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न्यूज क्लिपिंग्स् | अलख जगाती एक यात्रा-- मेधा

अलख जगाती एक यात्रा-- मेधा

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published Published on Dec 13, 2010   modified Modified on Dec 13, 2010

११ दिसंबर दिन शनिवार का है। बापू की समाधि राजघाट पर जनमेला लगा है। देश भर से लोग अपनी रंगत, अपने लिबास, अपनी भाषा में विविधता संजोए आए हैं। कुछ है जो रंग-बिरंगी विविधता से भरे इन लोगों के मन को एकरस बना रहा है। सब के दिलों में एक ही तमन्ना धड़क रही है। और वह तमन्ना है - शस्य श्यामला ध्रती की उर्वरा-शक्ति, उसकी जीवंतता को बचाने की, जीवनदायी जल की तासिर को जहरीला होने से रोकने की, पूरे देश की भूख मिटाने वाले किसान को मिटने से बचाने की यानी समूचे देश को बचाने की। रंग-बिरंगे परिधान और महकती-चहकती बोली-भाषाओं में दमकते इन सैकड ों लोगों के दिलों में धड क रही ये तमन्नाएं अब महज तमन्नाएं नहीं रह गई हैं। इन तमन्नाओं के गर्भ से जन्मा है एक अटूट संकल्प। संकल्प इन तमन्नाओं को साकार करने का। देश के हजारों दिलों में मचलती इन तमन्नाओं की कोख से अटूट संकल्प के जन्मने की इस लम्बी यात्राा का नाम है - किसान स्वराज यात्रा।
यह यात्रा २ अक्टूबर २०१० को साबरमती आश्रम से शुरू हुई और ७१ दिनों बाद ११ दिसंबर को राजघाट पर समाप्त हुई। इस यात्रा में शामिल लोगों के उत्साह और साहस को देखते हुए यह बखूबी समझा जा सकता है कि यह यात्रा एक अथक लड़ाई में तब्दील हो चुकी है जो देश के खेतिहर संकट के समाप्त होने पर ही रुकेगी। क्या कोई बता सकता है कि यह यात्रा कब रुकेगी। इस प्रश्न को पूछना ही स्थिति में थोड ा तनाव और थकान पैदा कर देता है। सविंधान का प्रारूप सामने लाए जाने पर गांधी जी ने बाबू राजेन्द्र प्रसाद से पूछा था कि इस सविंधान में गांव और किसान के लिए क्या है। किसान यात्रा को देख यह सवाल गांधी की समाधि से बाहर आ गया लगता है।
दो अक्टूबर को जब साबरमती आश्रम से किसान यात्रा शुरू हुई तो यात्रियों के चार दल चार दिशाओं में संदेश लेकर निकले। पहले दिन की यात्रा ने ही शेष यात्रा के उज्जवल भविष्य का संकेत दे दिया था। तीन अक्टूबर का सूरज अभी अस्त नहीं हुआ था। किसान स्वराज यात्रा के चार दल गुजरात के चार जिलों राजकोट, सुरेन्द्रनगर, गांधीनगर एवं मेहसाणा के २२ गांवों के बीच अपना संदेश फैला चुके थे। 'किसान यात्रा का यही संदेश, हमारे बीज हमारा देश। किसान की मजबूती, देश की मजबूती' जैसे नारों से गांव गूंज रहे थे। हर गांव में बच्चे गीत और नृत्य से यात्रियों का स्वागत कर रहे थे। सदा से अन्नपूर्णा की भूमिका निभा रही महिलाएं फूलों के साथ-साथ बाजरा और ज्वार उपहार में दे रही थी। फूलों में बसे आशीष और शुभकामनाओं को दिल में संजोए किसान स्वराज यात्रा के साथी ७१ दिनों तक देश के बीस प्रान्तों के हजारों गांव में घूमते रहे और स्वराज का अलख जगाते रहे।
किसान स्वराज यात्रा का मकसद
