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न्यूज क्लिपिंग्स् | आंकड़ों की बाजीगरी है यह खुशहाली- उपेन्द्र प्रसाद

आंकड़ों की बाजीगरी है यह खुशहाली- उपेन्द्र प्रसाद

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published Published on Feb 21, 2014   modified Modified on Feb 21, 2014

सरकारी राजकोष का बेहतर रूप दिखाने के लिए आंकड़ों की बाजीगरी की भी सहायता ली गयी है. यह बाजीगरी विफलता को कुछ समय के लिए ही छिपा सकती है. सच कुछ समय के बाद सामने आ ही जाता है. पर चिदंबरम को इसकी चिंता क्यों हो?

केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने आगामी वित्त वर्ष के पहले चार महीनों का लेखानुदान पेश करते हुए देश की अर्थव्यवस्था और खास कर केंद्र सरकार की राजकोषीय स्थिति पर जो खुशफहमी भरी बातें की हैं, उससे न तो देश की अर्थव्यवस्था का संकट कम होता है और न ही केंद्र सरकार के राजकोष की खस्ता हालत अच्छी होती है. वे यह कहते हुए खुश हो रहे हैं कि इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में अर्थव्यव्स्था की विकास दर 5.2 फीसदी रही है और अंतिम तिमाही में भी विकास की दर यही रहेगी, लेकिन इससे यह तथ्य छुप नहीं जाता कि वर्तमान वित्त वर्ष में आर्थिक विकास की दर 4.9 फीसदी ही रहने का अनुमान है.

आर्थिक विकास की वास्तविक दर इससे भी कम हो सकती है. विकास की इस न्यूनतम दर के साथ मुद्रास्फीति की दर का लगातार 5 फीसदी से ज्यादा रहना और खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर का इससे भी ज्यादा होना हमारे देश के आर्थिक संकट की स्थिति को गंभीर बता रहा है.

वित्त मंत्री खुश हैं कि राजकोषीय घाटे को वह देश के सकल घरेलू उत्पाद के 4.6 फीसदी तक ही सीमित रखने में सफल रहे, लेकिन इसकी कीमत तेल, गैस और अन्य ऊर्जा की बढ़ी हुई कीमतों के रूप में देश को चुकानी पड़ी है. साथ ही, विकास के अनेक कार्यों को रोकना पड़ा और कुछ कल्याणकारी कार्यों को भी विराम देना पड़ा. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस साल की कुछ सब्सिडी को भी अगले साल की सब्सिडी के रूप में दिखने के लिए छोड़ दिया गया है.

यानी सरकारी राजकोष का एक बेहतर रूप दिखाने के लिए आंकड़ों की बाजीगरी की भी सहायता ली गयी है. वित्त मंत्रालय की यह बाजीगरी विफलता को कुछ समय के लिए ही छिपा सकती है. सच कुछ समय के बाद सामने आ ही जाता है. पर चिदंबरम को इसकी चिंता क्यों हो? उन्हें तो लगता है कि अगला बजट पेश करने के लिए वे संसद में शायद रहें ही नहीं.

यह कोई नियमित बजट नहीं था, इसलिए कराधान के मसलों पर किसी प्रकार के खास निर्णय की उम्मीद नहीं की जा रही थी. प्रत्यक्ष करों में तो उन्होंने कोई छेड़छाड़ नहीं की, लेकिन अप्रत्यक्ष करों को संशोधित जरूर किया. ऐसा करते समय वे अर्थशास्त्री से ज्यादा राजनीतिक नेता होने का अपना कर्तव्य निभा रहे थे. राजनीतिक कारणों से ही सही, उनके द्वारा कुछ वस्तुओं पर उत्पाद करों की कटौती से बाजार को राहत जरूर मिलेगी. इसमें सबसे ज्यादा राहत तो मोटर उद्योग को मिलेगी, जो मंदी का शिकार हो गयी है.

कुछ अन्य कंज्यूमर उत्पादों के उद्योग को भी फायदा होगा और इससे इनके उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा, लेकिन खाद्य सामग्री जैसी आम आदमी के उपभोग की आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में गिरावट लाने का कोई मंत्र वित्त मंत्री ने अपने अंतरिम बजट प्रावधानों में पेश नहीं किया है.

