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न्यूज क्लिपिंग्स् | आंबेडकर विचार भी, प्रेरणाशक्ति भी-- बद्री नारायण

आंबेडकर विचार भी, प्रेरणाशक्ति भी-- बद्री नारायण

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published Published on Apr 16, 2018   modified Modified on Apr 16, 2018
तीकों में प्रेरणा शक्ति निहित रहती है। यह शक्ति ही प्रतीकों को प्रासंगिक बनाती है। डॉ भीमराव आंबेडकर का प्रतीक अपनी इसी शक्ति के कारण लगातार प्रासंगिक होता गया है। दलित सामाजिक समूह ने इसी शक्ति की प्रेरणा से न सिर्फ सामाजिक सत्ता से वाद-विवाद और संवाद करना सीखा है, बल्कि राजनीतिक सत्ता में अपनी भूमिका बनाने की प्रेरणा भी उन्हें इसी से मिली है। आंबेडकर के प्रतीक ने शायद उन्हें यह सिखाया है कि सामाजिक और राजनीतिक विकास की यात्रा में क्या लिया और क्या छोड़ा जा सकता है? यह भी सिखाया कि उनके आगे बढ़ने में जो सामाजिक परंपराएं बाधा खड़ी करती रही हैं, उन्हें कैसे नया रूप दिया जा सकता है?


हिंदी पट्टी का वह सामाजिक तबका, जो लोहिया के विचारों से प्रभावित था, उसमें से अनेक लोग प्रखर आंबेडकरवादी चेतना से लैस होकर निकले। उत्तर प्रदेश में इस चेतना के प्रसार का इतिहास देखें, तो राम स्वरूप वर्मा जैसे प्रखर समाजवादी बाद में चलकर आंबेडकरी चेतना से जुड़े। पेरियार ललई सिंह, जिन्होंने प्रदेश में आंबेडकरवादी विचारधारा फैलाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वह भी कभी लोहिया की विचारधारा से प्रभावित थे। पटेल, कुर्मी और यादव बिरादरी के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता पिछली सदी के 60-70 के दशक में आंबेडकरवादी चेतना से प्रभावित होकर अपने-अपने सामाजिक समूहों में जागरण के काम में लगे रहे। कांशीराम जब 80 के दशक में बहुजन आंदोलन को संगठित करने लगे, तो जाटव के साथ ही उन्हें कुर्मी, पटेल समुदाय के अनेक नेताओं का समर्थन मिला।

राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो दलितों के वे सामाजिक समूह, जो गांव छोड़ शहरों में श्रम के लिए विस्थापित हुए और अपने गांवों से लगातार जुड़े रहे, वे आंबेडकरवादी चेतना को अपने साथ गांव तक ले आए। आगरा, कानपुर जैसे शहरों में जा बसने वाले जाटव बिरादरी के अनेक लोग अपने साथ इस चेतना का बीज अपने गांवों में भी फैलाते रहे। आंबेडकर खुद दलित समूहों से कहते थे कि वे गांवों की सामंती जकड़न से मुक्त होकर शहरों में नए पेशे और नए विचारों से जुड़ें। आंबेडकर के इसी आह्वान के बाद जाटवों ने बडे़ पैमाने पर अपने पारंपरिक पेशों से मुक्ति की छटपटाहट दिखाई। उनमें से अनेक ने पारंपरिक पेशे को छोड़कर रिक्शा चलाने, भवन निर्माण में मजदूरी के रास्ते अपनाए। कुछ ने इसी के साथ शिक्षा से जुड़े आरक्षण का लाभ लेने की शक्ति प्राप्त की।


आंबेडकर के जीवन काल में ही स्वामी अछूतानंद के आंदोलन से भी यह समुदाय जागरूक हुआ। रिपब्लिकन पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों ने भी इस सामाजिक समूह को राजनीतिक आधार दिया। धोबी, कोरी जैसी बिरादरी के अनेक लोग भी नए-नए पेशों और शहरों से जुड़े, साथ ही आंबेडकरवादी चेतना से प्रभावित हुए। ऐसे ही लोग ठीक-ठाक तादाद में शिक्षा की तरफ बढे़ और अपनी परंपरा की कुछ अच्छी बातों को लेते हुए अपने को आधुनिकता से जोड़ा। जिन्होंने आंबेडकर के प्रतीक और विचारों से अपने को जोड़ा, वे आधुनिक शिक्षा, अछूतपन से मुक्ति और सामाजिक सम्मान की चाह से अपने को लबरेज कर पाए। फिर यह क्रम आगे बढ़ा। जो अपने को आंबेडकरवादी प्रतीकों से जोड़ पाए, उन्होंने अपनी अगली पीढ़ियों को नया और बेहतर जीवन देने के लिए संघर्ष किया।

