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न्यूज क्लिपिंग्स् | आज के संदर्भ में ग्राम-स्वराज- भारत डोगरा

आज के संदर्भ में ग्राम-स्वराज- भारत डोगरा

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published Published on Oct 4, 2013   modified Modified on Oct 4, 2013
जनसत्ता 2 अक्तूबर, 2013 : गांधीजी ने ग्राम स्वराज्य का सपना देखा था। लेकिन आजादी मिलने के बाद जो विकास नीति अपनाई गई, उसमें इस सपने के लिए कोई जगह नहीं थी। इसीलिए ग्रामीण इलाकों से शहरों की तरफ पलायन हमारे नीति नियंताओं को कभी चुभा नहीं।
सकल राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र की घटती हिस्सेदारी भी उन्हें चिंतित नहीं करती।
भारत के गांवों में आजादी के बाद कैसा बदलाव हुआ? इतने विविधतापूर्ण ग्रामीण बदलाव को समझने के दृष्टिकोण अलग-अलग हो सकते हैं। अनेक उपलब्धियों और विफलताओं के बारे में हमारी समझ में अंतर हो सकता है, पर गांवों से जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति को इस बात से इनकार नहीं होगा कि गरीबी अभी तक बड़े पैमाने पर मौजूद है।
ब्रिटिश साम्राज्य के दिनों की सबसे दुख भरी दास्तान उन भयानक अकालों की है, जो समय-समय पर भारतीय गांवों को रौंदते थे और लाखों की संख्या में लोग मारे जाते थे। स्वतंत्रता के बाद की यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है कि लाखों की मौत वाले इन अकालों से हमने सफलतापूर्वक छुटकारा पाया। इससे आगे का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य यह था कि भूख, कुपोषण और गरीबी को सदा के लिए हम अपने गांवों से दूर कर या बहुत कम कर देते, लेकिन इस लक्ष्य में अभी हमें सफलता नहीं मिली है और ये समस्याएं काफी बड़े पैमाने पर आज तक हमारे गांवों में मौजूद हैं।
एक अन्य मुख्य विफलता यह रही है कि टिकाऊ और स्थायी विकास की संभावनाएं कम हुई हैं। वन-विनाश और जल-दोहन में वृद्धि के कारण जलस्तर नीचे चला गया और रासायनिक खाद के अत्यधिक और असावधान उपयोग के कारण कृषिभूमि का उपजाऊपन कम हुआ। इससे पर्यावरण का संकट विकट हुआ और अगली पीढ़ी के लिए समस्याएं बढ़ीं। जो वनीकरण यूकेलिप्टस और पापलर जैसे पेड़ों के जरिए किया गया उसे प्राकृतिक वनों के विनाश की क्षतिपूर्ति नहीं माना जा सकता।
जल संसाधन की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनीं, विशालकाय बांध बनाए गए, मगर गांव-स्तर पर जल के संरक्षण और संग्रहण को पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया गया। फसल-चक्र में, फसलों की किस्मों में तेजी से रसायनों और मशीनों की मदद से कई ऐसे बदलाव किए गए जिससे अल्पकाल में उत्पादकता तो बढ़ी, पर आगे के लिए मिट्टी का उपजाऊपन कम होने का जो संकट उत्पन्न हुआ उस पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया।
गरीबी की समस्या बने रहने, पर्यावरण का संकट विकट होने और उसके कारणों को समझने के लिए गांवों में परंपरा और बदलाव के बीच हो रहे टकराव पर ध्यान देना जरूरी है। आजादी के समय हमारे गांवों की जो दयनीय स्थिति थी उसे 1940 के दशक में पड़े बंगाल के अकाल ने बहुत क्रूरता से स्पष्ट कर दिया था। इस अकाल में लगभग तीस लाख लोग मारे गए। इस हृदय-विदारक त्रासदी से यह स्पष्ट हो गया कि हमारे गांवों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में महत्त्वपूर्ण बदलाव की जरूरत है। पर इस बदलाव का सही रास्ता ढूंढ़ निकालने में हमसे कुछ गलतियां हुर्इं जिनका परिणाम आज गरीबी की गंभीर समस्या और पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के रूप में हमारे सामने है।
ब्रिटिश साम्राज्य का मुख्य उद््देश्य था हमारे गांवों में अपना आधिपत्य बनाए रखना और उन्हें आर्थिक संसाधनों के लिए निचोड़ना, वहां से अधिक से अधिक आर्थिक संसाधन अपने साम्राज्य के लिए एकत्र करना। साथ ही उन्होंने जुलाहों, दस्तकारों की उपेक्षा ही नहीं की, विनाश की नीतियां भी अपनार्इं ताकि ब्रिटेन के मशीनीकृत तरीकों से तैयार वस्त्र और अन्य औद्योगिक वस्तुओं की बिक्री भारत में बढ़ सके।