आखिर कौन हैं ये किसान यात्री? किन प्रेरणाओं से प्रेरित होकर आयोजित की गई यह किसान यात्रा? किसान स्वराज यात्राा का आयोजन एलायंस फॉर ससटेनेबल एंड होलिस्टिक एर्गीकल्चर (आशा) ने किया है। आशा देश के बीस प्रान्तों के विभिन्न स्वरों की एक जुगलबन्द है। यह नेटवर्क किसान संगठनों, उपभोक्ता समूहों, महिला-संगठनों, पर्यावरणीय संगठनों, जैविक खेती करने वाले किसानों, सहकारी संस्थाओं, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और अन्य सहयोगियों से बना है। प्रत्येक राज्य में व्यापक तौर पर समूहों, आंदोलनों और व्यक्तियों ने इस यात्रा में हिस्सा लिया। इस यात्रा ने राज्यों के लाखों किसानों और लाखों शहरियों को भारत में चल रहे कृषि-संकट और उससे निकलने के रास्ते से अवगत कराया। यात्रा के दौरान कृषि विरोधी नीति को समाप्त कर किसान और प्रकृति की हितैषी नीतियां बनाने की मांग उठी।
किसान स्वराज यात्राा ने खेतिहर संकट के बारे में अखिल भारत में जागरूकता फैलाने का महत्वपूर्ण काम किया। यात्राा ने खेतिहर संकट पर राष्ट्रीय लामबंदी की है। यात्रियों का मानना है कि मौजूदा कृषि नीति ने प्रकृति और मनुष्य को बहुआयामी संकट में डाल दिया है। मिट्‌टी की उर्वराशक्ति और जीवंतता तेजी से नष्ट हुई है। पानी एवं भोजन के विषाक्त होने से स्वास्थ्य का भारी नुकसान हुआ है। किसान पर घोर विपत्ति टूट पड़ी है। खेती में नुकसान के आसार ज्यादा हैं उस पर कर्ज की गहरी मार पड  रही है। मौजूदा कृषि नीति से बदहाल किसान शहर की ओर पलायन कर रहा है, जहां उसकी नियति नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य होना भर है।
किसान-यात्रा के अनुसार भारत को एक ऐसी कृषि आर्थिकी विकसित करने की जरूरत है जो किसान-हितैषी और पारस्थितिकी की दृष्टि से टिकाऊ हो। जो हमारी ग्रामीण आर्थिकी को फलने -फूलने दे और शहरी इलाकों का प्रबंधन कर सके। इनकी मांग भारतीय कृषि के लिए एक ऐसे समग्र पथ की है, जो छोटे किसानों के लिए जीविकोपार्जन और भोजन की सुरक्षा दे सके, हमारी मिट्‌टी को जीवन्त रहने दे और हमारे भोजन एवं पानी को विषरहित रहने दे। यात्रा का मकसद भारत सरकार पर किसान-विरोधी, कारपोरेट-हितैषी नीतियों को रोकने के लिए दबाब बनाना और किसान समुदाय के लिए गरिमापूर्ण जीविकोपार्जन सुनिश्चित करने और टिकाऊ कृषि की नीतियां बनाने के लिए दबाब डालना भी है। यात्रा के दौरान गांववासियों को न केवल देश-विरोधी कृषि नीतियों से अवगत कराया गया बल्कि उनकी स्थानीय समस्याओं पर भी बहुत समृद्ध संवाद हुए। कृषि नीति के बहाने नव-सम्राज्यवाद, आर्थिक उदारीकरण और सरकार की कारपोरेट-हितैषी नीतियों के बारे में भी संवाद की सहयात्रा साथ-साथ चली। इस यात्राा की महत्ता इसके सहभागी होने में है। एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें मौजूदा संकट के भुक्तभोगी मिलजुलकर संकट के उपचार-निदान तलाश रहे थे।
किसान की बदहाली की एक तस्वीर