उत्तर प्रदेश में जाटव, पासी, धोबी, कोरी जैसी अनेक जातियों के लोग इस मुहिम में आगे बढ़े, वहीं बिहार में दुसाध, जाटव, पंजाब में रविदासिया, वाल्मीकि, आंध्र प्रदेश में माला-माद्गिा, महाराष्ट्र में महार, मातंग और अन्य अनेक जातियों ने अपने को आंबेडकर की प्रेरणा से जोड़ा। वैसे, दलितों में अनेक जातियां अभी भी आंबेडकर के प्रतीक और प्रेरणा से अपने को नही जोड़ पाई हैं। हिंदी पट्टी में मुसहर, बहेलिया, बॉसफोर, डोम, कालाबाज, कबूतरी जैसी अनेक जाति बिरादरी के अनेक लोग अभी भी आंबेडकर के प्रतीक से लाभ नहीं उठा पाए हैं। आधुनिक शिक्षा, सम्मान की चाह, बेहतर जीवन के लिए उनकी जद्दोजहद अभी प्रारंभिक स्तर पर ही है। उनमें से अनेक जातियां अभी भी पारंपरिक पेशे से जुड़ी हैं। दलित समूह की अनेक जातियों में पारंपरिक पेशा ही आर्थिक जीवन को चलाने के लिए उपलब्ध साधनों में से एक है। परंतु अपने पेशे को बहुमुखी बनाने की छूट, काम करने के विकल्पों की उपलब्धता, उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से ज्यादा शक्तिवान बनाता है।


वाराणसी के पास जयापुर गांव में मुसहर जाति की एक बस्ती है- अटल नगर। अटल नगर में शबरी और शिव की मूर्ति वाला मंदिर है। मुसहर जाति के लोग अपने को शबरी का वंशज मानते हैं। उनमें से अनेक ने अभी आंबेडकर का नाम भी नहीं सुना है। हालांकि उस गांव की जाटव बस्ती में आंबेडकर की एक मूर्ति भी लगी है। जयापुर की जाटव बस्ती में जब हम लोगों ने पूछा कि आप लोग 14 अपै्रल को, जो कि आंबेडकरजी की जयंती है, उसे कैसे मनाते हैं? उस पट्टी के वृद्ध ने बताया कि आंबेडकरजी की मूर्ति को हम लोग फूल-माला चढ़ाते हैं और शाम में हरि कीर्तन का आयोजन करते हैं। वहीं जिन दलित बस्तियों में बौद्ध चेतना का प्रभाव है, वहां बौद्ध रीति से आंबेडकर की मूर्ति के पास पूजा-पाठ और चेतना जागरण के कार्यक्रम होते हैं।

सबके अपने-अपने आंबेडकर हैं। आंबेडकर की जयंती मनाने के उनके अलग-अलग ढंग भी हैं। कहीं रात में नाटक होता है, तो कहीं ढोल-बाजे बजते हैं। सभी जगह आंबेडकर के जीवन पर आधारित जुलूस, झांकी और पुस्तक मेले जैसे आयोजन किए जाते हैं। गांवों में आंबेडकर की मूर्ति भी आपको अनेक प्रकार की मिलेगी। कही काले रंग, कहीं नीले रंग के कोट पहने आंबेडकर दिखेंगे। कहीं उन्होंने चश्मा पहन रखा है, कहीं नहीं भी पहन रखा है। लेकिन आंबेडकर चाहे जिस वेशभूषा में हों, उनके साहब हैं। उनके लिए साहब का मतलब कोई सत्ताधारी व्यक्ति नहीं, बल्कि वह ‘ज्ञानी व प्रेरणापरक व्यक्तित्व' है, जो उनके जीवन के अंधेरे का ताला खोलने के लिए उन्हें ‘मास्टर की' (गुरु किल्ली) देने की शक्ति रखता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-hindustan-editorial-column-on-14-april-badri-narayan-1902700.html


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