इन उद््देश्यों को प्राप्त करने के लिए उन्होंने भारतीय समाज में पहले से चली आ रही विषमताओं को और गहरा किया और अपने प्रति वफादार रहने वाले ऐसे जमींदारों, राजाओं-रजवाड़ों आदि को अपना विशेष समर्थन दिया जो गरीब जनता का तबाही की हालत तक शोषण करते थे। इस तरह औपनिवेशिक समय में विषमता और शोषण का साम्राज्य हमारे अधिकतर गांवों में बहुत बढ़ गया।
इस स्थिति में जिस दिशा में सबसे अधिक और बुनियादी बदलाव की जरूरत थी वह थी विषमता को दूर करने में। विशेषकर भूमि और अन्य तरह के संसाधनों से वंचित कर्ज में डूबे हुए, कई बार तो बंधक मजदूर की तरह काम करते हुए सबसे गरीब परिवारों को हमें अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए था। यहीं हमसे भूल हो गई। हम सबसे निर्धन परिवार तक नहीं पंहुच सके, अंत्योदय के आधार पर कार्य नहीं कर सके।
जमींदारी समाप्त करने का कानून जोर-शोर से बना, कुछ हद तक सामंती शोषण पर चोट भी की गई, पर विषमता की व्यवस्था में जो व्यापक बदलाव आना चाहिए था, वह नहीं आ सका। मध्यवर्ग के किसानों को कुछ लाभ अवश्य मिले, उनके स्वतंत्र विकास की संभावनाएं बढ़ीं जिनका उनमें से बहुतों ने उचित लाभ भी उठाया। पर भूमिहीन या लगभग भूमिहीन वर्ग की स्थिति में विशेष सुधार नहीं हुआ। अनेक क्षेत्रों में उन पर होने वाला तरह-तरह का सामाजिक-आर्थिक अन्याय जारी रहा।
कुछ क्षेत्रों में तो आदिवासियों की भूमि बड़े पैमाने पर उनसे छिन गई। भूमि-सुधार के जो कानून बनाए गए उनको ठीक से लागू नहीं किया गया और उनका बहुत कम लाभ सबसे निर्धन वर्ग तक पहुंच सका।
जहां एक ओर हम पहले से चल रही शोषण और विषमता की व्यवस्था में बुनियादी बदलाव नहीं ला सके, वहीं जिन क्षेत्रों में हम अपनी समृद्ध परंपरा से वास्तव में कुछ सीख सकते थे वहां हमने इसकी उपेक्षा की। उदाहरण के लिए, कृषि और सिंचाई की तकनीक में स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु के अनुकूल कई शताब्दियों से किसानों और अन्य ग्रामवासियों ने धीरे-धीरे जो प्रगति की थी, जिसमें कितनी ही पीढ़ियों का ज्ञान संग्रहीत था, उसकी ओर हमने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।
हमने गांवों के पिछड़ेपन को देखा और यहां की हर बात को पिछड़ी हुई मान लिया। यह हमारी बहुत बड़ी भूल थी। गांव के पिछड़ेपन और गरीबी का सबसे बड़ा कारण शोषण और विषमता की व्यवस्था थी। अगर इसे हम दूर करने पर ध्यान केंद्रित करते तो हमें साथ ही साथ गांवों के किसानों-मजदूरों-दस्तकारों, विशेषकर बुजुर्ग लोगों के पास संग्रहीत बहुत-सी जानकारी और ज्ञान को समझने का अवसर भी मिलता।
उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन भारत के अधिकतर क्षेत्रों में फैलता गया वैसे-वैसे गांवों की आर्थिक तबाही बढ़ती गई। इसके बावजूद उस समय के अनेक ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय कृषि और सिंचाई विशेषज्ञों ने भी इस बात को नोट किया था कि जहां तक कृषि और सिंचाई की परंपरागत तकनीक का सवाल है वह बहुत उत्कृष्ट कोटि की है और भारतीय किसानों के तौर-तरीके बहुत समृद्ध हैं। दस्तकारों के हुनर के बारे में भी बहुत-से वृत्तांत मिलते हैं। हमारे गांवों की परंपरागत तकनीकी में स्थानीय समस्याओं के व्यावहारिक समाधान की कुशलता थी।
उदाहरण के लिए, हमारे देश में वर्षा मुख्य रूप से मानसून के दो-तीन महीनों में केंद्रित है। इसलिए जल संरक्षण और संग्रहण की विशेष आवश्यकता है। ब्रिटेन में वर्ष भर कुछ न कुछ वर्षा होती रहती है, वह भी धीरे-धीरे। इसलिए वहां जल संग्रहण और संरक्षण की इतनी आवश्यकता नहीं है। वहां की स्थिति के आधार पर काम करने वाले विशेषज्ञों ने भारत के परंपरागत जल संग्रहण और संरक्षण के तौर-तरीकों की उपेक्षा की तो यह बात समझी जा सकती है, पर आजादी के बाद हम स्वयं भी यही क्यों करते रहे?