देश में व्याप्त खेतिहर-संकट का अंदाजा लगाने के लिए कुछ तथ्यों से होकर गुजरना जरूरी होगा। वर्ष २००८ में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अन्तर्गत किसानों की दशा के मूल्यांकन के लिए एक सर्वेक्षण 'द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे ऑव फारमरस्‌' नाम से किया गया। इस अध्ययन के अनुसार घाटे का सौदा मानकर लगभग २७ फीसदी किसान खेती करना नापसंद करते हैं। ४० प्रतिशत किसानों का कहना है कि विकल्प होने की स्थिति में वे कोई और काम करना पसंद करेंगे। पिछले चार दशकों में खेती के लिए उपलब्ध प्रति व्यक्ति भू-स्वामित्व साठ प्रतिशत घटा है। वर्ष ६०-६१ में भूस्वामित्व की औसत इकाई २.३ हेक्टेयर थी, जो वर्ष २००२ -२००३ में घट कर १.०६ हेक्टेयर रह गई। वर्ष १९९५ से २००६ के बीच लगभग दो लाख किसानों ने आत्म-हत्या की। वर्ष १९९८ में में किसानों की आत्महत्या में बहुत तेज बढ़ोतरी हुई। १९९७ की तुलना में १९९८ में किसान आत्महत्या १४ फीसदी बढ  गई। अगले तीन सालों यानी २००१ तक प्रति वर्ष लगभग १६ हजार किसानों ने आत्महत्या की। किसानों की बदहाली का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष १९८३ में ग्रामीण आबादी की प्रति-व्यक्ति प्रतिदिन कैलोरी उपभोग की मात्रा २३०९ कैलोरी थी जो १९९८ में घटकर २०११ कैलोरी रह गई। अर्थात १५ सालों में १५ प्रतिशत गिरावट आई। आंकड ों की यह तस्वीर एक बड े सवाल का सामने ला खड ा करती है कि 'उत्तम खेती, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान' की सांस्कृतिक चेतना वाले भारत में आखिर क्यों किसान खेतीबाड ी से छुटकारा चाहते हैं।
स्वराज का सपना
गांधी के नेतृत्व में देश की लाखों जनता ने स्वराज के लिए अहिंसा और सत्याग्रह के ऊंचे मूल्यों का शब्दशः पालन करते हुए जान की बाजी लगा दी थी। गांधी जिस सत्य, अहिंसा का प्रयोग जीवनपर्यंत करते रहे, उसमें अदम्य शक्ति का संचार जान की बाजी लगाने वाले लाखों जन की कुर्बानी ने ही किया। जाहिर है कि इस रास्ते स्वतंत्र हुए देश के लिए कसौटी आखिरी आदमी के आंखों की चमक होनी चाहिए थी। इस कसौटी को भारतीय संविधान में दर्ज भी किया गया, भले ही थोड़े ध्ीमे स्वर में। भारतीय संविधान की आत्मा में समानता का स्वर गुंजायमान है, इसीलिए निर्देश समानता आधारित विकास का ही है। लेकिन देशी शासकवर्ग ने कभी भी इसे व्यवहार में अनूदित नहीं होने दिया। हम सब अब यह मान ही चुके हैं कि १९४७ के बाद शासन करने वालों की चमड ी का रंग भर बदला। शोषण का दमन-चक्र पुराने ढांचे में नए जुमलों के साथ जारी रहा। संवैधानिक मूल्यों को अनदेखा कर विकास के लिए गैरबराबरी को अनिवार्य मान लिया गया। देश के सात लाख गांव गणराज्य को नेस्तनाबूद करने वाली नीतियां लगातार बनती रही।
शोषण का ऐतिहासिक परिदृश्य
कृषि प्रधान भारत में जहां आज भी साठ प्रतिशत जनता का जीवन खेती पर निर्भर है, वहां किसानी को अकुशल श्रम की श्रेणी में रखा गया और उसके श्रम की कीमत बहुत कम आंकी गई। खेती-किसानी में मेहनत का औसतन मोल ३०-५० रूपये रोज है, जबकि छठवें वेतन आयोग के बाद सरकार का सबसे साधारण कर्मचारी ४०० रूपए रोज का हकदार है। वर्ष १९४८ में संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्रा में कहा गया था कि मेहनत की हकदारी इतनी होनी चाहिए जिससे मेहनतकश और उसके परिवार का अच्छी तरह भरण-पोषण हो सके । मगर उसी साल बने भारत के न्यूनतम मजदूरी अधिनियम और बाद में भारतीय संविधन के अनुच्छेद ४३ में मेहनतकश का उल्लेख तो मिलता है, लेकिन परिवार नदारद है। यानी आदमी कमाएगा केवल अपने