडा और रीनू श्रीनिवासन- ने फेसबुक पर पोस्ट डाला था, तब इन दोनों के खिलाफ यह धारा लगायी गयी थी. श्रेया सिंघल ने इस धारा को चुनौती दी थी. गत 24 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और आरएफ नरीमन की पीठ ने इससे संबंधित सभी जनहित याचिकाओं पर दिये फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत मूल्य घोषित करते हुए इस धारा को निरस्त कर दिया.

आदेश में धारा 66-ए के तीन शब्दों- ‘चिढ़ानेवाला', ‘असहज करनेवाला' और ‘बेहद अपमानजनक' को अस्पष्ट कहा गया. साथ ही ‘बहस', ‘सलाह' और ‘भड़काने' को एक कोटि में शामिल न कर, इन तीनों में अंतर स्पष्ट किया गया. धारा 66-ए में ‘चिढ़ाने', ‘असुविधा', ‘खतरा' और ‘अड़ंगा' जैसे शब्द अपरिभाषित थे. इनकी गलत व्याख्याएं सही उद्देश्यों के विरुद्ध संभव थीं. संप्रग-2 के समय इस संशोधित कानून को बिना किसी बहस के संसद से पारित किया गया था. पीठ ने राजग सरकार द्वारा दिये गये इस आश्वासन को, कि कानून का दुरुपयोग नहीं होने दिया जायेगा, स्वीकार नहीं किया, क्योंकि सरकारें आती-जाती रहेंगी और कोई भी सरकार यह गारंटी नहीं दे सकती कि परवर्ती सरकारें भी इसका दुरुपयोग नहीं करेंगी.

प्रशासन के खिलाफ किसी प्रकार की टिप्पणी सरकारों को बर्दाश्त नहीं होती. विरोधी स्वरों को दबाने में ऐसे कानून उनके मददगार होते हैं. इंटरनेट और सोशल मीडिया के आज के दौर में इस कानून (धारा 66-ए) के जरिये किसी को भी दंडित और गिरफ्तार करना आसान था. सोशल मीडिया पर असहमति प्रकट करने और आलोचना करनेवालों की संख्या कहीं अधिक है. ऐसे में यह धारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती थी. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट किया है कि किसी भी लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आधारभूत मूल्य हैं. विरोधी और अलोकप्रिय विचार खुले संवाद की संस्कृति हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह भी कहा गया है कि जो एक के लिए अप्रिय और अरुचिकर है, आवश्यक नहीं कि वह दूसरों के लिए भी वैसी ही हों.

लफंगी पूंजी असहिष्णुता और विचारहीनता को बढ़ावा देती है. देश के सभी राजनीतिक दल इस पूंजी के साथ हैं. जाहिर है, वे असहमति और विरोध पर अंकुश लगायेंगे ही. भारत में तानाशाह सरकार नहीं है और न ही कोई दल तानाशाही का समर्थक है. फिर भी तानाशाही के कुछ कीटाणु यहां मौजूद हैं. राज्य कोई भी हो, और सरकार किसी भी दल की हो, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर समय-समय पर सबने अंकुश लगाने का कार्य किया है. बिहार के युवा कवि मुसाफिर बैठा हों, जादवपुर विवि के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र हों या उत्तर प्रदेश का किशोर गुलरेज खान- सब पर धारा 66-ए लगी थी. जबकि, संविधान की धारा 19 (1) में प्रत्येक भारतीय नागरिक को अभिव्यक्ति का अधिकार प्राप्त है. धारा 19 (2) के अधीन इसकी कुछ मर्यादाएं निर्धारित हैं. इन मर्यादाओं में राष्ट्रीय संप्रभुता पर आंच आने से लेकर समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने या फैलानेवाली सामग्री भी शामिल है. सोशल मीडिया पर भी भारतीय नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान द्वारा प्रदत्त है. सरकारों द्वारा बनाये गये कानूनी प्रावधान से अधिक महत्वपूर्ण संविधान द्वारा दिया गया अधिकार है. सवाल यह है कि नागरिक अधिकारों को कुचलने या सीमित करने में राजनीतिक दल और सरकारें आगे क्यों रहती हैं? लोकतांत्रिक कानून तानाशाही और अधिनायक तंत्र के कानूनों से भिन्न ही नहीं, विपरीत भी होते हैं. सर्व सत्तात्मक और एकदलीय शासन प्रणाली में सरकार गलत नहीं होती. वहां केवल जनता गलत होती है. सभ्य समाज में कानून राज्य को नियंत्रित करता है, न कि व्यक्ति को. व्यक्ति और प्रत्येक नागरिक को यह हक है कि वह शासन व्यवस्था और सरकार के कार्यो की अलोचना करे. इस आलोचना को कानूनों से रोकना लोकतंत्र और संविधान विरोधी कार्य है.

दो न्यायमूर्तियों की पीठ ने 1950, 1962 और 1985 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दिये गये फैसलों के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसलों का उल्लेख किया था. पीठ ने अमेरिकन कम्युनिकेशंस एसोसिएशन बनाम डाउड्स केस को उद्धृत किया, जिसमें विचारों पर नियंत्रण को अधिनायकवादी शक्तियों का कॉपीराइट कहा गया था. समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में फैसले दिये हैं. भारतीय नागरिकों की सरकार से कहीं अधिक आस्था न्यायालय में रही है. धारा 66-ए को पीठ ने इसलिए निरस्त किया कि इससे संविधान के अनुच्छेद 19(1) का उल्लंघन होता है और अनुच्छेद 19 (2) द्वारा इसकी सुरक्षा नहीं होती है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने का सिलसिला आजादी के बाद से ही रुक-रुक कर जारी है. सरकार को शीर्ष अदालत से संविधान की रक्षा सीखनी चाहिए. यह दायित्व सभी सरकारों और राजनीतिक दलों का है. सूचना प्रौद्योगिकी की धारा 66-ए को सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित करते हुए उसे समाप्त करने का फैसला न्यायालय द्वारा भारतीय नागरिकों को प्रदत्त एक बड़ा उपहार है.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/373807.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close