संक्षेप में कहें तो भारतीय गांवों के संदर्भ में परंपरा के दो पक्ष हैं। एक पक्ष विषमता, अन्याय, अंधविश्वास, छुआछूत आदि से संबंधित है, जिसका जम कर विरोध होना चाहिए। पर परंपरा का एक दूसरा पक्ष भी है, जो कई पीढ़ियों और शताब्दियों से किसानों, मजदूरों, दस्तकारों, वैद्यों, तालाब बनाने वालों, जल-संग्रहण की व्यवस्था से जुड़े विशेष समुदायों, पशु-पालकों द्वारा संग्रहीत ज्ञान से संबंधित है। यह ज्ञान प्राय: अलिखित रूप से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता रहा है।
इस परंपरा द्वारा ही बहुत-सी जैव विविधता बचाई गई है, बेहद विकट परिस्थितियों में जल संकट का सामना करने के उपाय खोजे गए हैं। इसलिए इस परंपरा को बचाए रखना बहुत जरूरी है। स्थानीय परिस्थितियों और जलवायु की जरूरतों के लिहाज से यह ज्ञान अमूल्य है। आजादी के बाद ग्रामीण विकास में हमसे मुख्य गलती यह हुई कि गांवों में पहले से चली आ रही शोषण और विषमता की व्यवस्था का हम जम कर विरोध नहीं कर सके, उससे कई स्तरों पर समझौता करते चले गए।
दूसरी ओर परंपरा के जिन पक्षों से हमें सीखना था, आधुनिक आकर्षक तकनीक के प्रचार-प्रसार में उनकी हम उपेक्षा कर बैठे। अरबों रुपए के बड़े-बड़े बांध बना दिए, पर पहले से चले आ रहे तालाबों की ठीक मरम्मत तक हम नहीं कर सके। इसी तरह गांव-मुहल्ले के स्तर पर सामान्य हित के लिए मिल-जुल कर कार्य करने की जो परंपरा थी, उसमें भी कमी आई। गांव के चरागाह, वन और अन्य हरियाली की रक्षा के प्रति, तालाबों और जल-संग्रहण-संरक्षण की विधियों के प्रति जो सामूहिक जिम्मेदारी की भावना थी उसका भी ह्रास हुआ।
जैसे-जैसे पर्यावरण संकट गहराता जा रहा है, गांवों की उपेक्षा करने वाली  विकास की मौजूदा रीति-नीति पर सवाल उठ रहे हैं। अगर गांव नहीं रहेंगे या उजाड़ हो जाएंगे तो क्या हमारी प्राकृतिक संपदा बची रहेगी? इसलिए खेती-किसानी और गांव को महज जीडीपी के नजरिए से न देख कर विकास के वैकल्पिक मॉडल की तलाश के लिहाज से देखना होगा। गरीब से गरीब परिवारों को गांव की भूमि और अन्य संसाधनों में न्यायसंगत हिस्सेदारी देनी होगी।
दूसरी अहम बात यह है कि कृषि, तकनीक, सिंचाई, जल-संग्रहण, वानिकी आदि क्षेत्रों में हम कई शताब्दियों और पीढ़ियों से संचित ज्ञान को पहचानें और उनके अनुभवों का लाभ उठाते हुए ही आगे बढ़ें। केवल अल्पकालीन उत्पादन बढ़ाने के बारे में न सोचें, बल्कि यह भी सोचें कि कुदरत के भंडार आने वाली पीढ़ियों के लिए भी किस तरह बने रहेंगे। आज जब भी ग्रामीण विकास की बात होती है तो वह कुछ योजनाओं और कार्यक्रमों तक सिमट कर रह जाती है। यह बहुत एकांगी दृष्टि है। हमें इस मुद््दे को उसके संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/52374-2013-10-02-05-09-30


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