लिए, परिवार के बच्चे अपना स्वयं देखें। भारतीय श्रमिक सम्मेलन १९७५ में मेहनत की हकदारी तय की गई तो, परिवार की निराली परिभाषा गढ़ी गई। सरकारी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड ों के अनुसार ग्रामीण परिवार में औसतन ५ सदस्य होते हैं, परन्तु श्रमिक सम्मेलन में परिवार में औसत चार सदस्य मानें गए जिसमें दो की गिनती वयस्क के रूप में और दो की बच्चे के रूप में हुई और हद तो तब हो गई जब एक बच्चे को आध्ी इकाई मानकर सदस्यों की संखया तीन कर दी गई।
मेहनत के मोल को दबा कर रखने से खेती-किसानी घाटे का सौदा बनती गई। घाटे के सौदे को जारी रखने के लिए किसान कर्ज के महाजाल में फंसता चला गया। आज वह कर्ज में आकंठ डूब चुका है और उससे उबरने के लिए आत्महत्या कर रहा है। इस स्थिति तक पहुँचाने वाली अन्य नीतियों पर नजर डालें। खेती किसानी के लिए कर्ज के कानूनों के तहत उस पर चक्रवृद्धि ब्याज नहीं लग सकता है। पर इस बात की जानकारी तक बहुत कम लोगों को है। इतना ही नहीं, केन्द्र सरकार ने सन्‌ १९८४ में कंपनी अधिनियम में संशोधन कर एक नई धारा ( २३ ए) जोड़ दी। इसके तहत किसान कर्ज की अन्यायी शर्तों को अदालत में चुनौती भी नहीं दे सकता। इस जानलेवा स्थिति से बचने के लिए किसान अक्सर गांव के सूदखोरों के चक्कर में फंस जाता है जंहां ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं कहीं ब्याज की चालू दरें  ५ से १० प्रतिशत प्रतिमाह चक्रवृद्धि है, जो कई बार सालाना सौ प्रतिशत से भी अध्कि बैठती है ।
गांव गणराज्यों की पीठ पर बैठा शाइनिंग इंडिया
राष्ट्रीय कृषि नीति २००० में खेती को घाटे का सौदा बताया गया है। राष्ट्रीय किसान नीति २००७ में कहा गया है कि ''भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में कृषि की महत्ता को इस तथ्य से महसूस किया जा सकता है कि देश की अध्किांश जनसंखया की आजीविका कृषि पर निर्भर है कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान केवल १८ प्रतिशत है जबकि ६० प्रतिशत से अधिक जनसंखया इस पर निर्भर है, जिसके फलस्वरूप कृषि क्षेत्रा में प्रति व्यक्ति आय कम है। इससे यह भी पता चलता है कि कृषि क्षेत्र और गैर कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति आय के बीच बड़ी असमानता है।'' इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए भी खेती के घाटे का सौदा बनने के जिन ऐतिहासिक नीतिगत अपराधों का उल्लेख ऊपर किया गया है, उसका जिक्र तक इस नीति में नहीं किया गया है। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि किसान को गरीब बनाने की वृहद साजिश इस देश का प्रभुवर्ग निरन्तर करता आया है।
खेती-किसानी के मामले में आजादी के तुरंत बाद से ही तात्कालिक राहत की राजनीति चल रही है। उनके श्रम और तकनीकी कौशल का अवमूल्यन कर जो उनका सम्मानजनक अध्किार था, उससे कहीं बहुत कम खैरात के रूप में सरकार देती रही है और उसके आत्मगौरव को चकनाचूर करती रही है। इसी का नमूना है कि किसान के बच्चों को स्कूल में मिड-डे मील के नाम पर कटोरा लेकर खड़ा कर दिया जाता है और उनके भीतर शुरू से खैरात पर पलने वाले का आत्मबोध रोपा जा रहा है। देश