यूपीए सरकार की 10 साल की उपलब्धियों का गाना तो वित्त मंत्री ने बहुत गाया, लेकिन यदि वे अपने इस गाने को पिछले पांच सालों की उपलब्धियों तक ही सीमित रखते तो देश के आर्थिक हालात की सही तसवीर पेश कर पाते. यह सच है कि 2012 में प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद जब उन्हें वित्त मंत्रालय का भार एक बार फिर मिला था,  उस समय देश की आर्थिक हालत और केंद्र सरकार की राजकोषीय स्थिति काफी खराब थी और लग रहा था कि देश 1991 से भी खराब दौर में पहुंच सकता है, लेकिन उन्होंने देश की आर्थिक स्थिति को उतना खराब नहीं होने दिया, हालांकि देश के आम लोगों की स्थिति और भी बिगड़ती चली गयी.

सरकार ने अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक करने के लिए आम आदमी पर ही बोझ डाला और पेट्रोलियम पदार्थों को महंगा करते हुए न केवल देश के लोगों पर सीधा असर डाला, बल्कि भारत की उच्च लागत की अर्थव्यवस्था बना कर आने वाले समय में भी लोगों की जिंदगी मुहाल कर देने का इंतजाम कर दिया.

किसी देश की आंतरिक आर्थिक हालत खराब होती है, तो उसका असर अंतरराष्ट्रीय बाजार में उसकी हैसियत पर भी पड़ता है. रुपये की गिरती विनिमय दर के रूप में हम अपनी आर्थिक हालात को अंतरराष्ट्रीय आईने में भी देख चुके हैं. रुपया एक समय कमजोर होकर प्रति डालर 70 रुपये तक पहुंच रहा था.

चिदंबरम की इसके लिए सराहना की जानी चाहिए कि रुपये को संभालने में सफल हुए, वैसे इसका ज्यादा श्रेय भारतीय रिजर्व बैंक के नवनियुक्त गवर्नर रघुराम राजन को जाता है, लेकिन राजकोषीय नीतियों का भी उसमें योगदान रहा है. चिदंबरम ने तब सीमा शुल्क बढ़ा कर सोने के आयात को कम किया, जिससे विदेश व्यापार के चालू खाते का घाटा कम हुआ.

चालू खाते पर बढ़ रहा घाटा रुपये को कमजोर कर रहा था. राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए चिदंबरम ने सोने के आयात को कम होने के लिए मजबूर कर दिया, जिसका इसका फायदा यकीनन रुपये को हुआ और आज रुपया कमजोर तो है, लेकिन अस्थिर नहीं है. रुपये की स्थिरता हमारे देश की आर्थिक स्थिरता के लिए जरूरी है.

चिदंबरम ने अनेक उत्पाद शुल्कों की दरों को घटाया. एकाध सीमा शुल्क की दरें भी घटा दीं, लेकिन सोने पर सीमा शुल्क को नहीं घटा कर उन्होंने एक बड़ा काम किया है. सोने के आयात शुल्क की दर घटाने के लिए उन पर खुद सोनिया गांधी का दबाव था. इसके लिए सोनिया गांधी ने वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा को एक चिट्ठी भी लिखी थी, लेकिन चिदंबरम ने न तो उस समय सोनिया की परवाह की और न ही अब अंतरिम बजट बनाते समय. जाहिर है, उन्होंने सोनिया गांधी की बात को न मान कर रुपये को संकट में डालने का काम नहीं किया.

लोकसभा चुनाव सिर पर है. जाहिर है, अपने अंतरिम बजट को तैयार करते हुए चिदंबरम पर चुनाव का भी दबाव रहा होगा. शायद कुछ आयटमों के उत्पाद शुल्कों की दरों को कम करने के पीछे चुनावी दबाव ज्यादा रहा होगा, लेकिन बजट देख कर ऐसा नहीं लगता कि मतदाताओं को रिझाने के लिए चिदंबरम ने कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन किया है. वे चाहते तो प्रत्यक्ष आयकर की दरों में भी लोगों को लुभानेवाली छेड़छाड़ कर देते, लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया. कर सुधारों के मसलों पर उन्होंने बिना साफ-साफ कुछ कहे अपनी विफलता भी स्वीकार कर ली. डायरेक्ट टैक्स कोड और गुड्स एंड सर्विस टैक्क (सीएसटी) को अमल में न ला पाने की कसक उनके भाषण में दिखाई पड़ी. कुल मिला कर चिदंबरम ने बजट लाने की रस्म अदायगी पूरी कर दी.


http://www.prabhatkhabar.com/news/90717-Data-jugglers-prosperity-government-treasury-economy-elections-Chidambaram.html


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