का खाया-पीया-अघाया वर्ग अपनी नजर में किसान की छवि हमेशा याचक की बना कर रखता है। तभी वह उसे 'सरकारी जमाई' कहता है और किसानों को मिलने वाली सब्सिडी उसकी आंखों में किरकिरी बनकर चुभती है। जबकि विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारतीय किसान को मिलने वाली सब्सिडी बहुत कम है। भारत में प्रति किसान सब्सिडी ६६ डालर है, जबकि जापान में २६ हजार डॉलर, अमेरिका में २१ हजार डॉलर और यूरोपीयन ऑर्गनाइजेशन को-ऑपरेशन के देशों में ११ हजार डॉलर।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत की सकल राष्ट्रीय आय में खेती-किसानी का हिस्सा सन्‌ १९४७ में ६७ प्रतिशत था। यह सन्‌ २००८ में घटकर सिर्फ १७ फीसदी रह गया है। दिलचस्प यह है कि इस बीच खेती किसानी का उत्पादन लगभग चार गुना हो गया है। चार गुने उत्पादन का तुलनात्मक मोल एक-चौथाई रह गया है। इसी दौर में मानवीय श्रम का प्रति एकड  उपयोग घटकर एक तिहाई रह गया है। इन विसंगतियों पर चिन्तित होने की बात तो दूर, सन्‌ २०२० के सरकारी दृष्टि पत्रा के अनुसार विकास की इस लहर में सकल राष्ट्रीय आय में खेती-किसानी का हिस्सा ६ फीसदी रह जाएगा। उधर उपरले दस फीसदी लोगों का हिस्सा सन्‌ २००८ में ६० फीसदी हो चुका है, जो २०२० तक और बढ कर ७० फीसदी हो सकता है।
खेती-किसानी के मुद्‌दों पर लगभग बीस सालों से आन्दोलनरत डा. बी डी शर्मा का मानना है कि राष्ट्र की कुल आय में खेती-किसानी का हिस्सा कम से कमतर होते जाना सरकारी नीतियों के कारण है। उनका मानना है कि -''मेहनत के मूल्य में की गई नीतिगत कटौती से सकल राष्ट्रीय आय में खेती-किसानी के हिस्से में लगातार गिरावट आना स्वाभाविक है। इसका पहला और सबसे भारी असर खेती की उपज के समर्थन मूल्य पर पड़ता है। उसमें किसान के अपने पारिवारिक और मजदूरों के श्रम का मूल्य आध, तिहाई या उससे भी कम माना जाता है। अगर मेहनत का मूल्य का सही आकलन किया जाए तो राष्ट्रीय आय में खेती-किसानी के हिस्से में लगभग १०-१२ प्रतिशत की बढ ोतरी तत्काल हो जाएगी।''
१९९१ में शुरू हुई आर्थिक उदारीकरण की आंधी ने खेतिहर संकट को और अधिक गहरा दिया है। सन्‌ २००० की राष्ट्रीय कृषि नीति में 'जो जोते उसकी जमीन' के राष्ट्रीय संकल्प को छोड कर निगमित खेती का रास्ता अखितयार कर लिया गया है। किसानों एवं प्राकृतिक संपदा का संरक्षण करने वाले और उसी से जीवन यापन करने वाले समुदाय को कमजोर करने के हथियार के रूप में सेज, भूमि अधिग्रहण कानून, बीज विधेयक जैसे कानून बनाए जा रहे हैं। ये कानून प्रथम दृष्टि भले ही जन सरोकारों वाले लगे लेकिन वे अंततः देश के जल, जंगल और जमीन पर कारपोरेटी कब्जा करने का जरिया बन रहे हैं। ऐसे में किसान-स्वराज यात्राा ने देश के कोने-कोने में एक ऐसे सत्याग्रह का बिगुल बजाया है जो न केवल देश के सात लाख गांव गणराज्य की मुक्ति के लिए अनिवार्य है बल्कि पूरी दुनिया में चल रहे जनसंहारक नव-साम्राज्यवाद की नींव कमजोर करने के लिए भी जरूरी है।


नोट : १२ दिसंबर २०१० को जनसत्ता में प्रकाशित आवरण कथा


१२ दिसंबर २०१० को जनसत्ता में प्रकाशित आवरण कथा


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